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कर्म~ सिद्धान्त : कर्म और फल का विज्ञान

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मीना राजपूत, कोटा

संयोजिका : चेतना विकास मिशन

वेदवाक्य है : ‘नाभुक्तं क्षीयते कर्म ‘ अर्थात् बिना फल भोगे कर्म का क्षय नहीं होता।
गीता (2.47) का उपदेश :
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.’’
अर्थात् तुम्हारा कर्म करने में अधिकार है, फल में कदाचित् नहीं ।
वह इसलिए क्योंकि कर्ता के ऊपर कर्म का फल नहीं छोड़ा जा सकता। ईश्वर कर्माध्यक्ष है, वही जीवों को उनके कर्मों का फल देता है। कैसे देता है, कब देता है, यह कहना कठिन है।

सांख्य दर्शन का सूत्र (5.2) है :
‘न ईश्वराधिष्ठितेफलनिष्पत्तिः कर्मणातत्सिद्धेः’
अर्थात् ईश्वर के अधिष्ठिाता होने पर ही फल की सिद्धि होती है, कर्म द्वारा स्वयं फल की सिद्धि न होने से। कोई भी व्यक्ति अपने पाप कर्मों का फल नहीं भोगना चाहता परन्तु भोगता है अन्यथा कोई जन्म से अन्धा या विकलाङ्ग क्यों उत्पन्न होता है?
वैशेषिक दर्शन में इस ईश्वरीय शक्ति को “अदृष्ट ” (Invisible) कहा गया है।

“ब्रह्माण्ड का है हर ज़र्रा,
एक विधान में चल रहा।
किसी अदृश्य शक्ति ने है,
समस्त जगत् को रचा।
कार्य-कारण सम्बन्ध एवं,
गणित से है इसे बाँध रखा।
तदनुरूप कर्मफल सिद्धान्त से,
है जगत् चल रहा।
जैसा करोगे वैसा भरोगे,
स्वभाव रूप से बह रहा।
मानो कि एक दिव्य कम्प्यूटर,
जगत् में काम कर रहा।
ऋत-सत्य के सौफ्रट्वेयर से,
स्वतः चालित हो रहा।
असंख्य जीवात्माओं के,
कर्मों का हिसाब हो रहा।
जो भी हैं वे कर रहे,
सब
कुछ दर्ज हो रहा।
जन्म-जन्मान्तरों के कर्मों का उनके,
लेखा-जोखा हो रहा।
किसे क्या मिले योनि,
यह भी
निश्चित हो रहा।
उस योनि में आयु कितनी,
यह सुनिश्चित हो रहा।
उसके सुख-दुःख के भोगने का,
प्रावधान भी हो रहा।
अचूक तटस्थता से सब से,
नितान्त न्याय हो रहा।
यही सृष्टि-प्रवाह है,
अनादि काल से चल रहा।।”
~योगदर्शन काव्य-व्याख्या : साधनपाद सूत्र
-13

कुछ दृष्टान्त :

(1) इंगलैंड में फलैमिंग नामक एक किसान रहते थे। एक बार उन्होंने देखा कि एक बालक की जान ख़तरे में है। उन्होंने अपनी सूजबूझ से बालक की जान बचा ली। सायं को उस बालक के पिता उस किसान के घर पहुँचे और धन्यवाद करने के उपरान्त उन्हें प्रचुर राशि उपहार स्वरूप देनी चाही परन्तु उन्होंने इसे लेने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि बच्चे की जान बचाना तो उसका फर्ज़ था। आगंतुक इस जवाब से बहुत प्रभावित हुए।
संयोगवश, किसान की कुटिया से उनका बालक बाहर आया। कृतज्ञ आगन्तुक ने किसान से कहा,” मैं आपके बेटे को सुशिक्षित करना चाहता हूँ। मेरा विश्वास है कि उच्च शिक्षा और आपके उच्च आदर्शों से यह बालक एक दिन महान् व्यक्ति बनेगा। किसान ने धन्यवाद सहित आगन्तुक का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
कालान्तर में वह सुशिक्षित-सुसंस्कृत बालक बना सुविख्यात वैज्ञानिक ऐलैग्ज़ैन्डर फलैमिंग जिन्होंने पैंसिलीन का आविष्कार करके लाखों लोगों की जान बचाई !!! जिन्होंने इन्हें शिक्षा दिलाई, वे कृतज्ञ महानुभाव थे सर रोडाल्फ चर्चिल !! और जिस बालक की जान किसान फलैमिंग ने बचाई थी, वे बने ब्रिटेन के सुविख्यात प्रधानमन्त्री सर विंस्टन चर्चिल !

( 2). एक अनाथ बालक भूखा- प्यासा एक उद्यान के किनारे बैठा था। सामने के घर से एक महिला निकली। हिचकिचाते हुए, वह उनके पास गया और एक पानी का गिलास मांगा। महिला ने उसे काफ़ी देर से वहां बैठे हुए देख लिया था। वात्सल्यमयी महिला ने उसे एक गिलास दूध दे दिया। धन्यवाद करके बालक चला गया।
दो दशक बाद वह महिला गम्भीर अवस्था में एक हस्पताल में भर्ती हुई। चिकित्सा के उपरान्त उसे मोटी राशि का बिल थमाया गया। उसके पास बिल चुकाने के पैसे नहीं थे। बहुत विचलित थी। नर्सिंग होम के मालिक ने, उसे देख लिया और संशोधित बिल भेज दिया : “आपके बिल का भुगतान दशकों पहले दूध के गिलास के रूप में कर दिया गया है।”

(3). रूसी दार्शनिक लिओ टॉलस्टॉय (Leo Tolstoy) की एक कहानी है जिसका शीर्षक है “God sees the truth but waits” : ईश्वर देखता है पर इन्तज़ार करता है। इस में वे लिखते हैं : एक साधु रेल के डिब्बे में सफ़र कर रहा होता है। डिब्बा ख़ाली हो जाता है; देखता है एक ट्रंक पड़ा है। उसकी नियत ख़राब हो जाती है। अपना बना कर उठा लेता है। बाहर निकलते समय, टी.टी.को लगता है कि ट्रंक कुछ भारी है। पूछने पर साधु कहता है : ” कपड़े हैं ।” खोलने को कहने पर, साधु बोलता है ” चाबी खो गई है ।”
जब ट्रंक का ताला तोड़ा गया, उस में एक लाश ( Dead Body) मिली। हत्या का मुकद्दमा चला। फांसी की सज़ा हुई। तब वह साधु रोने लगता है और कहता है : ” जज साहब ! मैं सच्च कहता हूँ, मैने यह ख़ून नहीं किया। हां, मैंने बीस साल पहले एक ख़ून किया था। सज़ा से बचने के लिए मैं साधु के रूप में इधर-उधर फिर रहा हूं। शायद उसी ख़ून की सज़ा मुझे आज मिल रही है।”

ईश्वरीय विधान है : अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
अर्थात् अच्छे या बुरे कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है; यदि इस जन्म में न मिले, अगले जन्म में अवश्य मिलेगा।

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