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आंबेडकर जन्मस्थली स्मारक के भगवाकरण की राजनीति

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महू की आंबेडकर जन्मस्थली पर RSS का बड़ा प्रयोग जारी है। यहां कोशिश है बाबा साहेब के विचारों को उस रंग में घोलने की जो उन्हें कभी पसंद ही न था।**_पत्रकार अमन गुप्ता ने स्मारक की शुरुआत की कहानियों और इसके लिए लोगों के यादगार योगदान से लेकर अब यहां हो रहे विवादों तक सभी कुछ तसल्ली से लिखा है। आने वाले दिनों में अगर बाबा साहेब आंबेडकर के विशाल कैनवास पर कुछ नए गहरे चटख रंग जुड़ते हैं तो यह रिपोर्ट ऐतिहासिक दस्तावेज साबित होगी। इसे संभाल के रखिए और पढ़कर सोचिए कि आपके आसपास किस तरह इतिहास को सुविधानुसार बदलने की कोशिशें हो रहीं हैं।

21 अप्रैल 2022 को इंदौर के महू में स्थित डॉ. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय में संगीतमय “आंबेडकर कथा” का आयोजन किया गया. इस कथा का आयोजन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा विश्व हिंदू परिषद ने मध्य प्रदेश प्रशासन, संस्कृति विभाग और स्वराज संस्थान संचालनालय के साथ मिल कर किया था. आयोजन विश्वविद्यालय के बुद्ध हॉल में हुआ जिसमें विश्व हिंदू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष आलोक कुमार कथावाचक की मुख्य भूमिका थी और इसमें विश्वविद्यालय के कई प्राध्यापक एवं छात्र मौजूद थे. विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि इस कार्यक्रम के आयोजन में उसकी कोई भूमिका नहीं है. कार्यक्रम वाले दिन विश्वविद्यालय के कुलपति और रजिस्ट्रार छुट्टी पर थे.

संस्कृति मंत्रालय द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के आयोजन की जिम्मेदारी विश्व हिंदू परिषद के साथ भारतीय जनता पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चा को दी गई थी. अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष शैलेष गिरजे कहते हैं, “कथावाचक ने अपने संबोधन में डॉ. आंबेडकर के संघर्षों के बारे में बताया. साथ ही यह जानकारी दी कि बाबा साहब को आगे बढ़ाने में किस तरह बड़ौदा महाराज, छत्रपति साहूजी महाराज जैसे सवर्णों ने सहयोग किया और उन्हें बाहर पढ़ने भेजा, बैरिस्टर बनाया और संविधान सभा का अध्यक्ष चुना. आंबेडकर कथा का उद्देश्य यह बताना था कि बाबा साहब के जीवन में सवर्ण जातियों का कितना योगदान रहा है. महू की बीजेपी विधायक ऊषा ठाकुर कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल हुईं. उनके साथ बीजेपी के कई कार्यकर्ता भी मौजूद थे.”

आरएसएस और बीजेपी के पास स्वीकार्य राष्ट्रीय नेताओं की कमी है, यह बात हर कोई जानता है, संघ भी इसको जानता है. 100 साल की उम्र पूरी कर रहे संघ के पास देशभर में स्वीकार्य नेताओं की कमी होना उसकी सबसे बड़ी परेशानी है.

अनुसूचित जाति मोर्चा के उपाध्यक्ष गिरजे कहते हैं, “इस कथा का आयोजन समाज को सच्चाई बताने के लिए किया गया है और इस तरह के आयोजन आगे भी होते रहेंगे. यह सही है कि कथावाचन के तरीके से आंबेडकर का धार्मिकीकरण हो रहा है. लेकिन यह गलत नहीं है, जिस तरह से हिंदू समाज को बांटने का प्रयास हो रहा है, उसे रोकना होगा. ये सारे प्रयास लोगों को वापस हिंदू संस्कृति से जोड़ने के लिए किए जा रहे हैं.”

आंबेडकर के भगवाकरण की कोशिशों के चलते ऐसी ही एक घटना बीते 13 मार्च, बाबा साहब के जन्मदिवस (14 अप्रैल) से ठीक एक महीने पहले भी हुई जो अपने आप में पहली और अनोखी थी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शाखा विश्व हिंदू परिषद ने स्वराज का 75वां अमृत महोत्सव मनाते हुए इंदौर से लेकर महू (डॉक्टर आंबेडकर नगर) के बीच करीब पच्चीस किलोमीटर की मोटर साइकिल यात्रा निकाली. इंदौर के चिमनबाग मैदान से बाबा साहब की जन्मस्थली महू तक की इस यात्रा को संविधान सम्मान यात्रा का नाम दिया गया. पूरी यात्रा के दौरान खुली जीप पर संविधान की दो प्रतियां (एक हिंदी में और एक अंग्रेजी में) रखी थीं जिसे चारों ओर से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की पहचान वाले भगवा झंडों से सजाया गया था. इस जीप में कुछ लोग बैठे हुए थे, जो संविधान की प्रतियों पर फूल-माला चढ़ा रहे थे. जीप के पीछे हजारों मोटरसाइकिल सवारों की भीड़ थी जो संघ द्वारा बजाए जाने वाले देशभक्ति के गानों के साथ आगे बढ़ रही थी.

संविधान के सम्मान में निकली इस यात्रा की खास बात थी कि इसमें भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा के लिए कोई जगह नहीं थी. पच्चीस किलोमीटर की यात्रा में केवल एक जगह, बीच में कहीं, तिरंगा दिखाई दिया, जबकि इसके उलट गुस्से में घूरते हनुमान और राम की तस्वीरों वाले भगवा झंडों की भरमार थी. संविधान की प्रतियों वाली खुली जीप को हटा दिया जाए, तो पूरी यात्रा आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद की दूसरी रैलियों जैसी ही थी.

विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित की गई इस यात्रा के पोस्टर इंदौर और महू के बीच कई जगहों पर अभी भी लगे हुए हैं. इनमें बाबा साहब की फोटो, विश्व हिंदू परिषद का लोगो और रैली के आयोजक अनिल वर्मा का नाम छपा हुआ है. विश्व हिंदू परिषद द्वारा इस यात्रा के बारे में लोगों को बताने के लिए कई प्रकार के होर्डिंग-बैनर बनाए गए थे. ऐसा ही एक पोस्टर है, जिसमें एक तरफ बाबा साहब की फोटो लगाई गई है. दूसरी तरफ एक रेखा चित्र उकेरा गया है, जिसके नीचे मोटे-मोटे अक्षरों में संविधान के भाग-13 के प्रारंभ में राजा भागीरथ द्वारा गंगा को धरती पर लाने के प्रसंग का उदाहरण दिया गया है. ऐसे होर्डिंग लगाने का केवल एक ही उद्देश्य था कि डॉ. भीमराव आंबेडकर को हिंदू धर्म का अनुयाई घोषित किया जा सके.

संघ और बीजेपी बाबा साहब को अपने रंग में ढालने की कितनी कोशिशें कर रहे हैं, इसका अंदाजा इंदौर (महू) में पिछले डेढ़ महीने में घटी इन दो घटनाओं से लगाया जा सकता है.

संघ द्वारा बाबा साहब को अपना बनाने की कोशिशों की शुरुआत 1970 के दशक में पहली बार जन्मस्थली पर स्मारक बनाने के अभियान से हुई. आंबेडकर स्मारक आंदोलन के शुरुआती दौर से जुड़े, लेकिन बाद में अलग हो गए एक व्यक्ति नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, “1991 में जिस स्मारक की नींव रखी गई, वह आरएसएस की पुरानी योजना का ही हिस्सा था. इसमें किसी भी तरह बाबा साहब को अपने रंग में रंगने का प्रयास था.”

आरएसएस और बीजेपी के पास स्वीकार्य राष्ट्रीय नेताओं की कमी है, यह बात हर कोई जानता है, संघ भी इसको जानता है. 100 साल की उम्र पूरी कर रहे संघ के पास देशभर में स्वीकार्य नेताओं की कमी होना उसकी सबसे बड़ी परेशानी है. कोई भी संगठन रातों-रात उसकी विचारधारा का समर्थन करने वाले नायक पैदा नहीं कर सकता. संघ जैसे संगठन के लिए ऐसा करना और ज्यादा मुश्किल होता है क्योंकि समाज ने लंबे समय तक उनकी विचारधारा से दूरी बना कर रखी है.

इस कमी को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दूसरी विचारधारा के नेताओं को अपना बनाने की कोशिश की, उसकी इन कोशिशों में वे नेता उसका सहारा बने जो कांग्रेस के विरोधी माने जाते हैं. इतनी कोशिशों के बाद भी उनके पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है जिसको गांधी और नेहरू के बराबर खड़ा किया जा सके. उस दौर की तमाम विरोधी धाराओं के लोग भी कांग्रेस और गांधी से जुड़े हुए थे, सिवाए संघ से जुड़े हिंदूवादी विचारधारा के पोषक नेताओं को छोड़ कर. उन नेताओं में डॉ. आंबेडकर सबसे बड़ा और स्वीकार्य चेहरा हैं जिन्होंने कांग्रेस और गांधी की कई मुद्दों पर आलोचना की.

संघ अगर आंबेडकर पर अपना रंग चढ़ा देता है, जिसकी कोशिश वह दशकों से कर रहा है, तो उसकी स्वीकार्यता पहले से कई गुना बढ़ जाएगी. बाबा साहब को अपने रंग में ढालने के लिए संघ ने दो काम किए : पहला उनकी जन्मस्थली पर स्मारक की मांग को हवा दी और दूसरा बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म का भाग साबित किया. अब तक संघ इन दोनों मामलों में सफल रहा है. गांधी और गांधी-नेहरू परिवार का विरोध करने वाले संघ के लिए बाबा साहब से बड़ा चेहरा शायद ही कोई हो और इसके लिए अगर थोड़ी ज्यादा मेहनत करनी पड़े, तो भी उनके लिए कोई बुरी बात नहीं है.

लेकिन बाबा साहब को साथ लाना थोड़ा-सा मुश्किल और जोखिम भरा था. इसके बाद भी संघ ने कोशिश की, जिसका नतीजा है कि आज संघ ने बाबा साहब की जन्मस्थली पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया है.

संघ द्वारा बाबा साहब को अपना बनाने की कोशिशों की शुरुआत 1970 के दशक में पहली बार जन्मस्थली पर स्मारक बनाने के अभियान से हुई. आंबेडकर स्मारक आंदोलन के शुरुआती दौर से जुड़े, लेकिन बाद में अलग हो गए एक व्यक्ति नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, “1991 में जिस स्मारक की नींव रखी गई, वह आरएसएस की पुरानी योजना का ही हिस्सा था. इसमें किसी भी तरह बाबा साहब को अपने रंग में रंगने का प्रयास था.”

वह कहते हैं, “बाबा साहब की जन्मस्थली पर स्मारक बनाने का प्रस्ताव शिलान्यास के दो दशक पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मध्य प्रदेश की एक बैठक में रखा गया था. बाबा साहब के प्रति श्रद्धा और स्मारक बनाने की चाह में हम समझ ही नहीं पाए कि इस स्मारक को बनाने के पीछे कौन लोग हैं और इसके पीछे उनका उद्देश्य क्या है. जब तक समझ आता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. ऐसे में हमारे पास इस आंदोलन और स्मारक निर्माण की मांग को छोड़ने के सिवाए और कोई रास्ता नहीं था. हमारे पास संघ और बीजेपी से लड़ने लायक समझ, संसाधन और लोग नहीं थे और अब भी नहीं हैं. होते तो विश्व हिंदू परिषद ने महू में जो किया शायद वह संभव नहीं होता.”

आरएसएस और बीजेपी बाबा साहब को अप्रोप्रिएट करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए वह कांग्रेस सहित सभी उदारवादी दलों को बाबा साहब का सम्मान न करने का दोषी ठहराते रहते हैं. इतना सब कुछ होने के बाद भी महू में ऐसा पहली बार हो रहा है, जब आरएसएस से जुड़े किसी संगठन द्वारा इस तरह का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया हो, जिसमें ‘जय संविधान और जय श्रीराम’ के विरोधाभासी नारे एक साथ लगे हों.

बाबा साहब भीमराव आंबेडकर स्मारक समिति के सदस्य (वर्तमान में निष्कासित) और पूर्व में उसके रोजमर्रा के कार्यों से जुड़े रहने वाले मोहन राव वाकुडे कहते हैं, “यह स्मारक पवित्र स्थल है, यहां बाबा साहब को मानने वाले लोग आते हैं. भले ही वे किसी दूसरी विचारधारा के हों, मगर उन सभी की आस्था संविधान में होती है. इसमें सामाजिक संगठनों से लेकर राजनीतिक दलों के लोग भी होते हैं, जो बाबा साहब से प्रेरणा लेकर यहां आते हैं. उन्हें विश्वास होता है कि वे आज जो भी हैं बाबा साहब की वजह से हैं.”

स्मारक के शिलान्यास के बाद 1994 तक इस पर कोई काम नहीं हुआ. 1994 में इस पर जब काम शुरू हुआ, उसकी गति इतनी धीमी थी कि 2002 तक केवल इसकी संरचना ही बन पाई. स्मारक का काम तेजी से हो, इसके लिए समिति के सदस्यों ने धरने-प्रदर्शन तक किए.

डॉ. आंबेडकर की जन्मभूमि पर स्मारक बनाने के प्रयास 1970 के दशक में शुरू हुए. इसके लिए सबसे पहला प्रयास 1970 में महाराष्ट्र के भंडारा जिले के भंते धर्मशील ने किया, जब उन्होंने बाबा साहब के जन्मस्थान को खोजने का बीड़ा उठाया. इसके लिए उन्हें सबसे पहले डीजी खेवले का साथ मिला, महू में उनका साथ बिग्रेडियर जीएस काले ने दिया, जिन्होंने अपनी सेना की नौकरी में रहते हुए सेना के रिकॉर्ड देख कर डॉ. आंबेडकर के मूल स्थान का पता करने में मदद की. जन्मस्थान खोजने पर इन लोगों को पता चला कि जिस क्वार्टर में बाबा साहब का जन्म हुआ था वह जगह सेना की ए-वन लैंड है. इसे किसी और दूसरे कामों के लिए प्रयोग में नहीं लाया जा सकता. इसके समाधान के लिए बिग्रेडियर काले ने सुझाव दिया कि एक संस्था का गठन किया जाए और सेना से आग्रह करके जमीन लीज पर लेने की कोशिश की जाए. बिग्रेडियर काले के सुझाव पर भंते धर्मशील ने 1972 में एक संस्था डॉ. बाबा साहब आबेडकर मेमोरियल सोसायटी का गठन किया. इस संस्था के बैनर पर भंते धर्मशील ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, कांग्रेस के बड़े नेता बाबू जगजीवन राम, जॉर्ज फर्नांडिस सहित कई नेताओं से जमीन दिलाने के लिए पैरवी की. 1983 में पहली बार इंदिरा गांधी ने रक्षा मंत्रालय की तरफ से भंते धर्मशील को आश्वासन दिया कि वह जमीन दिलाएंगी. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मामला जहां का तहां रह गया.

वीपी सिंह की सरकार ने 1989 में बाबा साहब की जन्मस्थली पर स्मारक बनाने के लिए, 22500 स्क्वायर फुट जमीन लीज पर दी. इस लीज के साथ कुछ शर्तें भी थीं. जिनमें से प्रमुख शर्त थी कि इस जमीन पर केवल मेमोरियल, उसके साथ एक रूम और एक टॉयलेट-बाथरूम भर बनाया जाएगा. इसके साथ परिसर में किसी भी प्रकार का सभा-सम्मेलन तथा कॉमर्शियल गतिविधि नहीं होगी.

स्मारक बनाने के लिए केंद्र सरकार से जो जमीन मिली थी, उस पर बाबा साहब जन्मस्थली स्मारक सोसायटी ने मध्य प्रदेश की तत्कालीन सुंदरलाल पटवा सरकार से एक समझौता किया. इस समझौते के तहत राज्य सरकार स्मारक का निर्माण करेगी. भंते धर्मशील की अध्यक्षता वाली समिति इसके केयर टेकर के तौर पर कार्य करेगी. निर्माण पूरा होने पर स्मारक के रख-रखाव के लिए एक ट्रस्ट का गठन किया जाएगा, जो यहां की देखभाल करेगा.

14 अप्रैल 1991 को बाबा साहब के 100वें जन्मदिन पर मध्य प्रदेश की पहली बीजेपी सरकार के मुखिया सुंदरलाल पटवा ने स्मारक निर्माण का शिलान्यास किया. स्मारक के शिलान्यास कार्यक्रम में अटल बिहारी बाजपेयी, दत्तो पंत थेंगडे सहित आरएसएस, बीजेपी के तमाम बड़े नेता शामिल हुए. इस तरह पहली बार आरएसएस ने बीजेपी की सरकार का लाभ लेकर डॉ. आंबेडकर के करीब आने की कोशिश की.

इसके बाद थोड़ा-बहुत काम हुआ, लेकिन इतना नहीं कि स्मारक कोई आकार ले पाता. उसके बाद आई कांग्रेस सरकार ने इसके लिए बहुत उत्साह नहीं दिखाया और स्मारक निर्माण मंथर गति से चलता रहा. पहले इसके लिए लाखों में बजट आवंटित होता था. भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इस बजट को करोड़ रुपए तक पहुंचाया, तब जाकर 2007 में यह निर्माण पूरा हो पाया. मोहन राव वाकुड़े कहते हैं कि स्मारक निर्माण में सबसे ज्यादा सहयोग बीजेपी की सरकार द्वारा दिया गया है.

स्मारक के शिलान्यास के बाद 1994 तक इस पर कोई काम नहीं हुआ. 1994 में इस पर जब काम शुरू हुआ, उसकी गति इतनी धीमी थी कि 2002 तक केवल इसकी संरचना ही बन पाई. स्मारक का काम तेजी से हो, इसके लिए समिति के सदस्यों ने धरने-प्रदर्शन तक किए.

2007 में जब स्मारक बन कर तैयार हुआ, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसको समरसता वर्ष के रूप में मनाया. इसके उत्सव के तौर पर 14 अप्रैल को बाबा साहब के जन्मदिवस पर महू में कार्यक्रम आयोजित किए गए. उसी कार्यक्रम में शामिल होकर पूर्व गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने स्मारक का उद्घाटन किया. उसमें उस समय के संघ के सरसंघचालक केएस सुदर्शन, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत मध्य प्रदेश के कई मंत्री शामिल हुए.

संघ के स्वयंसेवक और दलित स्कॉलर भगवानदास गोंडाने फोन पर हुई बातचीत में आंबेडकर के भगवाकरण के सवाल पर कहते हैं, ‘संघ ऐसा कुछ नहीं कर रहा है, बाबा साहब सबके हैं, संघ बहुत पहले से बाबा साहब को मानता आ रहा है. महू में संघ बाबा साहब का स्मारक बनने के दौर से जुड़ा हुआ है. इसकी शुरुआत हुई 1977 में, जब मध्य प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी. उस समय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री कैलाश जोशी ने बाबा साहब की जन्मस्थली पर स्मारक निर्माण में व्यक्तिगत तौर पर रुचि ली. तब स्मारक निर्माण के प्रयास में तेजी आई. संघ इस आंदोलन को पीछे रहकर समर्थन करता रहा. कभी इसका क्रेडिट लेने के लिए सामने नहीं आया. संघ का मानना था कि जो वास्तविक लोग इससे जुड़े हैं, क्रेडिट भी उन्हें ही मिलना चाहिए.”

संविधान सम्मान की यात्रा में जय श्रीराम के नारे लगाए जाने और भगवा झंडे फहराए जाने को लेकर यात्रा के आयोजक अनिल वर्मा का कहना था, “यह तो हमारे संगठन की पहचान है. बाबा साहब भी धर्म के खिलाफ नहीं थे. संविधान की मूल प्रति में ही धार्मिक विवरण दिए गए हैं. जब ये प्रसंग चित्रित किए जा रहे थे, तब भी बाबा साहब को कोई आपत्ति नहीं थी.

गोंडाने कहते हैं, “आंबेडकर के नाम पर राजनीति कर रहे लोगों से पूछिए कि वे बाबा साहब को कितना मानते हैं? बाबा साहब को मानने वाले लोग जब सोकर भी नहीं उठते, तब तक संघ के स्वयंसेवक उनको स्मरण कर चुके होते हैं. संघ देश की सभी महान विभूतियों को प्रतिदिन याद करता है. इसके लिए संघ की तरफ से एकात्मता श्रोत लिखवाए गए हैं, जिनमें डॉ. आंबेडकर और उनके गुरु ज्योतिबाफुले को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. इसमें कुछ-कुछ परिवर्तन होते रहते हैं, जिसकी अलग प्रक्रिया है.”

बाबा साहब के जन्मस्थली स्मारक और महू में इन घटनाओं ने बाबा साहब को मानने वालों के बीच संशय तो पैदा किया है, लेकिन कोई भी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा है कि आखिर हो क्या रहा है और जो हो रहा है उसका विरोध कैसे करें.

महू में रहने वाले और नई दुनिया अखबार के पूर्व पत्रकार और देशगांव न्यूज पोर्टल के संपादक आदित्य सिंह कुछ साल पहले अपने साथ घटी एक घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं, “एक समय था, जब बाबा साहब की जन्मस्थली स्मारक में बाहर से आए बाबा साहब के कुछ अनुयाइयों ने मुझे इसलिए रोक लिया था, क्योंकि मेरे हाथ में कलावा बंधा था. इस संबध में मुझसे पूछताछ तक की गई थी. मेरे हाथ में कलावा बंधा होने के कारण उनके मन में संशय था कि मैं बाबा साहब को मानता भी हूं या नहीं या कि किसी ने मुझे किसी खास उद्देश्य के साथ यहां भेजा है. और आज स्थिति यह है कि बाबा साहब की तस्वीर लगा कर एक यात्रा निकाली जा रही है, जिसमें जय श्रीराम के नारे लगाए जा रहे हैं और कोई रोकने वाला नहीं है.”

आदित्य सिंह कहते हैं कि विश्व हिंदू परिषद की इस यात्रा के बाद महू और यहां आने वाले लोगों के मन में आशंकाएं तो हैं कि आरएसएस बाबा साहब का भगवाकरण कर रहा है, लेकिन इस बात का जवाब देने वाला यहां कोई नहीं है.

यात्रा का आयोजन करने वाले अनिल वर्मा विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हैं. बात करते हुए वह कहते हैं, “पूरा देश बाबा साहब का सम्मान करता है, हम भी करते हैं. लेकिन यह कितनी खराब बात है कि जिस व्यक्ति ने संविधान लिखा, उसकी जन्मभूमि पर बने स्मारक में ही उसके द्वारा लिखा संविधान नहीं है.” संविधान सम्मान यात्रा के बारे में बताते हुए अनिल कहते हैं, “स्मारक को बने हुए पंद्रह साल हो गए लेकिन वहां संविधान की एक प्रति तक नहीं है, तब हमने सोचा कि क्यों न विश्व हिंदू परिषद संविधान की प्रति वहां रखे, ताकि वहां आने वाले लोग उसे देख सकें. इसके लिए हमने सभी जगहों से अनुमति ली, फिर इस कार्यक्रम को तय किया.”

अनिल ने दावा किया कि “विश्व हिंदू परिषद के प्रांत संगठन मंत्री नंददास दंतोडिया, क्षेत्रीय संगठन मंत्री राजेश तिवारी और विभाग संगठन मंत्री दीपक मकवाना के नेतृत्व में इस यात्रा का आयोजन किया गया. संविधान की मूल प्रतियों को प्राप्त करने के लिए हमने केंद्रीय मंत्री भानुप्रताप वर्मा से कहा. उन्होंने हमें एक पत्र लिख कर दिया जिसके जरिए हमने लोकसभा से संविधान की मूल प्रतियां खरीदीं. संविधान सम्मान यात्रा के दौरान, हमने इन्हीं प्रतियों को रथ पर लोगों के दर्शन के लिए रखा था.” उन्होंने बताया, “यह यात्रा इंदौर के चिमनबाग मैदान से बाबा साहब की जन्मस्थली महू के बीच करीब 30 किलोमीटर की थी. इस यात्रा में हजारों लोग शामिल हुए. इसे रास्ते में लोगों का खूब प्यार मिला. सौ से ज्यादा जगहों पर हमारी यात्रा का स्वागत किया गया. स्वागत करने वालों में आम लोगों के अलावा राजनीतिक पार्टियों से जुड़े लोग थे. इसमें कांग्रेस, आम आदमी पार्टी के लोग प्रमुखता से शामिल थे. महू पहुंच कर हमने बाबा साहब स्मारक समिति के उपाध्यक्ष राजेंद्र वाघमारे को समिति के अन्य सदस्यों की उपस्थिति में यह प्रति सौंपी, जिसे उन्होंने स्मारक में रखवाया. हमें जानकारी मिली है कि समिति ने उस समय तो संविधान की प्रतियां वहां रखवा दी थीं, बाद में उन्हें वहां से हटा दिया गया. अगर यह सही है तो हम स्मारक समिति के खिलाफ कार्रवाई करेंगे.”

संविधान सम्मान की यात्रा में जय श्रीराम के नारे लगाए जाने और भगवा झंडे फहराए जाने को लेकर यात्रा के आयोजक अनिल वर्मा का कहना था, “यह तो हमारे संगठन की पहचान है. बाबा साहब भी धर्म के खिलाफ नहीं थे. संविधान की मूल प्रति में ही धार्मिक विवरण दिए गए हैं. जब ये प्रसंग चित्रित किए जा रहे थे, तब भी बाबा साहब को कोई आपत्ति नहीं थी.”

मोहनराव वाकुड़े कहते हैं कि वर्तमान समिति बाबा साहब के मिशन के विपरीत कार्य कर रही है और इसका उद्देश्य संघ के नेताओं को खुश करना है. इसके लिए इन लोगों ने बाबा साहब के विचारों और उनके मानने वालों के साथ धोखा किया है. वह बताते हैं, “बाबा साहब के निर्वाण दिवस 6 दिसंबर को हर साल समता सैनिक दल के कार्यकर्ता यहां गार्ड ऑफ ऑनर देते हैं. 2020 में समता सैनिक दल के सदस्यों को गार्ड ऑफ ऑनर देने से रोका गया. 26 नवंबर 2021 को संविधान दिवस के दिन जन्मस्थली स्मारक के दरवाजे बंद कर दिए गए. बाहर से आने वाले दर्शनार्थियों को स्मारक के दर्शन करने तक से रोका जा रहा है. स्मारक कुछ लोगों की निजी संपत्ति बन गया है. ये लोग जिसे चाहते हैं उसे समिति में रखते हैं, जिसे मन करता है निकाल देते हैं. 2019 में ऐसे ही कुछ लोगों को समिति का सदस्य बनाया गया है जो उनके कहे अनुसार काम करें. ये सभी सदस्य बाबा साहब की विचारधारा के विपरीत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता के तौर पर कार्य कर रहे हैं.”

25-27 फरवरी 2022 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक प्रांतीय शारीरिक शिविर का आयोजन किया, जिसमें बाबा साहब आंबेडकर स्मारक की फोटो लगाई गई. इस पोस्टर में शिविर के आयोजन स्थल का पता नहीं दिया गया है. इस बात को लेकर बाबा साहब के मिशन से जुड़े लोगों का मानना है कि इस शिविर का आयोजन स्मारक परिसर में ही किया गया था.”

मोहनराव वाकुड़े बात करते हुए रुआंसे होकर कहते हैं, “मैं बहुत दु:खी हूं और निराश भी. स्मारक को बने हुए पंद्रह साल हो गया, तीस साल के करीब हो गया जबसे स्मारक का निर्माण चल रहा है. आज तक किसी ने अपना एक झंडा तक लगाने की कोशिश नहीं की, इस तरह की यात्राओं के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता था. अब जो हो रहा है, वह बहुत दुखद है, उससे ज्यादा दुखद यह है कि इसमें हमारे ही लोग शामिल हैं. बीते दो सालों में हुई कुछ घटनाएं इस बात की सबूत हैं कि डॉ. आंबेडकर साहब की विचारधारा को खत्म किया जा रहा है. मैं हैरान हूं कि स्मारक समिति तीन हजार रुपए खर्च नहीं कर सकती, जिससे स्मारक स्थल पर संविधान की प्रति रखी जा सके? बाबा साहब को मानने वाले लोग इतने कमजोर तो नहीं हैं कि वे उनके विचारों को आगे बढ़ाने के लिए चार-पांच हजार रुपए खर्च नहीं कर सकते. अगर समिति के पास पैसा नहीं है तो भी बताए, हम लोग पैसा दे सकते हैं. अगर समिति इतना ही कर देती, तो विश्व हिंदू परिषद जैसे बाबा साहब विरोधी संगठन को इतनी बड़ी रैली निकालने का मौका नहीं मिलता.”

स्मारक निर्माण और संचालन समिति के तमाम लोगों को समिति से बाहर किया जा रहा है. इसमें से कई तो ऐसे हैं जिन्हें 2019 में समिति के सदस्यों की संख्या को पूरा करने के लिए शामिल किया गया था. दो साल के भीतर ही इन लोगों को बिना कारण बताए हटा दिया गया है. बाहर किए जाने वालों में मोहनराव वाकुड़े (वर्तमान समिति के विरोधी) के अलावा के. शांताराम वाघ और उत्तम प्रधान भी हैं, जिन्हें 2019 में ही सदस्य बनाया गया था.

मोहनराव वाकुड़े के साथ दो और सदस्यों- उत्तम प्रधान तथा शांताराम बौद्ध- को भी समिति से बाहर निकाला गया था. उत्तम प्रधान कहते हैं, “हम जब समिति में शामिल हुए तो हमसे कहा गया था कि बाबा साहब के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए बाबा साहब के प्रपोत्र को भी इसमें शामिल किया जाएगा, जिससे बाबा साहब के मिशन को आगे बढ़ाने में उनका मार्गदर्शन मिलता रहे. इसके साथ ही समिति में जितने ज्यादा लोग होंगे इसके कामकाज में उतनी ही पारदर्शिता होगी.”

प्रधान बताते हैं, “बाबा साहब और उनके परिजनों को साथ लाने के नाम पर हमारे साथ यह धोखा किया गया था. हमें साथ लेकर उन्होंने अपनी साख बनाई जिसके सहारे स्मारक समिति पर कब्जा कर लिया. अब वहां पर संघ और बीजेपी के मनमाफिक चीजें हो रही हैं, जो कि पहले कभी नहीं हुआ. समिति ने जब कार्य करना शुरू कर दिया तब हमने बाबा साहब के प्रपौत्र को शामिल करने की बात उठाई तो कई बैठकों के बाद जवाब मिला कि हमने ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया था. जिस पारदर्शिता की बात की गई थी वह भी वहां नहीं है. वे जो चाहते हैं, करते हैं.”

एक उदाहरण देते हुए प्रधान कहते हैं, “स्मारक परिसर में रखी दानपेटी को खोलने के नियम साफ हैं कि इसको सभी सदस्यों तथा तहसील के अधिकारियों की मौजूदगी में ही खोला जाएगा. लेकिन समिति के सचिव और कुछ सदस्यों ने सभी सदस्यों और अधिकारियों को जानकारी दिए बिना ही इसको खोल लिया. दानपेटी से निकली रकम का भी आज तक कोई हिसाब नहीं दिया गया है. समिति की होनी वाली बैठकों में प्रस्ताव रजिस्टर तक नहीं लाया जाता है. इसको पारदर्शिता तो नहीं कहते हैं.” निष्कासित किए गए दूसरे सदस्य शांताराम वाघ भी उत्तम प्रधान की बातों का समर्थन करते हैं.

उत्तम प्रधान बताते हैं, “हम भारतीय बौद्ध महासभा से जुड़े हुए हैं जिसकी स्थापना बाबा साहब ने की थी. हम लोग उनके मिशन को ही आगे बढ़ा रहे हैं. स्मारक समिति में आने की जरूरत ही नहीं लगी. यहां न आने का दूसरा प्रमुख कारण यह भी है कि इसकी शुरुआत से ही इसमें आरएसएस और बीजेपी का जुड़ाव रहा है, इस वजह से इस पर कभी विश्वास नहीं हो पाया. अब तो इस पर बीजेपी और संघ का पूरी तरह से कब्जा हो गया है. स्मारक के अध्यक्ष सुमेध बोधि हैं, जो कुछ बड़े मौकों को छोड़कर यहां आते ही नहीं हैं. जो भी हो रहा है सब सचिव की सहमति से हो रहा है और सचिव संघ के कार्यकर्ता और बीजेपी के सदस्य हैं.”

स्मारक समिति नियमों के अनुसार एक बौद्ध भिक्षु ही स्मारक समिति का अध्यक्ष हो सकता है. स्मारक निर्माण कार्य में सक्रिय भूमिका निभाने वाले भंते धर्मशील संस्था के निर्माण से लेकर 24 मई 2007 तक अध्यक्ष रहे. उनकी मौत के समय उनका कोई उत्तराधिकारी तथा संस्था में कोई बौद्ध भिक्षु नहीं था. ऐसे में सवाल खड़ा हुआ कि अध्यक्ष किसको बनाया जाए? उत्तम बताते हैं, “इस कमी को दूर करने और स्मारक पर सरकारी कब्जा होने से बचाने के लिए हमने सांठ-गांठ करके एक साधारण सदस्य और सरकारी अधिकारी अरविंद वासनिक (वासनिक उस समय तक साधारण सदस्य थे) को बौद्ध धर्म में दीक्षित करवाया. अरविंद वासनिक को 2008 में भंते संघशील के तौर पर स्मारक समिति का अध्यक्ष बनाया गया, जो 2019 तक संस्था के अध्यक्ष रहे. 2019 में हुए एक विवाद के बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली.

भंते संघशील के समय समिति के सदस्य रहे और उनके साथ नजदीकी से काम कर चुके मोहनराव वाकुड़े कहते हैं, “यह सही है कि संघशील के समय कुछ चीजें गलत हुईं, लेकिन कभी बाबा साहब के विचारों से समझौता नहीं किया गया.” सघंशील की आत्महत्या का कारण बताते हुए मोहनराव बताते हैं, “5 मई 2018 को समिति के नए अध्यक्ष के चुनाव के लिए एक बैठक हुई, इसमें समिति के 16 सदस्यों ने भंते संघशील का विरोध किया. इसी बैठक में भिक्षु संघ ने सुमेध बोधि को स्मारक समिति का अध्यक्ष घोषित कर दिया. उनकी नियुक्ति को समिति के वरिष्ठ सदस्यों की सहमति भी मिली हुई थी.”

इस बैठक में राजीव आंबोरे नाम के एक व्यक्ति ने भंते पर तमाम तरह के आरोप लगाए और एक अफवाह (स्मारक के परिचालन के लिए एक ट्रस्ट बनाया जाएगा) के आधार पर भंते को भरी सभा में चिविर (बौद्ध धर्म गुरुओं द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र) नोंचने की धमकी दी. सदस्यों के विरोध और आंबोरे की धमकी पर भंते संघशील ने समिति को आश्वासन दिया कि संस्था में कोई भी ट्रस्ट नहीं बनाया जाएगा, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई। इसका अंत संघशील की आत्महत्या के रूप में सामने आया, जिन्होंने 20 जुलाई को फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली.

उसके बाद से सुमेध बोधि स्मारक समिति के अध्यक्ष हैं. संस्था के नियमों के विरुद्ध वह ज्यादातर समय महू से बाहर रहते हैं, जबकि उनके पहले के दो अध्यक्ष महू और इंदौर में ही रहते थे. फोन पर हुई बातचीत में सुमेध कहते हैं, “13 मार्च या अन्य उल्लिखित घटनाओं की उन्हें जानकारी नहीं है.” वह कहते हैं, “मैं महू या इंदौर में नहीं रहता हूं और खास तथा जरूरी मौकों पर महू पहुंच जाता हूं. रोजमर्रा का काम समिति के सचिव राजेश वानखेड़े देखते हैं.” सुमेध बाबा साहब जन्म स्थान स्मारक समिति के अध्यक्ष होने के साथ ही बौद्ध धर्म से जुड़े पवित्र स्थल कपिलवस्तु स्मारक के और महाराष्ट्र के एक बौद्ध विहार के भी सर्वेसर्वा हैं.

संघ, बाबा साहब को भगवा रंग में रंगने की कोशिश कर रहा है, स्मारक समिति और उससे जुड़े लोग इसको रोकने के लिए क्या प्रयास कर रहे हैं? इस पर सुमेध बोधि कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है और स्मारक समिति का काम बाबा साहब के विचारों का प्रचार-प्रसार करना है, जिसको वह ठीक ढंग से कर रही है. सचिव वानखेड़े संघ और बीजेपी के कार्यकर्ता हैं, इसकी जानकारी है आपको? इस पर वह कहते हैं, “हां मुझे पता है और वह अभी से नहीं सत्रह-अठारह सालों से उनके कार्यकर्ता हैं, लेकिन वह कभी उनको (संघ की विचारधारा को) स्मारक में लेकर नहीं आए. वह बाबा साहब के प्रति समर्पित हैं और उन्हीं के मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं.”

स्मारक स्थल की प्रबंध कार्यकारिणी समिति में हुए बदलाव भी स्मारक परिसर में चल रहे क्रियाकलापों की तरफ इशारा कर रहे हैं. यहां हुए ज्यादातर बदलाव पिछले दो सालों में हुए हैं. बाहर निकाले गए सदस्य और समिति के मौजूदा सदस्य एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं. इनके बारे में सुनकर भी ऐसा लग रहा है कि बीते वर्षों में कुछ तो ऐसा बदलाव हो रहा है, जिससे आपसी तालमेल में कमी आ रही है. पुराने सदस्यों को हटाने और 12 नए सदस्यों को एक साल पहले जोड़ने को लेकर मोहन राव वाकुड़े ने कोर्ट में केस भी किया है. वर्तमान में समिति में 31 लोग जुड़े हैं. मोहनराव के केस में उन्हें कोर्ट से स्टे मिला हुआ है.

स्मारक समिति के क्रियाकलापों और स्मारक परिसर में चल रही गतिविधियों के विरोध में 15 फरवरी 2022 को पूना शहर से डॉ. आंबेडकर बाबा साहब जन्मभूमि बचाओ मशाल यात्रा निकली. इस यात्रा का उद्देश्य स्मारक पर चल रही बाबा साहब के विचारों के विपरीत गतिविधियों की जानकारी को जनता तक पहुंचाना था. चार दिन की यह यात्रा दो दिवसीय धरना प्रदर्शन के साथ 19 फरवरी को महू में समाप्त होनी थी. मोहनराव वाकुड़े बताते हैं कि इस यात्रा की खबरें अखबारों में छपी तो कुछ लोगों ने उनसे मिल कर दुख जताया और कहा, “वाकुड़े जी आपके साथ गलत हुआ है, हमें इसका दुख है. आपको बड़े लोगों से मिलकर अपनी बात रखनी चाहिए ताकि इसका समाधान हो सके.” संघ से जुड़े एक व्यक्ति ने उनकी पैरवी करने की बात भी कही. उस व्यक्ति ने मोहनराव वाकुड़े को बताया कि वर्तमान स्मारक समिति के लोगों ने आपके बारे में संघ के बड़े नेताओं को हिंदुत्व विरोधी होने की जानकारी दी है. “आप संघ के नेताओं से मिल कर उनका भ्रम क्यों नहीं तोड़ देते. इस पर वाकुड़े ने उनसे ऐसा करने का तरीका पूछा, तो उनसे कहा गया कि आप स्मारक परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ करवा दीजिए.”

हनुमान चालीसा करवाने के सवाल पर वाकुड़े कहते हैं, “मैने उनसे कहा कि मैं समिति का सदस्य नहीं हूं, इस कारण मुझे तो अनुमति नहीं मिलेगी. आप समिति के सदस्यों से कहिए कि उसके एक हफ्ते पहले इसकी जाहिर सूचना जारी करें, अखबारों में इश्तेहार जारी करें, जिससे कि ज्यादा से ज्यादा लोग वहां आएं. अगर समिति ऐसा करती है तो हमने समिति के चुनाव को लेकर जो कोर्ट केस किया है उसको भी वापस ले लेंगे और रही बात हिंदुत्व विरोधी होने की तो ऐसे कैसे संभव है, संघ के लोग बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं. बाबा साहब के तरीके से हम भी तो धम्म का ही प्रचार प्रसार कर रहे हैं.”

मोहन राव वाकुड़े जब समिति के सदस्य थे, तब वे स्मारक स्थल पर आने वाले मेहमानों की अगवानी करते थे. वह अपने कार्यकाल में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, राहुल गांधी समेत कई बड़े नेताओं की स्मारक स्थल पर अगुवाई कर चुके हैं.

स्मारक समिति के उपाध्यक्ष राजेंद्र वाघमारे लंबे समय से आंबेडकर स्मारक समिति से जुड़े हुए हैं. यहां हो रहे बदलावों पर वह कहते हैं, “हम राजनीति से दूर हैं. हमारा काम स्मारक की देखभाल करना है, जो हम कर रहे हैं.” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा बाबा साहब के भगवाकरण करने की कोशिशों पर वह कहते हैं, “यहां जो भी आएगा उसका हम सम्मान करेंगे. सभी धर्मों का सम्मान करेंगे, लेकिन बाबा साहब के स्मारक स्थल को किसी भी सूरत में राजनीति का अखाड़ा नहीं बनने देंगे. हम बाबा साहब को मानने वाले लोग हैं, जय श्रीराम के नारे कैसे स्वीकार कर पाएंगे?”

आरएसएस-बीजेपी द्वारा बाबा साहब का भगवाकरण करने की कोशिश पर वह कहते हैं, “सरकारें उनकी हैं, वे चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं. उनकी तो कोशिश ही है कि बाबा साहब के विचारों को खत्म किया जाए. हम भी आखिरी सांस तक लड़ेंगे. वे जो कर रहे हैं इस बात को तो पूरी दुनिया जानती है. हम अपने स्तर से विरोध करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.”

13 मार्च की रैली और स्मारक समिति से जुड़े तमाम मसलों पर मैंने समिति के सचिव राजेश वानखेड़े से जब बात की, तो उनका कहना था, “संविधान सबका है. ऐसे में विश्व हिंदू परिषद के सदस्य हों या फिर कोई और, लोग यहां आते रहते हैं. यहां जो भी आएगा उसका स्वागत है. अगर बाबा साहब और उनके विचारों को मानते हुए अगर वे यहां आ रहे हैं तो दिक्कत क्या है, वे भी तो संविधान को मानते हैं. यहां आने वाले जो लोग रैली-यात्रा लेकर आते हैं, स्मारक परिसर के बाहर उसका समापन करते हैं. उसके बाद स्मारक के दर्शन करते हैं, यही यहां का नियम है जिसे हम हर हाल में पालन कराते हैं.” विश्व हिंदू परिषद को इस रैली के आयोजन की अनुमति किसने दी, इस पर राजेश वानखेड़े कहते हैं, “बाबा साहब को मानने वाले लोग कुछ भी करें, इससे समिति का कोई लेना देना नहीं है और स्मारक समिति इसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकती है. ऐसे में हमारी अनुमति की जरूरत ही नहीं है. हमारी जिम्मेदारी केवल स्मारक परिसर तक है. उसके बाहर कोई कुछ भी करे, हम उसमें दखल नहीं दे सकते. फिर वे आरएसएस, बीजेपी से जुड़े संगठन हों या फिर कांग्रेस या किसी और पार्टी के.”

मोहनराव वाकुड़े द्वारा लगाए आरोपों पर वह कहते हैं, “उन्हें हटाने का कारण यह है कि वह समिति से सलाह लिए बिना ऐसे बहुत सारे काम करते थे जो उन्हें समिति की सहमति के बिना नहीं करने चाहिए थे. उसके बाद से वह आए दिन ऐसे आरोप लगाते रहते हैं और अखबार में भी निकलवाते रहते हैं कि आरएसएस से जुड़े लोगों को रखा गया है. मोहन वाकुड़े कभी भी यहां के सचिव नहीं रहे, फिर भी वह हमेशा दावा करते हैं और लिखते भी हैं कि वह इसके सचिव रहे हैं. हम उन पर मानहानि का केस करने वाले हैं.”

समिति के सचिव राजेश वानखेड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता और बीजेपी के सदस्य हैं. वह बीजेपी के टिकट पर इंदौर नगर निगम के लिए पार्षद का चुनाव भी लड़ चुके हैं. समिति के पूर्व और वर्तमान सदस्य एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्मारक स्थल को लेकर चीजें ठीक नहीं चल रही हैं.

आंबेडकर स्मारक से तीन चार किलोमीटर की दूरी पर सेना की जमीन पर एक बस्ती बसी है, गाजी की चाल. महार समुदाय के लोगों की इस बस्ती में ज्यादातर लोग महाराष्ट्र से आकर बसे हैं. दलित समुदाय से होने के कारण इनमें बाबा साहब के प्रति अगाध श्रद्धा है. इन लोगों के जीवन में बाबा साहब की क्या अहमियत है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन्होंने छोटे-छोटे काम करके कई सालों की मेहनत के बाद उनका छोटा-सा एक मंदिर बनाया हुआ है. बाबा साहब से प्रेरणा लेकर वे अपने बच्चों को बेहतर स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं, ताकि वे कुछ अच्छा कर सकें.

इसी बस्ती में रहने वाले बलदेव सुरवाणे कहते हैं कि पिछले साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के दिन स्मारक स्थल पर पहुंचे, तो उन्हें अंदर जाने से रोक दिया गया. रोके जाने का कारण पूछने पर उनसे कहा गया कि अंदर अभी हमारा कार्यक्रम चल रहा है, उसके खत्म होने के बाद ही सबको अंदर जाने दिया जाएगा. सुरवाणे कहते हैं कि स्मारक समिति के लोग अब फोन करके चंदा मांगते हैं, जिसे धम्म दान कहा जाता है.

एक तरफ राजनीतिक दांव-पेंच हैं, आपसी चालबाजियां हैं, विचारों की लड़ाई लड़ी जा रही है. दूसरी तरफ बल्देव सुरवाणे जैसे लोग हैं, जो केवल बाबा साहब को मानते हैं. उनकी बहुत छोटी-सी चाहत है कि वे अपने महापुरुष के स्मारक में बे-रोकटोक आ जा सकें, उनके प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित कर सकें. स्मारक स्थल से जुड़े विवाद और परिस्थितियां तो पृष्ठभूमि पर चल रही राजनीति की एक उपज भर है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आगे क्या-क्या हो सकता है.

संघ और बीजेपी तमाम कोशिशों के बाद भी बाबा साहब को अपने से जोड़ नहीं पाए थे, लेकिन 2016 के बाद जब प्रधानमंत्री महू आए और बाबा साहब से जुड़ी तमाम जगहों को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की घोषणा की, इसके बाद से इस काम में तेजी आने लगी. इन जगहों पर पसंद के लोग बिठाए जाने लगे, जो उनके हिसाब से काम करें. नए आए लोगों ने इस काम में उनकी मदद भी की.

अब जब यह काम पूरा हो चुका है, तो 13 मार्च की यात्रा को लेकर बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए. यह बाबा साहब के भगवाकरण की कोशिश है, जिसके लिए राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ इतने सालों से मेहनत करता आ रहा है. अगर ऐसा नहीं होता, तो महू में जो हुआ उसका पता पूरे देश को चलता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

अमन गुप्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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