कांग्रेस में बड़े सुधारों के लिए उदयपुर में तीन दिवसीय चिंतन शिविर चल रहा है। यहां दिग्गज कांग्रेसी नेताओं का मजमा लगा है। पार्टी अपनी ‘नाकामियों’ पर चिंतन कर रही है। यह तो तय नहीं है कि इस चिंतन से क्या कुछ निकलेगा। लेकिन, यह तय है कि गांधी परिवार पार्टी की कमान येन केन प्रकारेण यानी किसी न किसी तरह से अपने हाथ में रखना चाहता है। सोनिया गांधी नहीं तो राहुल, राहुल नहीं तो प्रियंका… एक्सपर्ट्स कहते हैं अंत में होना यही है। सिर्फ पार्टी का अध्यक्ष चुनने की कवायद में ही सालों निकल गए। कांग्रेस के इस ढुलमुल रवैये ने उसके हाथ से पंजाब निकाल दिया। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में असंतोष है। 2014 के बाद से वह चुनाव पर चुनाव हार रही है। लेकिन, पार्टी और आलाकमान पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। दूसरी तरफ बीजेपी है जिसने चुनाव से पहले त्रिपुरा के सीएम की छुट्टी कर दी। बताया जाता है कि बिप्लब कुमार देब का रिपोर्टकार्ड ठीक नहीं था। उत्तराखंड में चुनाव से पहले भी बीजेपी ने सीएम कैंडिडेट बदला था। पहाड़ी राज्य में उसे जीत भी मिली। कर्नाटक और गुजरात में भी उसने अपने सीएम बदल डाले। लेकिन, न कहीं हो-हल्ला न शोर-शराबा। दोनों में यह बड़ा फर्क है।
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जितनी एग्रेसिव है, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस उतना ही ढीला। पिछले कुछ सालों में दोनों की टक्कर सिर्फ नाम की रही है। जमीन पर यह कहीं नहीं थी। कई मौकों पर तो कांग्रेस ने बैठे बैठाए अपने लिए गड्ढा खोद लिया। उसकी नाकामियों की सबसे बड़ी वजह पार्टी आलाकमान को माना जा रहा है। फटाफट फैसले लेने के बजाय वह हीलाहवाली में लगा रहता है। इस रवैये के कारण अब पार्टी विपक्ष का नेतृत्व करने की भूमिका भी गंवाने की कगार पर पहुंच गई है।
चटपट फैसले लेती बीजेपी…
बीजेपी का रवैया कांग्रेस से बिल्कुल जुदा है। वह चटपट फैसले लेती है। त्रिपुरा भी अब उसी लिस्ट में जुड़ गया है। दो दिनों के अंदर पार्टी ने सीएम बिप्लब कुमार देब को किनारे लगा दिया। गुरुवार की ही बात है। देब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से मिलने दिल्ली पहुंचे थे। शनिवार को बिप्लब कुमार देब ने अपना इस्तीफा राज्यपाल एसएन आर्या को सौंप दिया। बिना किसी हो-हल्ला के बिना। बिप्लब कुमार देब कोई उम्रदराज नहीं हैं। न ही नासमझ। लेकिन, बीजेपी हाईकमान को नहीं लगता कि उनके नेतृत्व में अगले साल त्रिपुरा विधानसभा चुनाव जीते जा सकते हैं। कह सकते हैं कि उनकी रिपोर्ट अच्छी नहीं थी। बताया जाता है कि त्रिपुरा की बीजेपी इकाई में आपसी खींचतान है। लेकिन, रायता फैलने से पहले ही पार्टी ने उसे समेट दिया। उनकी जगह त्रिपुरा बीजेपी अध्यक्ष माणिक साहा (Manik Saha) सीएम बनेंगे। महत्वपूर्ण यह है कि उनके पास तैयारी के लिए करीब एक साल का वक्त होगा।
उत्तराखंड में चुनाव से पहले भी बीजेपी ने बदले थे सीएम
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव से पहले भी बीजेपी ने दनादन सीएम बदले थे। 2017 के विधानसभा चुनाव में पूरे बहुमत के साथ बीजेपी सत्ता में लौटी थी। उसने पहाड़ी राज्य की कमान त्रिवेंद्र सिंह रावत के हाथों में दी थी। हालांकि, चार साल के कार्यकाल के बाद पार्टी ने त्रिवेंद्र को हटा तीरथ सिंह रावत को कुर्सी पर बैठाया। 10 मार्च 2021 को त्रिवेंद्र ने इस्तीफा दे दिया था। तीरथ का कार्यकाल लंबा नहीं रहा। चार जुलाई 2021 को बीजेपी हाईकमान ने पुष्कर सिंह धामी को प्रदेश की कमान सौंपी दी थी। 2022 के विधानसभा चुनाव में धामी ही पार्टी का सीएम चेहरा थे। चुनाव से पहले दो सीएम बदलने का दांव बीजेपी के लिए सही साबित हुआ। बीजेपी ने राज्य में दोबारा बिना किसी अड़चन के सरकार बनाई।
कर्नाटक में भी किया फेरबदल
कर्नाटक में भी चुनाव से 21 महीने पहले बीजेपी ने सीएम बदल डाला। इस दक्षिणी राज्य में अगले साल मई में चुनाव होंगे। हालांकि, पिछले साल पार्टी ने येदियुरप्पा को हटा राज्य की कमान बसवराज बोम्मई को थमा दी। येदियुरप्पा कोई छुटभइया नेता नहीं थे। दक्षिण में वह बीजेपी का प्रमुख चेहरा माने जाते थे। 2018 का विधानसभा चुनाव पार्टी ने येदियुरप्पा के नेतृत्व में ही लड़ा था। इसमें बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। यह और बात है कि बहुमत से वह दूर थी। तब कांग्रेस ने जनता दल सेक्युलर के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। हालांकि, यह टिकी नहीं। दोनों दलों के कई नेता बीजेपी में शामिल हो गए थे। इसके बाद 2019 में येदियुरप्पा सीएम बने थे।
गुजरात और असम में भी बदले सीएम
पिछले साल सितंबर में बीजेपी ने गुजरात में सीएम बदल दिया। विजय रूपाणी की जगह भूपेंद्र पटेल को सीएम बनाया गया। गुजरात में इस साल के अंत में भूपेंद्र पटेल के नेतृत्व में ही पार्टी चुनाव लड़ेगी। बीजेपी ने काफी गुणा-गणित के बाद विजय रूपाणी को हटाया था। पार्टी को लगता था कि उनके नेतृत्व में चुनाव जीतना मुश्किल होगा। इसके पहले राज्य में 2017 के विधानसभा चुनाव से 15 महीने पहले विजय रूपाणी को आनंदीबेन पटेल की जगह कुर्सी दी गई थी। विजय रूपाणी की अगुआई में चुनाव लड़कर बीजेपी ने राज्य में दोबारा जीत हासिल की थी।
ट्रेंड को समझिए
बीजेपी ने चुनाव से पहले मुख्यमंत्री तो बदले, लेकिन नए सीएम के पास परफॉर्म करने की गुंजाइश छोड़कर रखी। उन्हें स्थिति को बदलने और छवि सुधारने के लिए समय दिया गया। इससे बीजेपी को दो तरह से फायदा हुआ। पहला, उसने लोगों को मैसेज दिया कि वह नॉन-परफॉर्मिंग लीडर्स को बर्दाश्त नहीं करेगी। दूसरा, इसके जरिये भगवा पार्टी ने कुछ हद तक एंटी-इनकम्बेंसी को भी थामा। यह ट्रिक उसके लिए सफल फॉर्मूला साबित हुई।
मंथन और चिंतन में कांग्रेस निकाल रही टाइम…
अब बात कर लेते हैं कि कांग्रेस की। उसने पिछले कुछ सालों में जितने भी दांव चले हैं, उस पर मुंह की खानी पड़ी है। इसकी एक बड़ी वजह केंद्रीय नेतृत्व की पकड़ का ढीला होना है। आज किसी से छुपा नहीं है कि गांधी परिवार के नेतृत्व में पार्टी जीत हासिल नहीं कर सकती है। पार्टी राहुल को भी देख चुकी है और उसने ब्रह्मास्त्र मानी जाने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा को भी देख लिया है। अब पार्टी में बड़े बदलाव के लिए चिंतन शिविर किया जा रहा है। इस शिविर से क्या ठोस निकलेगा यह देखना होगा। हालांकि, यह साफ है कि हाईकमान कमजोर है। उसे अंदर से सपोर्ट की जरूरत पड़ रही है।
पंजाब में गलती की उठाई भारी कीमत
कांग्रेस हाईकमान के एक के बाद एक गलत कदमों से पार्टी को काफी नुकसान हो चुका है। उसने पंजाब भी गंवा दिया है। विधानसभा चुनाव से थोड़ा पहले वहां कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच तलवारें खिंच गई थीं। इस मामले को पार्टी आलाकमान ने बहुत बुरी तरह हैंडल किया। उसने अपने जमे-जमाए नेता पर विश्वास न कर सिद्धू को राज्य इकाई की कमान सौंप दी। इसने दोनों के बीच तल्खी को और बढ़ा दिया। फिर हाईकमान ने सिद्धू की सीएम बनने की हसरतों पर पानी फेर चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बना दिया। कुल मिलाकर पार्टी का असंतोष बना रहा।
अन्य राज्यों में भी रस्साकशी
राजस्थान में भी सालों से सीएम अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच रस्साकशी है। हालांकि, पार्टी आलाकमान ने इसे गंभीरता से हल करने की कोशिश नहीं की। वह सीएम गहलोत के खिलाफ जाने से बचा। मध्यप्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच भी इसी तरह की टशन थी। इसका फायदा बीजेपी ने उठाया था। कमलनाथ सरकार को रातोंरात गिराकर शिवराज सिंह चौहान सीएम की कुर्सी पर बैठे थे। छत्तीसगढ़ में भी यही हाल है। राज्य में सीएम भूपेश बघेल और टीसी सिंहदेव के बीच तीखा गतिरोध है। हालांकि, पार्टी आलाकमान इसे खत्म करने में नाकामयाब रहा है।
देखने वाली बात यह है कि चिंतन शिविर में गुलाम नबी आजाद, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, शशि थरूर, आनंद शर्मा और ‘जी 23’ के कई नेता शामिल हुए। लेकिन, इस समूह के एक अन्य प्रमुख सदस्य कपिल सिब्बल इस आयोजन में शामिल नहीं हुए। यह दिखाता है कि पार्टी के अंदर काफी मनमुटाव है। एक धड़ा ऐसा है जो कतई नहीं चाहता कि गांधी परिवार पार्टी का नेतृत्व करे। वहीं, दूसरा उसका वफादार बना रहना चाहता है।