पुष्पा गुप्ता (शिक्षिका)
सार्थक जीवन जीना हो तो एक ज़िन्दगी बहुत छोटी पड़ जाती है दोस्त! और मौत का क्या! वो नामुराद तो कई बार बिना दस्तक दिये आ धमकती है। कई बार जीना तो दूर, तुम ज़िन्दगी का मतलब और मक़सद तक तय नहीं कर पाते और शरीर के कल-पुर्जे ढीले पड़ने लगते हैं, भट्ठी की आग मंद पड़ने लगती है, ढीले पड़ते पट्टे चक्कों से बार-बार उतरने लगते हैं।
इसीलिए कहती हूँ, यह ज़िन्दगी महज़ जी लेने, बिता देने या काट देने के लिए नहीं है, छककर जीने के लिए है।
क्या फ़र्क पड़ता है, अगर कुत्ता-दौड़ में कुछ को पीछे छोड़कर आगे निकल जाओ, कुछ को कुचलकर तरक्की के ऊँचे पायदान पर पहुँच जाओ और स्वजनों-परिजनों के लिए घमंड करने और दूसरों को नीचा दिखाने का साधन बन जाओ!
यह भूलना नहीं होगा कि जीने के प्रचुर साधनों के बावजूद और उन्नत तकनोलाजी के बावजूद, समाज की बहुसंख्यक आबादी इंसान की तरह जीने की न्यूनतम शर्तों से वंचित है! और तुम हो कि अपार दुखों के सागर में बने जगमग ऐश्वर्य-द्वीपों का नागरिक बनने के लिए मरे जा रहे हो, प्रतियोगिता की किताबें घोंचे जा रहे हो, घोंचे जा रहे हो!
स्वार्थ ने तुम्हें खोल में सिमटा घोंघा बना दिया है, पोंचू कहीं के! अरे, कलक्टर-तहसीलदार-पुलिस कप्तान बन जाओगे तो तुम्हारे आसपास ढेरों नौकर-मुलाजिम सलाम ठोंकते घूमेंगे, आम लोग तुमसे डरेंगे, अपना हक़ माँगते लोगों पर ऊपर वालों के निर्देश पर लाठी-गोली चलवाओगे और पूँजीपतियों का पिछवाड़ा जीभ से चाटने वाले महागलीज बुर्जुआ नेताओं को सैल्यूट ठोककर उनके जूते अपने रुमाल से चमकाओगे! बस यही न!
खाये-अघाये सूअर की तरह एक दिन अपनी चर्बी, नक़ली सम्मान और धन-संपत्ति के बोझ तले दबकर मर जाओगे।
स्वार्थी परिजनों और दुनियादार “शुभचिंतकों” से “नालायक”, “बर्बाद”, “ब्रेनवाश किया हुआ” और “पगलेट” का नायाब, बेशकीमती सर्टिफिकेट हासिल करो!
“पहले अपने घर में दिया जलाकर फिर बस्ती के बारे में सोचा जाता है” — यह दुनिया की सबसे अधिक मक्कारी, घाघपना, कमीनगी और ख़ुदग़र्ज़ी भरी नसीहत है।
अरे बेवक़ूफ कोल्हू के बैल! सड़ी-गली परम्पराओं के शवसाधक अघोरी! इस व्यवस्था में जो भी स्वीकार्य है, मान्य है, सम्मान्य है, वह धनपतियों का सजा-धजा कुत्ता है! बस! इसलिए मैं कहती हूँ, “बड़ा आदमी” नहीं, सच्चा इंसान बनो, भावप्रवण, सहृदय, विवेकशील, गर्वीला और बहादुर!
सफलता और सार्थक जीवन के रूढ़िबद्ध, निकृष्ट, स्वार्थ और अन्याय से भरे पैमानों पर थूक दो ! अपने पैमाने ख़ुद गढ़ो जो न्याय, मनुष्यता और वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि पर आधारित हों। अछोर ऊँचाइयों तक उड़ने के लिए पंखों को तोल लो, धारा के विरुद्ध तैरने के लिए बाजुओं का कसबल आज़मा लो। यह नहीं कर सकते तो क्षमता विकास के लिए व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क करो और निःशुल्क मेडिटेटिव थेरेपी लो.
न्याय और मनुष्यता के भविष्य के लिए जीत की गारंटी करके योद्धा युद्ध में नहीं उतरते। यह कायर, दुनियादार, “सद्गृहस्थ” लोगों की सोच होती है, जो लड़ते तो कभी नहीं और बिना दूध से जले ही छाछ फूँक-फूँककर पीते हैं, लेकिन क्रान्तियों की पराजय के दौरों में छाती पीट-पीटकर स्यापा करने लगते हैं, दुनियादारी की सलाहें देने लगते हैं, या, संसद के रास्ते मज़दूर राज लाने और एन.जी.ओ.के रास्ते दुनिया को सुधारने की तरकीबें बताने लगते हैं, या, क्रान्ति को ही “असंभव यूटोपिया” घोषित कर देते हैं।
कभी हिम्मत के साथ फासिस्ट गुण्डों से भिड़ जाने का, जनांदोलनों में शामिल होकर पुलिस की लाठियों और आँसूगैस के गोलों का, हवालात का आनन्द लिया है?
तो लेकर देखो न! कभी मज़दूर परिवारों में रहे हो, उनकी बस्तियों में कुछ दिन गुजारे हैं, मज़दूर बैठकियों और अध्ययन-चक्रों में हिस्सा लिया है? तो लेकर देखो न मेरे भाई! जहाँ जीवन है, वहाँ उसे ढूँढो, मरघट में नहीं।
मरुभूमि में सोते की तलाश मत करो! व्यापक जन समुदाय के दुखों-सुखों-सपनों और संघर्षों को अपना बनाओ। अच्छे साहित्य, कला, संगीत और प्रकृति से दोस्ती करो। बैकपैक टाँगकर नदियों-पहाड़ों और समंदर के पास जाओ।
सोने के ठिकाने कुलियों, घोड़े वालों और मज़दूरों के ठीहों पर और धर्मशालाओं में मिल जायेंगे। खाने और किराये-भाड़े के लिए टेंट में पैसे न बचें तो किसी चायखाने में काम कर लो, कुली का काम कर लो, कहीं दिहाड़ी कर लो। यही घुमक्कड़ी का मूल मंत्र है।
उमस और ऊब-अवसाद भरे अँधेरे बंद कमरों से बाहर निकलो। कम्प्यूटर स्क्रीन से मुण्डी बाहर निकालो। रुग्ण कल्पनाओं और फन्तासियों से मन को मुक्त करो!
अरे जब ज़िन्दगी मिल ही गयी है तो एक असली इंसान की तरह इसे क्यों नहीं जी लेते कम्बख़्त! नालायक कहीं के!
[चेतना विकास मिशन]