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क्या नाटो अपने “गरीब” सदस्य देशों को “बली का बकरा” बनाना चाहता है

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गौतम कश्यप

रूस – यूक्रेन विवाद शुरू होने के बाद अमेरिका की एक लाख से ज्यादा सेना यूरोप में तैनात हो चुकी है। फिर भी अमेरिका रूस से सीधा उलझना नहीं चाहता है, क्योंकि उसे डर है कि ऐसा करने पर विश्वयुद्ध भड़क उठेगा। नाटो के सदस्य देशों की आम राय है कि यूक्रेन यह लड़ाई खुद लड़े। यूरोपीय संघ के एक सांसद के अनुसार, वे यूक्रेन को उसके अंतिम सैनिक के जिंदा रहने तक हथियारों से मदद करते रहेंगे। जबकि खुले तौर पर नाटो ज्यादा से ज्यादा प्रतिबंध लगाकर रूस को कमजोर करने की कोशिश करेगा।
दरअसल, यूक्रेन में रूसी सैन्य-अभियान के शुरू होने के बाद अमेरिका ने यूरोपीय देशों पर यूक्रेन में हथियार सप्लाई करने का दवाब डाला था। इटली ने अमेरिका की बात मानी, लेकिन वहाँ हवाई-अड्डे के कर्मचारी सड़कों पर उतर कर अपनी सरकार के फैसले का विरोध कर रहे हैं। पोलैंड इसके लिए तैयार हुआ क्योंकि उसके पास सोवियत संघ और रूस के बने युद्धक विमान और हथियार हैं, और यूक्रेनी सेना के पास इन हथियारों के चलाने का अनुभव है। रूस ने इसपर प्रतिक्रिया दी कि यदि कोई देश इस लड़ाई में कूदता है तो इसका मतलब है वह रूस से युद्ध करने को तैयार है। उसके बाद पोलेंड ने कदम पीछे खींच लिए और कहा कि वह अपने सारे हथियार जर्मनी को भेज देगा और नाटो अपने स्तर से उसे यूक्रेन पहुंचाए। नाटो के सदस्य देश हंगरी ने भी स्पष्ट किया है कि वह अपने क्षेत्र और सीमा का इस्तेमाल यूक्रेन में हथियार भेजने के लिए नहीं करने देगा। अमेरिका ने टर्की पर दवाब बनाया कि वह रूस से खरीदी अपनी हवाई रक्षा प्रणाली S-400 को यूक्रेन को सौंप दे, लेकिन टर्की ने अमेरिका की बात नहीं मानी। ज्ञात हो कि नाटो का सदस्य देश होते हुए भी टर्की ने रूस से S-400 खरीदा था। इसके कारण टर्की को कई अमेरिकी प्रतिबंध झेलने पड़े थे और अमेरिका ने उसे अभी तक F-35 जेट प्रोग्राम से बाहर रखा हुआ है।
जर्मनी और फ्रांस जैसे मजबूत देश भी रूस से सीधे उलझना नहीं चाहते हैं, क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि रूसी मिसाइल हमले में उनके बर्लिन और पेरिस जैसे सुंदर शहर तबाह हो जायें।
ताजा स्थिति में सभी मजबूत नाटो देश स्वयं को बचा कर चल रहे हैं, लेकिन अपने हितों के लिए कमजोर साथियों को बली का बकरा बनाने पर तुले हुए हैं। 24 मार्च को ब्रूसेल्स में नाटो की बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने हिस्सा लिया था। वहाँ उन्होंने हंगरी, बुल्गारिया, रोमानिया और स्लोवाकिया पर दबाव डालकर रूस के खिलाफ अपनी सेना और हथियार रखने को तैयार किया है, जबकि ये देश रूस से अपने संबंध खराब करना नहीं चाहते और रूस के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों को मानने से इनकार कर रहे हैं। ये देश ऊर्जा जरूरतों के लिए रूस पर निर्भर हैं और वहाँ की आम जनता नहीं चाहती है कि उनकी सरकारें रूस के खिलाफ अपनी जमीन से यूक्रेनी नाजी सत्ता का साथ दें। ये देश खुद नाजीवाद के बुरे दौर को देख चुके हैं।  अमेरिका अपनी महत्वाकांक्षा के लिए इन देशों को जबरदस्ती युद्ध की आग में झोंकना चाहता है, लेकिन इससे नुकसान सिर्फ यूरोप को होगा। अमेरिका यूरोप से काफी दूर है, उसके जमीन पर युद्ध नहीं होगा। ऐसे में इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व थोप कर अमेरिका पूरे यूरोप को खतरे में डालना चाह रहा है। 
देखा जाए तो नाटो के शक्तिशाली सदस्य अभी भी रूस से ईंधन की खरीद जारी रखकर रूस का समर्थन कर रहे हैं। वे अमेरिकी दवाब में अपने हितों से समझौता करने को हरगिज तैयार नहीं हैं। किसी भी स्थिति में फ्रांस और जर्मनी संयुक्त राज्य अमेरिका की महत्वाकांक्षा के लिए नग्न होने को तैयार नहीं होंगे, ऐसे में कमजोर यूरोपीय देशों को बली का बकरा कहाँ तक जायज है?
*गौतम कश्यप*

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