अग्नि आलोक
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*और आग लग गई,अब तो चेतिए…..!

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राकेश दुबे

मैं और मेरे समविचारी मित्र रामनवमी को भोपाल में जैसा जुलूस निकला से,संतुष्ट हैं।१६ मार्च २०२२ के “प्रतिदिन” में वर्णित आशंका को भोपाल के भाईचारे ने हनुमान जयंती पर निकले जुलूस में भोपाल की रवायत की तरह दोहराया है । हमें खेद है हमारी बात पूरे देश तक नहीं पहुँची , मुझे तो जीवन भर खेद रहेगा।

उस दिन “प्रतिदिन” में जो लिख था उसके अंश –
देश : प्रार्थना कीजिये, प्रार्थना का कोई रंग नहीं होता

मैं और मेरे कुछ समविचारी मित्र देश में चल रही सुगबुगाहट को भांप रहे हैं | वे किसी फिल्म के पक्ष या विरोध में नहीं हैं | फिल्म बनती रहती हैं, बिगडती रहती है पर उसे जो रंग दिया जा रहा है, उसकी तासीर ठीक नहीं है |—- ये रंग और इसमें मिली भंग का असर समाज में न हो, इसके लिए हम प्रार्थना कर रहे हैं, आप भी कीजिये | यह प्रार्थना उछलते रंगों को रंगहीन करने का भी माद्दा रखती है, क्योंकि प्रार्थना का कोई रंग नहीं होता |

-राज्य को अपने धर्म का पालन करना चाहिए की सीख देने वालों के वंशज वैसा नहीं कर रहे हैं | नये रंगरेज के उछलते रंग में होली खेलने को आतुर है, ये सब काबू में रहें , इसलिए प्रार्थना कीजिये |
-जब किसी अख़बार के आधे पन्ने पर किसी फिल्म को देखने की कोई अपील की गई है | शायद किसी ९० बरस के किसी सामाजिक सन्गठन द्वारा किसी एक फिल्म को अनुष्ठान की तरह देखने के मंसूबे हैं |
-आप अपने देश की उस प्रणाली को नाकारा साबित कर रहे हैं, जिसे लॉ एंड ऑर्डर के रूप में परिभाषित किया जाता है |जिसे सुचारू तौर पर चलाते रहने के लिए हम आप दिन रात मेहनत कर रहे हैं, टैक्स दे रहे हैं| इस टैक्स से सारा भारत चलता है | ‘डेमोक्रेसी का मजाक मत बनाइए’| यह पूछना बंद कीजिये, तब [—– ] आप कहाँ थे ?
-ऐसे जमावडों से दूर रहें और प्रार्थना करें, ऐसा कुछ न घटे जिस पर आगे किसी को फिल्म बनाना पड़े या इस कालखंड को इतिहास में काले अध्याय की तरह बांचा जाये | प्रार्थना कीजिये, प्रार्थना का कोई रंग नहीं होता |
१६ मार्च की बात भोपाल ने सुनी,उसको धन्यवाद ।
अब सुप्रीम कोर्ट तक दंगों की गुहार शुरू हो गई है। किसी को बुलडोज़र पर आपत्ति है, तो किसी को किसी को किसी और विषय पर । पिछले दिनों किसी और मामले में देश के एक न्यायमूर्ति की उस टिप्पणी पर ध्यान दीजिए जिसमें देश में न्यायपालिका के घटते सम्मान का ज़िक्र है । दुखी न्यायमूर्ति ने यहाँ तक कह दिया है कि “क्या सुप्रीम कोर्ट को बंद कर दें?” यह सवाल देश के चरित्र पर लांछन है ।अब लगे हाथ बात बुलडोज़र की भी हो जाए । न्यायपालिका उसके औचित्य का फ़ैसला करेगी । आम समझ में यह सरकार का मजबूरी में उठाया गया “प्रतिक्रियावादी” कदम है । इसका समाज में एक और जो अर्थ निकाला गया और जा रहा है,वो काम घातक नहीं है । एक बाबा ने बुलडोज़र ख़रीदने और उसके प्रयोग का जो इरादा बताया है, ख़तरनाक है।

आज की बात तो सिर्फ़ इतनी है,जिनकी लोकतंत्र में आस्था है वो पत्थर नहीं चलाया करते और बुलडोज़र के टेंडर नहीं बुलाया करते । ज़रूरत है, देश हित पर विचार की। सबसे पहले वतन, मुल्क, देश कोई भी नाम दें उसके हित के बारे में सोंचे ।

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