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कांग्रेस में दम नहीं, तो सहयोगी भी छोड़ रहे

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बृजेश शुक्ल
किसी भी राजनीतिक दल की केंद्रीय सत्ता जब कमजोर होती है तो उसके सहयोगी भी अपने लिए अवसर तलाशने लगते हैं। कांग्रेस के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। तमिलनाडु में सत्तारूढ़ डीएमके पहली बार उत्तर भारत में अपने लिए संभावनाएं तलाश रहा है। दिल्ली में भव्य कार्यालय का निर्माण कर डीएमके प्रमुख और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन उत्तर भारत में भी अपनी पार्टी की पैठ बनाना चाहते हैं। लेकिन क्या केवल डीएमके ही इस तरह के प्रयास कर रहा है? कांग्रेस के सभी सहयोगी उस पर आई आपदा में अपने लिए अवसर तलाश रहे हैं। आपदा इसलिए क्योंकि कांग्रेस एक-एक कर अपने राज्य गंवाती जा रही है। क्या यह आश्चर्य पैदा नहीं करता कि कांग्रेस जिन राज्यों में हार रही है, उनमें कुछ में तो बीजेपी जीती है, लेकिन कई जगह क्षेत्रीय पार्टियों ने ही उसे किनारे कर दिया है? यह अलग बात है कि कांग्रेस की दुर्बलता के लिए और कोई नहीं, उसका केंद्रीय नेतृत्व ही जिम्मेदार है, जो अभी भी चमत्कार के भरोसे बैठा हुआ है।

राजनीति का नया मोड़
कांग्रेस के सहयोगियों और अन्य बीजेपी विरोधी दलों को भी लगने लगा है कि कांग्रेस धीरे-धीरे इतनी कमजोर होती जा रही है कि नरेंद्र मोदी को टक्कर नहीं दे सकती। सवाल है कि यह स्थिति क्यों पैदा हुई? क्यों ममता बनर्जी जनाधार वाले कांग्रेसी नेताओं को लेकर देश की सबसे पुरानी पार्टी को कमजोर कर रही हैं? क्या सचमुच भारत की राजनीति एक नए मोड़ पर आ खड़ी हुई है? कांग्रेस मुक्त भारत का जो नारा बीजेपी ने दिया था, उसे पूरा करने में कांग्रेस के सहयोगी दल ही जुट गए हैं? भारत की राजनीति में ऐसे अवसर कम ही आए, जब क्षेत्रीय दल पूरे देश की सत्ता पर काबिज होने के लिए इतने लालायित दिखे हों और वह भी उस पार्टी के नेताओं के बल पर, जिसके वे सहयोगी रहे हों, और अभी भी हों। कांग्रेस के ही एक नेता कहते हैं कि क्षेत्रीय दलों के अंदर दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने की ललक इसलिए पैदा हुई है क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व से वे निराश हो चुके हैं। उन्हें लगता है कि मोदी विरोधी राजनीति तब तक कामयाब नहीं हो सकती, जब तक उसकी अगुआई कांग्रेस कर रही है। कांग्रेस मोदी से नहीं लड़ सकती और उसकी इस कमजोरी का खामियाजा उसके सहयोगी भी भुगत रहे हैं।

स्थितियां धीरे-धीरे कांग्रेस के हाथ से निकलती जा रही हैं। यह दावा अर्थहीन होता जा रहा है कि कांग्रेस के नेतृत्व के बिना मोदी को नहीं हराया जा सकता। पांच राज्यों के चुनाव के बाद यह बात और साफ हो गई है कि कांग्रेस के साथ खड़े होने वालों की संख्या न सिर्फ कम रह गई है बल्कि लगातार घटती जा रही है। कांग्रेस के सहयोगी दलों का ही यह विश्वास दरक गया है कि कांग्रेस के झंडे के तले रहकर मोदी को हराया जा सकता है। इसी कारण क्षेत्रीय दल कांग्रेस से दूरी बनाकर 2024 लोकसभा चुनाव की लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।

वास्तव में ममता बनर्जी भले ही एक राज्य तक सीमित हों, लेकिन उन्होंने ऐसे नेताओं से तार जोड़ रखे हैं जो दिल्ली तक पहुंचने का रास्ता बना सकते हैं। एक तरह से इसकी पूरी रूपरेखा तैयार हो चुकी है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में अखिलेश यादव ने ऐसे संकेत दिए, जिनसे साफ हो गया कि आने वाले दिनों में मोदी विरोधी राजनीति किधर जा रही है। इसी के तहत एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ममता बनर्जी को बहुत ज्यादा अहमियत दी। दूसरी तरफ ममता ने भी उन्हें लेकर ऐसे ही भाव दिखाए। उन्होंने अखिलेश के लिए सभाएं कीं। इसी तरह बिहार में तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव से सीधे संपर्क में है। यह अनायास नहीं है कि वहां तेजस्वी यादव ने कांग्रेस से दूरी बना रखी है।

यह अलग बात है कि विपक्ष के नेताओं में ही इस बात की होड़ लगी हुई है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में तीसरे मोर्चे का नेतृत्व कौन करेगा- ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल या एम के स्टालिन। इतना साफ है कि कांग्रेस के लिए मोदी विरोधी मोर्चे के नेतृत्व की बहुत संभावनाएं बची नहीं हैं। ममता गोवा जैसे राज्य में सीधे हस्तक्षेप करती हैं। महाराष्ट्र में वह अपने लिए संभावनाएं तलाश रही हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में साथी खुलकर उनके साथ आ रहे हैं। दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल गुजरात में अपनी पार्टी का आधार बढ़ाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। पंजाब में चुनाव जीतने के बाद उनके हौसले बुलंद हैं। उनकी कोशिश यह जताने की है कि बीजेपी का एकमात्र विकल्प वही हैं। इसके बाबजूद जिन्हें लगता है कि कांग्रेस के बिना मोदी विरोधी मोर्चा संभव नहीं है, उन्हें अपने चश्मे की धूल साफ करनी चाहिए।

गुजरात के ही दिग्गज कांग्रेसी नेता शंकर सिंह वाघेला जब कहते हैं कि गांधी परिवार के किसी सदस्य से वह बात नहीं कर सकते तो फिर किस बात के लिए पार्टी चलाई जा रही है! यकीनन कांग्रेस के सामने अब अंतिम लड़ाई आ गई है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव यह साफ कर देंगे कि 2024 के लोकसभा चुनाव में वह किसी केंद्र में रहेगी भी या नहीं। अपनी प्रासंगिकता साबित करने के लिए उसे तीनों राज्य जीतने होंगे।

गठजोड़ में या बाहर
फिलहाल एक बात साफ है कि अगले लोकसभा चुनाव में कई क्षेत्रीय दल एक गठजोड़ बनाकर मोदी से लड़ेंगे। अब यह कांग्रेस को तय करना होगा कि वह अपनी सीमित संभावनाओं के आधार पर इस गठजोड़ में शामिल होती है या किसी चमत्कार की आस में अकेले अपने चंद साथियों के साथ मैदान में उतरती है। कांग्रेस का यह गीत अब नहीं चलने वाला कि उसके बिना मोदी विरोधी किसी गठजोड़ की कल्पना नहीं की जा सकती।

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