शशिकांत गुप्ते
होली रंगों का त्यौहार है। विभिन्न रंगों से होली खेली जाती है।
सन 1975 में प्रदर्शित फ़िल्म शोले में गीतकार आनंद बक्शी ने गीत की निम्न पंक्तियों मे सामाजिक सौहाद्र की कल्पना की है।
होली के दिन दिल खिल जाते हैं
रंगों में रंग मिल जाते हैं
गिले शिक़वे भूल के दोस्तों
दुश्मन भी गले मिल जाते हैं
कल्पना तो अंतः कल्पना ही रहती है। कल्पना की उड़ान अनंत होती है।
काल्पनिक कहानियों में आसमान में उड़ने वाली परी होती है। सफेद घोड़े पर सवार राजकुमार गगन में उड़ता है। राक्षस की जान नन्हे से तोते में होती है।
काल्पनिक कहानियों पर फिल्में भी बनी है। अधिकांश फिल्मों की कहानियां कल्पनातीत ही होती है। इन कहानियों का यथार्थ से कोई लेनादेना नहीं होता है। कल्पनातीत कहानियों पर आधारित फिल्में सिर्फ दर्शकों की तादाद को आकर्षित करने के लिए बनाई जाती है। इसतरह की फ़िल्म बनाने के पीछे, फ़िल्म निर्माता का शुद्ध व्यापारिक दृष्टिकोण होता है।
दुर्भाग्य से सांस्कृतिक क्षेत्र भी बाजारवाद की गिरफ्त में आ गया है। बाजारवाद तक तो ठीक है, लेकिन सांस्कृतिक क्षेत्र साम्प्रदायिक रंग में रंग जाए तो सामाज का सौहाद्रपूर्ण वातावरण दूषित होने का डर लगता है।
यह सौहाद्रपूर्ण वातावरण वैमनस्यता में बदलने की सुनियोजित साज़िश ही प्रतीत होती है।
कल्पना को सच समझने वाले भावुक लोग साज़िश का शिकार हो जातें हैं। भावनाओं के वशीभूत होने से लोगों की मानसिकता में द्वेषभाव पैदा होता है।
यही मानसिकता नादान और नासमझ लोगों को देश की पवित्र गंगाजमुनी तहज़ीब के विपरीत आचरण करने के लिए
उकसाती है। लोगों को उत्साह और उन्माद के अंतर को समझना अनिवार्य है।
उक्त साज़िश रचने वालें, जनता की मूलभूत समस्याओं को हमेशा के लिए फाइलों में बन्द रखने सफल हो जातें हैं।
काल्पनिक कहानी का स्मरण होता है, आमजन को ख़ौफ़ज़दा रखने वाले दानव की जान एक नन्हे से परिंदे में कैद होती है।
इसीतरह कल्पना की उड़ान चमन के अमन को सियासी रंग देने के लिए फाइल में अंकित की गई है।
पुनः यही कहा जाएगा कल्पना अंतः कल्पना ही रहती है हक़ीक़त नहीं।
यह सत्य है कि, वसुध्येवकुम्बकम की धारणा निश्चित ही मूर्त रूप लेगी।
इनदिनों एक शब्द का बहुत प्रचलित हुआ है। यदि कोई शुभ या अशुभ घटना घटित होती है। इस घटित हुई घटना में किसी को असफलता या सफलता प्राप्त होती है, तो कहा जाता है
फलाँ की फाइल निपट गई
उदारमना और सकारात्मक सोच रखने वाले भविष्य यही कहेंगे, झूठ के पाँव नहीं होतें हैं। साज़िश की फाइल निपट गई?
शशिकांत गुप्ते इंदौर