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अनिवार्य है वैचारिक क्रांति?

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शशिकांत गुप्ते

पप्पू नापास हो गया,गप्पू पास हो गया ।(यहॉ पर पप्पू और गप्पू काल्पनिक पात्र हैं। यह स्पष्टीकरण देना आवश्यक है)
दोनों में राजनैतिक के साथ वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा भी है।
प्रतिस्पर्धा की साधारण परिभाषा इस तरह है।
प्रतिस्पर्धा मतलब ,जिसमें दो या अधिक व्यक्ति एक दूसरे से किसी काम में आगे निकलने के लिए प्रयत्नशील तथा कटिबद्ध होते हैं
प्रतिस्पर्धा व्यक्ति एवं समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
एक समाजशास्त्र के विशेषज्ञ ने प्रतिस्पर्धा को व्यापक रूप से समझाया है।
सामाजिक प्रगति का आधार प्रतिस्पर्धा को माना है। दरअसल जो समाज जितना प्रतिस्पर्धाशील होगा उस समाज मे अर्जित गुणों का महत्व होने से व्यक्तियों की कार्यकुशलता, क्षमता वृद्धि की संभावना अधिक होगी। प्रतिस्पर्धा के माध्यम से व्यक्ति तथा समूह अपने निजी हित की पूर्ति करते है।
प्रतिस्पर्धा सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाने मे भी सहायक होती है। जहाँ व्यक्तियों और समूहों मे नियमानुसार स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चलती है वहां समूह की दृढ़ता (एकता) बनी रहती है। जब प्रतिस्पर्धा स्वतंत्र और उचित ढंग से चलती है तो प्रत्येक को अपनी योग्यतानुसार अपना कार्य सर्वोत्तम ढंग से करने का अवसर मिलता है। इससे समूह सम्बंध व्यवस्थित बने रहते है और समूह एकता सूत्र में बंधा रहता है। (गूगल से साभार)
प्रतिस्पर्धा के उपर्युक्त महत्व को निहितस्वार्थ की मानसिकता से ग्रस्त राजनेताओं ने दूषित कर दिया है। विचाविहीन राजनीति के कारण हीन भावना से ग्रस्त लोगों ने अपने निजी स्वार्थ को साधने के लिए राजनीति में प्रतिस्पर्धा को प्रतिशोध में बदल दिया है।
जनहित को हाशिए में रखकर प्रतिशोध की भावना वैमनस्यता में बदल रही है। यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घण्टी है।
प्रतिशोध की भावना एक प्रकार का मानसिक विकार है। इसतरह के विकार से ग्रस्त लोगों को मनोचिकित्सक के द्वारा परामर्श (Counseling) करवाना चाहिए।
वर्तमान दौर में जो लोग उक्त मानसिक विकार के मरीज हैं, वे लोग भ्रमवश विकार को मानसिक विकास समझने की भूल कर रहें हैं।
ऐसे लोगों की मानसिकता झोला छाप चिकित्सको और कथित गुप्तरोग विशेषज्ञों जैसी हो जाती है। झोलाछाप और गुप्तरोग के कथित विशेषज्ञों का व्यापार सिर्फ और सिर्फ विज्ञापनों पर अवलंबित होता है। हरशहर,नगर गांव कस्बे और गलियों में इन झोलाछाप और गुप्तरोग के चिकित्सकों को बड़े बड़े हार्डिंग, पोस्टर,सार्वजनिक दीवारों और सार्वजनिक लघुशंका निवृत्ति स्थानों पर दिखाई देतें हैं।
झोलाछाप और कथित गुप्तरोग चिकित्सकों की मनोवृत्ति होती है कि इनके लोकलुभावन विज्ञापन पढ़,देख कर, बस एक बार कोई मरीज इनके पास पहुँच जाए। मरीज के रोग से इनका कोई लेनादेना नहीं होता है।
इन चिकित्सकों का एक ही लक्ष्य होता है, मरीज की जेब किस तरह खाली की जाए।
इनलोगों के सम्पर्क में आने वाले मरीजों की स्थिति आप मरण और जग हँसाई जैसी हो जाती है। बहुत से मरीज तो अपनी साथ हुई ठगी को बताते भी नहीं हैं।
ऐसे चिकित्सकों से लोगों को जागरूक करने वाले लोग सतत सक्रिय होतें हैं। दुर्भाग्य से नादान लोग इन चिकित्सकों के विज्ञापनों के झांसे में आकर बार बार ठगे जातें हैं।
ऐसे लोगों को मनोचिकित्सकों के द्वारा काउन्सलिंग की आवश्यकता है। बशर्ते कि मनोचिकित्सक भी असली होना चाहिए? यह आशंका मानस पटल पर इसलिए उपस्थित होती है कि, आए दिन ठगी की घटनाओं की खबरें समाचार माध्यमों में पढ़ने,सुनने को मिल रही हैं। फिर भी ना तो ठग अपने व्यापार को बंद कर रहें हैं? ना ही ठगे जाने वाले अपनी आदतों से बाज आ रहें हैं।
ऐसे लोगों को गोदी मीडिया का भी प्रश्रय मिलता ही है।
इस समस्या का एक ही हल है,वैचारिक क्रांति?

पप्पू नापास हो गया,गप्पू पास हो गया ।(यहॉ पर पप्पू और गप्पू काल्पनिक पात्र हैं। यह स्पष्टीकरण देना आवश्यक है)
दोनों में राजनैतिक के साथ वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा भी है।
प्रतिस्पर्धा की साधारण परिभाषा इस तरह है।
प्रतिस्पर्धा मतलब ,जिसमें दो या अधिक व्यक्ति एक दूसरे से किसी काम में आगे निकलने के लिए प्रयत्नशील तथा कटिबद्ध होते हैं
प्रतिस्पर्धा व्यक्ति एवं समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
एक समाजशास्त्र के विशेषज्ञ ने प्रतिस्पर्धा को व्यापक रूप से समझाया है।
सामाजिक प्रगति का आधार प्रतिस्पर्धा को माना है। दरअसल जो समाज जितना प्रतिस्पर्धाशील होगा उस समाज मे अर्जित गुणों का महत्व होने से व्यक्तियों की कार्यकुशलता, क्षमता वृद्धि की संभावना अधिक होगी। प्रतिस्पर्धा के माध्यम से व्यक्ति तथा समूह अपने निजी हित की पूर्ति करते है।
प्रतिस्पर्धा सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाने मे भी सहायक होती है। जहाँ व्यक्तियों और समूहों मे नियमानुसार स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चलती है वहां समूह की दृढ़ता (एकता) बनी रहती है। जब प्रतिस्पर्धा स्वतंत्र और उचित ढंग से चलती है तो प्रत्येक को अपनी योग्यतानुसार अपना कार्य सर्वोत्तम ढंग से करने का अवसर मिलता है। इससे समूह सम्बंध व्यवस्थित बने रहते है और समूह एकता सूत्र में बंधा रहता है। (गूगल से साभार)
प्रतिस्पर्धा के उपर्युक्त महत्व को निहितस्वार्थ की मानसिकता से ग्रस्त राजनेताओं ने दूषित कर दिया है। विचाविहीन राजनीति के कारण हीन भावना से ग्रस्त लोगों ने अपने निजी स्वार्थ को साधने के लिए राजनीति में प्रतिस्पर्धा को प्रतिशोध में बदल दिया है।
जनहित को हाशिए में रखकर प्रतिशोध की भावना वैमनस्यता में बदल रही है। यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घण्टी है।
प्रतिशोध की भावना एक प्रकार का मानसिक विकार है। इसतरह के विकार से ग्रस्त लोगों को मनोचिकित्सक के द्वारा परामर्श (Counseling) करवाना चाहिए।
वर्तमान दौर में जो लोग उक्त मानसिक विकार के मरीज हैं, वे लोग भ्रमवश विकार को मानसिक विकास समझने की भूल कर रहें हैं।
ऐसे लोगों की मानसिकता झोला छाप चिकित्सको और कथित गुप्तरोग विशेषज्ञों जैसी हो जाती है। झोलाछाप और गुप्तरोग के कथित विशेषज्ञों का व्यापार सिर्फ और सिर्फ विज्ञापनों पर अवलंबित होता है। हरशहर,नगर गांव कस्बे और गलियों में इन झोलाछाप और गुप्तरोग के चिकित्सकों को बड़े बड़े हार्डिंग, पोस्टर,सार्वजनिक दीवारों और सार्वजनिक लघुशंका निवृत्ति स्थानों पर दिखाई देतें हैं।
झोलाछाप और कथित गुप्तरोग चिकित्सकों की मनोवृत्ति होती है कि इनके लोकलुभावन विज्ञापन पढ़,देख कर, बस एक बार कोई मरीज इनके पास पहुँच जाए। मरीज के रोग से इनका कोई लेनादेना नहीं होता है।
इन चिकित्सकों का एक ही लक्ष्य होता है, मरीज की जेब किस तरह खाली की जाए।
इनलोगों के सम्पर्क में आने वाले मरीजों की स्थिति आप मरण और जग हँसाई जैसी हो जाती है। बहुत से मरीज तो अपनी साथ हुई ठगी को बताते भी नहीं हैं।
ऐसे चिकित्सकों से लोगों को जागरूक करने वाले लोग सतत सक्रिय होतें हैं। दुर्भाग्य से नादान लोग इन चिकित्सकों के विज्ञापनों के झांसे में आकर बार बार ठगे जातें हैं।
ऐसे लोगों को मनोचिकित्सकों के द्वारा काउन्सलिंग की आवश्यकता है। बशर्ते कि मनोचिकित्सक भी असली होना चाहिए? यह आशंका मानस पटल पर इसलिए उपस्थित होती है कि, आए दिन ठगी की घटनाओं की खबरें समाचार माध्यमों में पढ़ने,सुनने को मिल रही हैं। फिर भी ना तो ठग अपने व्यापार को बंद कर रहें हैं? ना ही ठगे जाने वाले अपनी आदतों से बाज आ रहें हैं।
ऐसे लोगों को गोदी मीडिया का भी प्रश्रय मिलता ही है।
इस समस्या का एक ही हल है,वैचारिक क्रांति?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

इंदौर

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