अग्नि आलोक
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रंगकर्म से ‘इंसानियत’ का चराग़ जलाते हुए …!

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मंजुल भारद्वाज
जीवन को तत्वों से रूबरू कराते हुए, अपने तत्वों पर रंगकर्म करने की सृजन आनंद अनुभूति विरले ही रंगकर्मी कर पाते हैं.आज इस संकट काल में जब दुनिया जान बचाने के लिए घर में क़ैद है,चारों ओर त्राहिमाम है. सत्ताधीश जनता के प्रति वफ़ादार होने की बजाय अपनी सत्ता बचाने के लिए प्रतिबद्ध है. भय,भूख और भ्रम का शिकार है गरीब और दिहाड़ी मज़दूर. पुरुष भले ही भारत में बेरोजगार हो जाएँ पर भारतीय नारी जन्म से अपनी मृत्यु तक कभी बेरोजगार नहीं होती. हमेशा सुबह से रात तक काम करती रहती है,भारतीय समाज को पालती रहती है.यही है भारतीय परम्परा,संस्कार और संस्कृति का मर्म!
जो इस परंपरा को तोड़े वो अग्नि परीक्षा दे. परंपरा और संस्कृति टिकाने का अमोघ अस्त्र है ‘अग्नि परीक्षा’! अग्नि परीक्षा कोई कोई दे पाता है. अग्नि परीक्षा के डर से दासता में जीता है समाज. दासता की संतानें दासता की आदी होती हैं. अग्नि परीक्षा के अमोघ अस्त्र को जो चुनौती देते हैं वो विद्रोही होते हैं. जो विद्रोही होते हैं वही रंगकर्मी होते हैं. दासता को खत्म कर न्याय और समता का मानवीय समाज रचते हैं.
सत्ता कला के चैतन्य स्वरूप में निहित सौन्दर्य को भोग बना देती है. विद्रोह को दबाने का यह अमोघ अस्त्र है सत्ता के पास. भोग मनुष्य को सिर्फ़ प्राणी बनाकर ज़िंदा रखता है. सता ऐसे प्राणियों की नुमाइश अपने दरबार में लगाती है.और समय समय पर पुरस्कार के पट्टे गले में बांधती रहती है. दरबारी चमक दमक में प्राणी शरीर त्याग कला का कलंक बनकर रुखसत होते हैं. यह क्रम सदियों से चल रहा है और जब तक सत्ता है चलता रहेगा.
पर दुनिया केवल सत्ता और दरबार नहीं होती. इंसानियत सत्ता और दरबार के बाहर होती है. फलती फूलती है. दुनिया में इंसानियत के जितने उदाहरण आपको मिलेंगे और सत्ता और उसके दरबार से बाहर मिलेंगे. इस इंसानियत को वो कलाकार ज़िंदा रखते हैं जो अपने विद्रोह की आग़ में जलकर ‘इंसानियत’ का चराग़ जलाते हैं.
विगत 32 वर्षों से विद्रोह की आग़ में जलते हुए अपने ‘इंसानियत का चराग़’ जलाने की कलात्मक प्रतिबद्धता से प्रतिबद्ध हूँ. मेरे लिए मेरा सारा जीवन संकट काल रहा,फांके फांकते हुए मीलों चला.. जब जब सत्ता ने दरबार में सजाना चाहा तब तब और लम्बा वनवास लिया. देश दुनिया भ्रमण करते हुए कंक्रीट के जंगल में एक कुटिया बनाई .संकट काल में किसी धन्नासेठ,सत्ताधीश या जनता,सत्ता और प्रकृति के विध्वंसक और लुटेरे कॉर्पोरेट से मदद नहीं ली .
अपने मिशन में चल रहा हूँ अपने कारवाँ के साथ … उपकार और अधिकार के फ़र्क को स्पष्ट करते हुए… जनता में रंगकर्म से इंसानियत का चराग़ जलाते हुए अपनी सार्थकता को खोजते हुए …

उपकार मानवता,अधिकार देशद्रोह !
भूखे को खाना
बीमार को दवा
नंगे को कपड़ा
बेघर बार को आश्रय
प्यासे को पानी पिला दो
तो मानवता!
भूखे क्यों हो
बीमार क्यों हो
नंगे क्यों हो
बेघर क्यों हो
प्यासे क्यों हो?
ये सवाल उठाना सिखा दें
शोषण के खिलाफ़ आवाज़
अधिकार के लिए संघर्ष करना सिखा दें
तो देशद्रोह?
उपकार मानवता !
अधिकार देशद्रोह !

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