शशिकांत गुप्ते
फ़िल्म अभिनेता व निर्देशक मनोज कुमारजी की मशहूर फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान‘
(1974) में एक हिट गाना था – बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गयी.
मनोज कुमारजी के कहने पर गीतकार वर्मा मलिक ने महंगाई पर एक गाना लिखा।
इस को पढ़ सुनकर सभी कलाकरों,और संगीतकार को हँसी आ गई। लेकिन यह गीत उम्मीद से ज्यादा हिट हुआ।
वर्तमान हालात के लिए यह गीत प्रासंगिक है।
बाक़ी जो बचा था मार गयी और फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले ही यह गाना सुपर-हिट हो गया।
लेखक के जेहन में एक प्रश्न उपस्थित हुआ? क्या अड़तालीस वर्ष पूर्व गीतकार वर्मा मलिकजी महंगाई व्यथित थे? इस प्रश्न का जवाब मेरे व्यंग्यकार मित्र सीतारामजी ने यूँ दिया, कवि, गीतकार,या शायर इनलोगों का
observation मतलब अवलोकन होता है। ये लोग अपने अवलोकन को शब्दों में प्रकट करतें हैं।
वैसे भी यथार्थ को प्रकट करना साहित्यकार का ना सिर्फ कर्तव्य है,बल्कि दायित्व भी है।
अड़तालीस वर्ष पूर्व गीतकार स्व. वर्मा मलिकजी ने उक्त गीत लिखकर अपने दायित्व को निभाया है।
मैने कहा अडतालीस वर्ष पूर्व यह यह लिखा गया कि, बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई
आज क्या लिखना चाहिए?
सीतारामजी ने गहरी सांस लेकर कहा, यह खोज का विषय है, इनदिनों बचा क्या है?
इनदिनों तो सिर्फ महंगाई नहीं आमजन की तमाम समस्याओं को सहना है?
कारण यथार्थ में झाँकने के लिए साहस चाहिए? इनदिनों यथार्थ में कुछ होरहा हो या ना होरहा हो लेकिन विज्ञापनों में तो प्रगति की रफ़्तार इतनी तेज है कि,सम्पूर्ण देश में विकास ही विकास दिख रहें हैं?
काश्मीर में शांति बहाल हो गई है? बेरोजगारों की समस्या पूर्ण रूप से हल हो गई है?
करोडों लोगों को मुफ्त राशन वितरित हो रहा है, यह खबर तो हमें गौरवाविन्त करती है।
सत्तर वर्षो तक जिस देश में कुछ भी नहीं हुआ, अब हो रहा है?
हाथी के आकार की बढ़ी हुई महंगाई, अब चींटी के आकार इतनी सस्ती हो रही है।
अडतालीस वर्ष पूर्व मंहगाई मार गई लिखा गया।
उक्त गीत की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं।
दुहाई है दुहाई महंगाई महंगाई…
तू कहाँ से आई, तुझे क्यों मौत न आई
हाय हाय महंगाई
जीवन के बस तीन निशान
रोटी कपड़ा और मकान
ढूंढ ढूंढ के हर इंसान
खो बैठा है अपनी जान
जो सच सच बोला तो सच्चाई मार गई
इतना कहकर सीतारामजी ने कहा बाकी कुछ बचा ही नहीं है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर