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पुण्यतिथि : पत्रकारिता के शिखर पुरुष राजेन्द्र माथुर

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गोपाल राठी, पीपरिया 

राजेंद्र माथुर हिंदी पत्रकारिता में अमिट हस्ताक्षर के समान हैं। मालवा के साधारण परिवार में जन्में राजेंद्र बाबू ने हिंदी पत्रकारिता जगत में असाधारण प्रतिष्ठा प्राप्त की। उनका जन्म 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश  के धार जिले में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा धार, मंदसौर एवं उज्जैन में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे इंदौर आए जहां उन्होंने अपने पत्रकार जीवन के महत्वपूर्ण समय को जिया। 
राजेंद्र माथुर उन बिरले लोगों में से थे जो उद्देश्य के लिए जीते हैं। पत्रकार जीवन की शुरुआत उन्होंने स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही कर दी थी, जिस समय हिंदी पत्रकारिता मुख्य धारा में अपना स्थान बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी, उसी समय राजेंद्र बाबू भी पत्रकारिता में अपना स्थान बनाने के लिए आए थे। पत्रकारिता जगत में उन्होंने अपना स्थान ही नहीं बनाया बल्कि हिंदी पत्रकारिता को भी मुख्य धारा में लाए। अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकार राजेंद्र माथुर चाहते तो अंग्रेजी पत्रकारिता में अपना स्थान बना सकते थे। लेकिन तब शायद भारत के अंतर्मन को समझने का उचित  मौका न मिलता।
भारतीय भाषा में भारत के सरोकारों को समझने के लिए उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अपने माध्यम के रूप में चुना। पत्रकारिता की दुनिया में उन्होंने ‘नईदुनिया’ दैनिक पत्र के माध्यम से दस्तक दी। नईदुनिया के संपादक राहुल बारपुते से उनकी मुलाकात शरद जोशी ने करवाई थी। बारपुते जी से अपनी पहली मुलाकात में उन्होंने पत्र के लिए कुछ लिखने की इच्छा जताई। राहुल जी ने उनकी लेखन प्रतिभा को जांचने-परखने के लिए उनसे उनके लिखे को देखने की बात कही। उसके बाद अगली मुलाकात में राजेंद्र माथुर अपने लेखों का बंडल लेकर ही बारपुते जी से मिले।
अंतरराष्ट्रीय विषयों पर गहन अध्ययन एवं जानकारी को देखकर राहुल जी बड़े प्रभावित हुए। उसके बाद समस्या थी कि राजेंद्र माथुर के लेखों को पत्र में किस स्थान पर समायोजित किया जाए। इसका समाधान भी राजेंद्र जी ने ही दिया। राहुल बारपुते जी का संपादकीय अग्रलेख प्रकाशित होता था, राजेंद्र जी ने अग्रलेख के बाद अनुलेख के रूप में लेख को प्रकाशित करने का सुझाव दिया। अग्रलेख के पश्चात अनुलेख लिखने का सिलसिला लंबे समय तक चला। सन 1955 में नई दुनिया की दुनिया में जुड़ने के बाद वह 27 वर्षों के लंबे अंतराल के दौरान वे नई दुनिया के महत्वपूर्ण सदस्य बने रहे।
राजेंद्र जी ने लगातार दस वर्षों तक अनुलेख लिखना जारी रखा। सन 1965 में बदलाव करते हुए उन्होंने पिछला सप्ताह नामक लेख लिखना प्रारंभ किया, जिसमें बीते सप्ताह के महत्वपूर्ण घटनाक्रम की जानकारी एवं विश्लेषण प्रकाशित होता था। सन 1969 में किसी मनुष्य ने चंद्रमा पर पहला कदम रखकर अप्रत्याशित कामयाबी पाई थी। मनुष्य के चंद्रमा तक के सफर पर नई दुनिया ने 16 पृष्ठों का परिशिष्ट प्रकाशित किया था। यह कार्य राजेंद्र माथुर के नेतृत्व में ही हुआ था। वे गुजराती कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे, 1969 में वे अध्यापकी छोड़ पूरी तन्मयता के साथ नईदुनिया की दुनिया में रम गए।
‘पिछला सप्ताह’ स्तंभ लिखना उन्होंने आपातकाल तक जारी रखा। आपातकाल के दौरान सरकार ने जब प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास किया। तब राजेंद्र जी ने ‘शीर्षक’ के नाम से सरकारी प्रतिक्रिया की परवाह किए बिना धारदार आलेख लिखे। सन 1980 से उन्होंने कल ‘आज और कल’ शीर्षक से स्तंभ लिखना शुरू किया। 14 जून, 1980 को वे प्रेस आयोग के सदस्य चुने गए। जिसके बाद सन 1981 में उन्होंने नई दुनिया के प्रधान संपादक के रूप में पदभार संभाला। प्रेस आयोग का सदस्य बनने के पश्चात वे टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक गिरिलाल जैन के संपर्क में आए।
गिरिलाल जैन ने राजेंद्र माथुर को दिल्ली आने का सुझाव दिया। उनका मानना था कि राजेंद्र जी जैसे मेधावान पत्रकार को दिल्ली में रहकर पत्रकारिता करनी चाहिए। लंबे अरसे तक सोच-विचार करने के पश्चात राजेंद्र जी ने दिल्ली का रुख किया। सन 1982 में नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन कर वे दिल्ली आए। नवभारत टाइम्स की ओर से अमेरिकी सरकार के आमंत्रण पर उन्हें अमेरिका जाने का अवसर प्राप्त हुआ। अमेरिका में गए हिंदी पत्रकार ने अपनी अंग्रेजी की विद्वता से परिचय कराया। उनकी अंग्रेजी सुनकर अंग्रेज पत्रकार भी हतप्रभ रह गए। ऐसे समय में जब अंग्रेजी प्रतिष्ठा का सवाल हो हिंदी पत्रकारिता में योगदान देना प्रेरणादायी है।
दिल्ली आने के पश्चात राजेंद्र माथुर ने ‘नवभारत टाइम्स’ को दिल्ली, मुंबई से निकालकर प्रादेशिक राजधानियों तक पहुंचाने का कार्य किया। ‘नवभारत टाइम्स’ को उन्होंने हिंदी पट्टी के पाठकों तक पहुंचाते हुए लखनऊ, पटना एवं जयपुर संस्करण प्रकाशित किए। यही समय था जब राजेंद्र माथुर को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। वे एडिटर्स गिल्ड के प्रधान सचिव भी रहे। उनके लेखन को संजोने का प्रयास करते हुए उनके लेखों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें प्रमुख हैं- गांधी जी की जेल यात्रा, राजेंद्र माथुर संचयन- दो खण्डों में, नब्ज पर हाथ, भारत एक अंतहीन यात्रा, सपनों में बनता देश, राम नाम से प्रजातंत्र।
राजेंद्र माथुर की पत्रकारिता निरपेक्ष पत्रकारिता थी। पूर्वाग्रह ग्रसित पत्रकारिता से तो वे कोसों दूर थे। उनके निरपेक्ष लेखन का जिक्र करते हुए वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने अपनी किताब ‘सपनों में बनता देश’ में लिखा है-
‘1985-86 के दौरान भारत की एक महत्वपूर्ण गुप्तचर एजेंसी के वरिष्ठ अधिकारी ने मुलाकात के दौरान सवाल किया- ‘आखिर माथुर जी हैं क्या? लेखन से कभी वे कांग्रेसी लगते हैं, कभी हिंदूवादी संघी, तो कभी समाजवादी। आप तो इंदौर से उन्हें जानते हैं क्या रही उनकी पृष्ठभूमि?‘ मुझे जासूस की इस उलझन पर बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने कहा, ‘माथुर साहब हर विचारधारा में डुबकी लगाकर बहुत सहजता से ऊपर आ जाते हैं। उन्हें बहाकर ले जाने की ताकत किसी दल अथवा विचारधारा में नहीं है। वह किसी एक के साथ कभी नहीं जुड़े। वह सच्चे अर्थों में राष्ट्रभक्त हैं, उनके लिए भारत राष्ट्र ही सर्वोपरि है। राष्ट्र के लिए वे कितने ही बड़े बलिदान एवं त्याग के पक्षधर हैं‘‘ (सपनों में बनता देश, आलोक मेहता)
राजेंद्र माथुर ने कभी किसी विचारधारा का अंध समर्थन नहीं किया । जड़ता की स्थिति में पहुंचाने वाली विचारधाराओं से उन्होंने सदैव दूरी बनाए रखी। पत्रकार के रूप में विचारधारा एवं पार्टीवाद से ऊपर उठकर वे पत्रकारिता के मिशन में लगे रहे। वर्तमान समय में जब पत्रकार विचारधाराओं के खेमे तलाश रहे हैं, ऐसे वक्त में राजेंद्र माथुर की याद आना स्वाभाविक है।

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