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यथार्थ को स्वीकारना हो क्रांति है

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शशिकांत गुप्ते

परिवर्तन संसार का नियम है।
परिवर्तन को समझना जरूरी है।

गांधीजी ने समाज के कल्याण के लिए सुधारवादी तरीके को त्याग कर परिवर्तनकारी तरीका अपनाया है।
सुधारवादी तरीका तात्कालिक राहत दे सकता है। परिवर्तन का तरीका स्थाई हल दिलाता है।
सुधारवादी तरीका फटे पर पैबंद मतलब थिंगला लगाना,और परिवर्तन का मतकब समूचा बदल देना होता है।
वर्तमान में सुधारवादी तरीका ही अपनाया जा रहा है। यथास्थितिवादियों द्वारा बहुत ही चालाकी के साथ सुधारवादी तरीके का परिवर्तन के रूप में विज्ञापन किया जा रहा है।
परिवर्तनकारी और यथास्थितिवादियो में हमेशा संघर्ष होता रहा है।
यथास्थितिवाद दकियानूसी सोच है। परिवर्तन प्रगतिशीलता का द्योतक है। परिवर्तन करने वालें ही सच्चें क्रांतिकारी होतें हैं। इसीलिए क्रन्तिकारियों के साथ यथास्थितिवादी हमेशा छल ही करतें हैं।
राजनैतिक,सामाजिक,साहित्यिकधार्मिक,और सांकृतिक
हर क्षेत्र में यदि क्रांतिकारी नहीं होते तो, जो आज परिवर्तन दिखाई दे रहा है। वह दिखाई देना संभव नहीं था।
आध्यात्मिक संतों ने भी अध्यात्म के माध्यम से लोगों में जागृति लाने का हर संभव प्रयास किया है। यह भी एक क्रांति ही है।
तात्कालीन दकियानूसी लोगों के आगे संत झुकें नहीं। अपनी बात को संतों ने आमजन के समक्ष बेबाकी से रखा। संतों के कथनी करनी में भिन्नता नहीं होती है।
सच्चे संत सर्वधर्म समभाव की धारणा को मूर्तरूप देने के लिए सतत प्रयत्नशील रहतें हैं।
संत साम्प्रदायिक सौहाद्र के पक्षधर होतें हैं।
यथास्थितिवादी हमेशा क्रांति को दबाने की ही चेष्टा करतें हैं।
क्रांति को व्यापक रूप में समझने की आवश्यकता है। क्रांति मतलब सिर्फ जिंदाबाद,मुर्दाबाद के नारे लगाना नहीं होता है।
हरएक क्षेत्र में व्याप्त दकियानूसी सोच को बदलना, आमजन में वैचारिक परिपक्वता जागृत करने का प्रयास करना, आमजन में मानवीयता जागृत करना, यथास्थितिवादियों द्वारा आमजन के जहन में बैठाई कोरी भावनाओं को दूर कर आमजन को यथार्थ से अवगत कराना ही क्रांति है।
मूल रूप से आमजन को स्वयं की अधिकारों के प्रति सचेत करना क्रांति है।
जब आमजन स्वयं के अधिकारों के प्रति जागृत हो जाएगा तब वह स्वयं ही दकियानूसी सोच को त्याग कर सावलंबी हो जाएगा।
आत्मनिर्भर होने से आमजन व्यक्तिपूजक नहीं रहेगा।
आमजन में आत्मनिर्भरता आ जाएगी तब वह प्रख्यात शायर दुष्यन्त कुमार का शेर पढ़ेगा।
कौन कहता है के आसमान में सुराग नहीं होता,
जरा एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों

परिवर्तनकारी कभी भी स्वयं प्रसिद्धि के लिए विज्ञापन नहीं करतें हैं।
हरएक क्षेत्र में कार्यरत परिवर्तनकारी संत तुकाराम द्वारा कहे इस सूक्ति को चरितार्थ करतें हैं।
आधी केले मग सांगितले आर्थत पहले स्वयं ने आचरण किया, फिर लोगों से कहा।
आज बगैर कुछ करे ही सिर्फ विज्ञापनों में उपलब्धियों को दर्शाया जा रहा है।
क्रांतिकारी विचारक रोटी और बोली के अधिकारों में बोली के अधिकार के पक्षधर होतें हैं।
आमजन बोली के अधिकार को आत्मसात कर लेता है तो, रोटी के लिए संघर्ष करने की पात्रता तो आमजन में स्वाभाविक रूप स्वस्फूर्त आ जाती है। रोटी का अधिकार प्राप्त करने से तात्पर्य आमजन में अपना अधिकार मांगने की पात्रता का आ जाती है।आमजन जीवन के साथ जीविका प्राप्त करने के लिए व्यवस्था से सँघर्ष करने में सक्षम हो जाता है। जीविका प्राप्त करने का अधिकार मांगना मतलब अपने द्वारा किए जा रहे श्रम का उचित पारिश्रमिक प्राप्त करना है। स्वावलंबी कभी भी भिखारियों की तरह भीख नहीं माँगता है।
दुर्भाग्य से इक्कीसवीं सदी में यथास्थितिवाद को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है।
इस संदर्भ में क्रांतिकारी संत कबीर साहब का यह दोहा प्रासंगिक होगा।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना

इस दोहे अर्थ : राम और रहीम उस परमसत्ता, परमसत्य के ही दो नाम हैं जो लोगों से अपनी सुविधा और क्षेत्र विशेष के आधार पर रख लिए हैं। पृथक नाम रख कर लोग इनकी श्रेष्ठता के लिए आपस में वाद विवाद करते हैं, लड़ते हैं। किसी ने भी मर्म को नहीं जाना है। मर्म क्या है ? समस्त श्रष्टि का पालनहार और मालिक एक ही है भले ही उसे किसी भी नाम से पुकारा जाय। जब सभी रखे गए नामों का सबंध परम सत्ता से है तो झगड़ा किस बात का।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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