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स्वयं को देखने और समग्र को जीने का सोपान है ’ध्यान

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मीना राजपूत

  _पूर्व कथन : यह लेख चेतना विकास मिशन के निदेशक डॉ. विकास मानव के प्रयोग से मिले अनुभव पर आधारित है. आप मेडिटेशन रिसर्च फाउंडेशन मियामी, यूएसए से वैज्ञानिक मेडिटेशन में डॉक्टरेट हैं और दुनिया के अकेले ऎसे हस्ताक्षर हैं — जिनकी सारी सेवाएं यूनिवर्सल और निःशुल्क हैं.

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       मनुष्य की समस्त क्रियाएँ एवं प्रतिक्रियाएँ स्थिरता, सहजता, शांति, अथवा तृप्ति की प्राप्ति के उद्देश्य से होती हैं। शरीर के तल पर जीने वाले यानि मोटी बुद्धि के लोग भौतिक समृद्धि हासिल करके कदाचित सुःखी सन्तुष्ट हो जाते हैं। मतलब अपने को सफल समझ लेते हैं। इसलिये कि परमतृप्ति, शान्ति या आनन्द उनकी सोच अथवा कल्पना के शब्द-कोश में नहीं होता।

       _भावना-चेतना से समृद्ध शेष लोग ऐसे स्तर की उपलब्धि करके अपने को ठगा-सा पाते हैं। उन्हें लगता है कि उनको उसका अंश-मात्र भी नहीं मिला जिसके लिए उन्होंने बचपन से लेकन आज तक प्रयत्न संघर्श किया। वे आश्वस्त हो जाते हैं कि यह मंज़िल का मार्ग नहीं था। मार्ग न बदला गया तो कफ़न तक की यात्रा भी व्यर्थ हो जायेगी- वे विश्वस्त हो जाते हैं। यहीं से शुरू होती हैं जीवन की सार्थकता अथवा सफलता के लिये सही दिशा की खोज।_

        भगवान को खोजने, परमानंद पाने के प्रयास से पूर्व खुद को जानना और ’’स्व’’ का बोध करना आवश्यक होता है। ‘मै कौन हूँ?’ इस मूल प्रश्न का उत्तर- किताबों, प्रवचन करने वाले व्यापारियों, और सी डी, डी वी डी से भी मिल जाता है। इससे होता कुछ नहीं। महत्वपूर्ण ’बोध’ होता है जो ध्यान मात्र से ही सम्भव है।

*|| विकल्प नहीं हैं अंध-भक्तिः ||*

       चेतना और मानवीय संवेदना के विस्तार से शिखर पर पहुँचा जा सकता है। शिखर की प्राप्ति में प्रार्थना की विधियाँ अमूनन बन्धन बन जाती हैं। तीर्थ, व्रत, मूर्तिपूजा सरीखे मन बहलाने वाले कर्मकाण्ड अशांत, परेशान-दिशाहीन मन के आविष्कार हैं। इनसे किसी को वास्तविक तृप्ति की अनुभूति नहीं हो सकती।

      _कुछ लोग भक्ति मार्ग को मनौवैज्ञानिक मानते हैं किन्तु वस्तुतः आडम्बरों में यह मार्ग कहीं खो गया है। मार्ग तो वही हो सकता है जो हमें हमारे वास्तविक स्वरूप तक पहुँचाए।_

     हमारा ’स्व’ वस्तुतः हमारी आत्मा है, सर्वस्व है और अंततः परमात्मा भी। स्व-साक्षात्कार का अर्थ है: अपनी मूलभूत सत्ता से एक हो जाना।

सैक्स को विकल्प बनाना दूसरा रूझान है मनुष्य का।

*|| थोड़ा सैक्स को भी समझें ||**

     चार पुरूषार्थ हैंः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष! वैदिक ऋषियों ने अजीविका हेतु धर्म से अर्थ अर्जित करने और काम के उदात्त अथाह स्वरूप से ग़ुज़र कर मोक्ष प्राप्त करने का प्रावधान दिया है किन्तु! आज सैक्स क्या है?

      _पाशविक, यान्त्रिक यानी रोबोटिक कौतुक मात्र। पार्टनर जब तक भावना-चेतना के उत्तुंग शिखर पर पहुंचकर एकात्म अवस्था में संबंध स्थापित नहीं करता तब तक काम से तृप्ति की वास्तविक अनुभूति असंभव होती है। पार्टनर को स्वयँ से व परमात्मा से भी अधिक महत्व दिये बिना सैक्स को मार्ग मानना मूर्खता है।_

        ऐसे में सम्बन्ध बनाना न सिर्फ साथी को छलना है बल्कि खुद से भी बेवफ़ाई करना है। आज के दौर में प्यार के नाम पर भी गुलामी, व्यापार, बेवफ़ाई एवं बबार्दी का आलम है, जो इसी मूर्खता का परिणाम है।    

        आदि-शक्ति पार्वती की योनि में सक्रिय भगवान शंकर के लिंग की पूजा करना अलग बात है और ’अर्धनारीश्वर’ को जीना सर्वथा अलग बात!

*|| समाधि क्या है? ||*

     किसी शब्द, विचार या रूप पर यदि मन को बरबस केन्द्रित करने का यत्न किया जाए तो एक तरह का तनाव पैदा होता है जो तन-मन दोनों के लिये अहितकर होता है। ऐसे बलात्कारी प्रयास से मस्तिष्क में आने वाली जड़ता को भ्रमवश समाधि समझ लिया जाता है।

     _असल में यह एक प्रकार की मूर्छा है। समाधि है सर्वत्र संव्याप्त ’स्व’ में अवस्थित, समग्रता की अनुभूति। इस अवस्था की प्राप्ति ध्यान से ही संभव है।_

       ध्यान मन के विचारों को अनदेखा करने, ’मैं’ को शरीर और ’मेरा’ को संसार समझने की प्रवृत्ति से मुक्ति का मार्ग है। ज्यों-ज्यों ध्यान में गति होती है त्यों-त्यों अशांत और चंचल मन अनायास ही शांत होने लगता है। बुद्ध और महावीर आदि की तरह व्यक्ति करूणा से भरकर, खुद से एवं स्वार्थी संबंधों से परे होकर सृष्टि के कल्याण में निरत हो जाता है। ध्यान के सन्दर्भ में यह धारणा भी बिल्कुल ग़लत है कि इसके लिए उल्टे- सीधे आसन लगाकर बैठना पड़ता है।

      _जाप या त्राटक करना पड़ता है। वस्तुतः ध्यान का अर्थ कुछ करना नहीं, कुछ भी नहीं करना है।_

          ध्यान की अनेक विधियाँ हैं आवश्यक नहीं है कि हर एक विधि हर एक के लिये अनुकूल एवं कारगर साबित हो।

    _यहाँ प्रस्तुत है एक ऐसी सरल-सहज विधि जो सामान्यतः अनेक लोगों का विकल्प बन जाती है। आवश्यकता अपनी पीड़ा के प्रति जागरूक होने एवं पात्रता प्रस्तुत करने मात्र की होती है।_

*|| एक प्रयोगात्मक : ध्यान~विधि ||*

       ध्यान में प्रवेश करने के लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि पेट तक सांस लेने की आदत डालें। सांस पूरी लें जैसे छोटा बच्चा लेता है। बड़े होने पर चित्त अशान्ति के कारण हम पूरी सांस लेना तक भूल जाते हैं और वक्ष स्थल के ऊपर से ही मामला निपट जाता है।

     _मन की शांति के लिये सांस का गहन होना अत्यन्त आवश्यक है। सांस सीने से आगे पेट नाभि और धीरे-धीरे पेडू से भी नीचे जननेन्द्रिय तक जाकर लौटनी चाहिए।_

– प्रातः काल किसी भी एकांत स्थान पर पालथी मारकर आराम से बैठ जाएँ।

– रीढ़ को सीधा रखें।

– आँखें बन्द कर लें।

– और कुछ न करने-न सोचने का प्रयास करें।

– कोई विचार मन में न उठायें।

– सांस लेते समय वायु नासिका के जिस भीतरी भाग का स्पर्श करती है, उसके प्रति सजग रहें।

– अभी भी ध्यान अटकता है विचारों में भटकता है तो सांस से पूर्ण तादात्म्य बनायें।

– उसका पीछा करें उसके साथ संपूर्णताः से गति करें।

– वह जहाँ जाती है जाएँ।

      _आरम्भ में दिक्कतें आएँगी। वर्षों से अर्जित-थोपित विचार-संसार चंद दिनों में नहीं पीछा छोड़ देंगे। उनकी भीड़ में खोने से बचना है सो समर्पित होकर निष्ठापूर्ण प्रयास करना और धैर्य रखना लाजमी है।_

       आरम्भ में 7-10 मिनट ही बामुस्किल बैठा जा सकेगा और आप पायेंगे कि विचारों की अत्यधिक तीव्रता कुछ कम हो गई है। आँखों के सामने लोगों के शरीर या संसार-बाज़ार की जगह अब प्राकृतिक दृश्य आने लगेंगे। गति जारी रखने पर प्रगति स्वरूप नासिका के भीतरी स्वास-स्पर्श पर ध्यान केन्द्रित करते समय एक दिन भौहों के मध्य से हवा की एक तरंग-सी उठेगी।

      _कुँवारी हवा की ठंडी-सी यह तरंग माथे को पार कर रूक गई ऐसा प्रतीत होगा। यह तरंग आगे चलकर बिना ध्यान में बैठे और किसी भी समय उठने लगेगी। अब यह माथे के ठीक ऊपर वहाँ से उठेगी जहाँ वह प्रथम बार रूकी थी। यह धीरे-धीरे सिर के मध्य तक पहुँचेगी। आप खुद में खोने की ओर बढेगें।_

      मस्तिष्क में कोई विचार उठना तो दूर की बात कुछ न बोलने और कुछ काम भी नहीं करने का मन करेगा। ध्यान में बैठने-खोने का मौका खोजने लगेंगे आप।

*|| ध्यान में रमना कुण्डलिनी चक्रों का खुलना ||*

     महिलाओं या भावुक जनों को अनुभूति प्रथमतः हृदय में और बुद्धिजीवियों को मस्तिष्क में होती है। जिनके व्यक्तित्व का केन्द्र सेक्स है वे कामोत्तेजित होंगे। चित्रकार सुन्दर रंग देखेगा तो संगीतज्ञ मधुर स्वर सुनेगा। ध्यान-जनित अनुभूतियों का आरम्भ मनुष्य के व्यक्तित्व के मूलकेन्द्र से होता है लेकिन बाद में उसके विकास का क्रम सभी में एक समान ही होता है।

      _धीरे-धीरे समय सार्थक साबित होने लगेगा और आनन्द बढ़ता जायेगा। पीड़ाओं में भी शरीर अधिक शीथिल यानी निष्क्रिय होने लगेगा। तरंगों की अनुभूति रीढ़ के अंत तक पहुँचेगी। सिर में असहनीय पीड़ा कंपकपी बुख़ार, कमर में दर्द का पीठ से उठकर सामने पेट के नीचे की ओर जाना, रीढ़ में पीड़ा, पाचन-शक्ति बढ़ना आँखों के सामने काला पर्दा या घोर अन्धकार आना स्वाभाविक है।_

         आगे चलकर वक्ष-स्थल, पेट, नाभि, माथे, जाँघों व उँगलियों तक में तरंगें उठना और पूरा शरीर भी वाइब्रेट होना शुरू होगा। फिर भी आनन्द की अनुभूति होगी। अतः इन हालातों से डर कर वापस लौटना नहीं है। ध्यान से हमारे शरीर की शक्तियाँ जागृत हो जाती हैं, जिन्हें सँभाल पाना शुरू में शरीर के लिए कठिन होता है।    

       इसीलिए परेशानी महसूस होती है। शक्ति-जागरण को ही योग की भाषा में शरीर के चक्रों का खुलना कहा जाता है।

आगे की अनुभूतियों का वर्णन शब्द नहीं कर सकते। आपकी निरंतरता अथवा किसी योग्यतम्-सफल किरदार के स्पर्श का ऊर्जा-प्रवाह अनुभव का आधार बनता है। ध्यान द्वारा इस अवस्था तक पहुँचने के बाद रूकने का कोई कारण नहीं रह जाता।

      _माध्ययम की ज़रूरत होने पर अस्तित्व की ओर से वह मिल जाता है वर्ना रास्ता स्वतः साफ दिखने लगता है। तो शुरूआत करें, पीड़ा के प्रति जागरूक होने व उससे मुक्त होने की._

     {चेतना विकास मिशन)

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