अपनी सरकार के आठ साल बीतते-बीतते आखिरकार नरेन्द्र मोदी ने देश की जनता को “अच्छे दिन” दिखला ही दिये! थोक महँगाई दर मई 2022 में 15.08 प्रतिशत पहुँच चुकी थी और खुदरा महँगाई दर इसी दौर में 7.8 प्रतिशत पहुँच चुकी थी। थोक कीमतों का सूचकांक उत्पादन के स्थान पर थोक में होने वाली ख़रीद की दरों से तय होता है, जबकि खुदरा कीमतों का सूचकांक महँगाई की अपेक्षाकृत वास्तविक तस्वीर पेश करता है, यानी वे कीमतें जिन पर हम आम तौर पर बाज़ार में अपने ज़रूरत के सामान ख़रीदते हैं। बढ़ते थोक व खुदरा कीमत सूचकांक का नतीजा यह है कि मई 2021 से मई 2022 के बीच ही आटा की कीमत में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। दूध रु. 50/लीटर व वनस्पति तेल औसतन रु. 200/लीटर का आँकड़ा पार कर रहे हैं। घरेलू रसोई गैस की कीमतों में 76 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है और वह करीब रु. 1010 प्रति सिलेण्डर की दर पर बिक रहा है। कॉमर्शियल रसोई गैस की कीमतों में 126 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है जो कि अब लगभग रु. 2400 पर बिक रहा है। मोदी सरकार ने हाल ही में विधानसभा चुनावों की समाप्ति के बाद पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी करते हुए दोनों के ही शतक लगवा दिये थे। लेकिन इसके बाद गुजरात व कुछ अन्य राज्यों में चुनावों के मद्देनज़र और पूँजीपति वर्ग के विचारणीय हिस्से को इसका नुकसान होने के कारण उसे करीब 10 रुपये तक घटा दिया। लेकिन फिर भी अभी पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी करों का बोझ है और वह सरकार द्वारा जनता की लूट का एक प्रमुख ज़रिया है। अगर हम 2017 से तुलना करें, तो चावल की कीमत में 24 प्रतिशत, गेहूँ की कीमत में 24 प्रतिशत, आटे की कीमत में 28 प्रतिशत, तूर/अरहर की कीमत में 21 प्रतिशत, मूँग की कीमत में 29 प्रतिशत और मसूर की कीमत में 32 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसी प्रकार खाद्य तेलों में मूँगफली के तेल में 41 प्रतिशत, सरसो तेल में 71 प्रतिशत, वनस्पति तेल में 112 प्रतिशत, सोयाबीन तेल में 101 प्रतिशत, सूरजमुखी तेल में 107 प्रतिशत और पाम तेल में 128 प्रतिशत की कीमत बढ़ोत्तरी हुई है। सब्जि़यों में इन्हीं पाँच वर्षों में आलू में 65 प्रतिशत, प्याज़ में 69 प्रतिशत, टमाटर में 155 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि इन्हीं पाँच वर्षों में दूध की कीमत में 25 प्रतिशत, खुली चाय की कीमत में 41 प्रतिशत और नमक की कीमत में 28 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
दूसरी तरफ, आम मेहनतकश आबादी की आय में या तो गिरावट आयी है या फिर वह लगभग स्थिर है। अभी हालत यह है कि एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अगर आप रु. 25,000 कमाते हैं तो आप भारत के ऊपरी 10 प्रतिशत आबादी में आते हैं! उजरती श्रमिकों का 57 प्रतिशत भारत में रु. 10,000 से कम कमाता है और समस्त उजरती श्रमिकों की बात करें तो उनकी औसत आय रु. 16,000 है। निश्चित तौर पर, इसमें सबसे कम कमाने वाले मज़दूर वे हैं जो कि अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और कुल मज़दूर आबादी का करीब 93 प्रतिशत बनते हैं। यानी, एक ओर महँगाई सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है, वहीं दूसरी ओर आम मेहनतकश आबादी की औसत आमदनी विशेष तौर पर कोविड महामारी के बाद से या तो ठहरावग्रस्त है या फिर घटी है। वित्तीय वर्ष 2021-22 के पहले नौ माह के दौरान ग्रामीण खेतिहर वास्तविक मज़दूरी में मात्र 1.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई, जबकि ग्रामीण गैर-खेतिहर वास्तविक मज़दूरी में 1.2 प्रतिशत की गिरावट आयी। भारत की राज्य सरकारों के कर्मचारियों की औसत वास्तविक आय में 2019 से 2021 के अन्त तक 6.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसी दौर में मनरेगा मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी में मात्र 4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसके अलावा, स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध 2800 कम्पनियों के कर्मचारियों की आय में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई, हालाँकि इसका बड़ा हिस्सा मध्यवर्गीय व उच्च मध्यवर्गीय कर्मचारियों के खाते में गया और आम मज़दूरों की मज़दूरी में बहुत ही कम बढ़ोत्तरी हुई। सबसे बुरी हालत अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की रही। कोविड महामारी के दौरान ही उनकी औसत मज़दूरी में बढ़ी बेरोज़गारी के कारण 22 प्रतिशत की गिरावट आयी थी। आज की हालत आप इससे समझ सकते हैं कि ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकरण करवाने वाले 28 करोड़ असंगठित मज़दूरों की औसत मज़दूरी रु. 10,000 प्रति माह से भी कम है।
ऐसे में समझा जा सकता है कि बढ़ती महँगाई हम मेहनतकशों-मज़दूरों पर कैसा कहर बरपा कर रही है। हमें यह समझना चाहिए कि महँगाई कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। न ही बेरोज़गारी कोई प्राकृतिक आपदा है। यह एक ऐसी व्यवस्था द्वारा पैदा होती हैं जिसके केन्द्र में मुट्ठी भर पूँजीपतियों का मुनाफ़ा होता है। जब हम पूँजीपतियों की बात करते हैं तो इसका अर्थ केवल टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अदानी जैसे बड़े पूँजीपति ही नहीं हैं, बल्कि बड़े दुकानदारों, ठेकेदारों, पूँजीवादी धनी किसान व कुलक भी पूँजीपति वर्ग में शामिल हैं। मौजूदा दौर में रिकॉर्ड-तोड़ महँगाई के पीछे भी यह समूचा पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता खड़ी है। पूँजीपतियों का मुनाफ़ा जारी मुनाफे के संकट के दौर में कायम रखा जा सके, इसके लिए संकट का बोझ आम मेहनतकश जनता पर डाला जा रहा है, उसकी मज़दूरी को कम करके पूँजीपतियों के मुनाफे की दर को कायम रखा जा रहा है। यही महँगाई के आम बुनियादी कारण हैं। इस सम्पादकीय लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि वर्तमान महँगाई के मूल कारण किस प्रकार समूचे पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़ाखोरी और समूची पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता है।
लेकिन सबसे पहले उन ग़लत धारणाओं को समझना ज़रूरी है जो पूँजीपति वर्ग और उसके टट्टू हमारे बीच फैलाते हैं और जिसका शिकार कुछ मूर्ख बुद्धिजीवी भी हो जाते हैं।
पहली ग़लत धारणा यह है कि महँगाई बढ़ने का मूल कारण मज़दूरी में बढ़ोत्तरी है या फिर यह कि मज़दूरी में बढ़ोत्तरी की महँगाई बढ़ने में कोई भूमिका होती है। मार्क्स ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में ही ट्रेडयूनियन नेता वेस्टन की इस दलील को तर्कों और तथ्यों समेत ख़ारिज कर दिखलाया था कि मज़दूरी बढ़ने से कीमतों के बढ़ने का कोई रिश्ता नहीं होता है। सामाजिक तौर पर, कीमतों का निर्धारण मालों के उत्पादन के लगने वाले सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम से निर्धारित होने वाले सामाजिक मूल्य से होता है। यह सही है कि हर माल अपने मूल्य पर नहीं बिकता और उसकी कीमत उसके मूल्य से ऊपर या नीचे हो सकती है और आम तौर पर होती ही है। इसका कारण मुनाफे की दर का औसतीकरण होता है। जिन सेक्टरों में मुनाफे की दर कम होती है, उनसे उन सेक्टरों की ओर पूँजी का प्रवाह होता है जहाँ मुनाफे की दर ज़्यादा होती है। जाहिर है, हर पूँजीपति अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहता है, तो वह अपनी क्षमता के अनुसार उन सेक्टरों में पूँजी निवेश को प्राथमिकता देता है जिनमें मुनाफे की दर ज़्यादा होती है। ये समीकरण बदलते रहते हैं और इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था में अलग-अलग सेक्टरों के बीच पूँजी का आपसी प्रवाह सतत् जारी रहता है। नतीजतन, आपूर्ति और माँग के समीकरणों में बदलाव आता है और कीमतों में उतार-चढ़ाव आता रहता है। नतीजतन, माल अपने मूल्य से कम या ज़्यादा कीमत पर बिकते हैं।
कम मुनाफे की दर वाले सेक्टरों से अधिक मुनाफे की दर वाले सेक्टरों की ओर पूँजी का यह सतत् प्रवाह मुनाफे की दर का समूची अर्थव्यवस्था के स्तर पर औसतीकरण करता रहता है और इसके कारण ही मालों की उत्पादन कीमतें उनके सामाजिक मूल्य (यानी उनमें लगे सामाजिक श्रम की मात्रा) से कम या ज़्यादा होती हैं। बाज़ार में तात्कालिक तौर पर माँग और आपूर्ति के समीकरण में आने वाले बदलावों के चलते उत्पादन कीमतों में तात्कालिक उतार-चढ़ाव पैदा होते हैं, जिन्हें हम बाज़ार कीमतें कहते हैं। बाज़ार कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव अन्तत: एक-दूसरे को प्रति-सन्तुलित करते हैं। लेकिन अलग-अलग मालों के लिए बाज़ार कीमतों के सामाजिक मूल्य से ऊपर या नीचे होने के बावजूद समूची अर्थव्यवस्था के स्तर पर कुल कीमतों का योग कुल सामाजिक मूल्य के योग के बराबर ही रहता है क्योंकि अर्थव्यवस्था में कुल जितना मूल्य पैदा होता है, कुल मिलाकर उतना ही मूल्य बिक्री के ज़रिए वास्तवीकृत होता है।
इसलिए मालों की कीमत मज़दूरी के बढ़ने की वजह से नहीं बढ़ती और न ही उनके घटने की वजह से घटती है। यदि मज़दूरी बढ़ती है और कुल मूल्य उत्पादन स्थिर होता है या वह मज़दूरी से कम रफ्तार से बढ़ता है तो बस यह होता है कि पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की दर में गिरावट आती है। इसका उल्टा भी सच है; यानी यदि मज़दूरी घटती है और कुल मूल्य उत्पादन स्थिर रहता है या फिर मज़दूरी के घटने से कम रफ्तार से घटता है, तो मुनाफे की दर बढ़ती है। इन बातों को आँकड़ों से सिद्ध किया जा सकता है कि वस्तुओं की कीमतों के बढ़ने, यानी महँगाई के बढ़ने में मज़दूरी में होने वाली बढ़ोत्तरी का कोई योगदान नहीं होता है। उल्टे मज़दूर वर्ग द्वारा मज़दूरी को बढ़ाने की माँग पहले से बढ़ी महँगाई की प्रतिक्रिया होती है, न कि बढ़ती महँगाई बढ़ी हुई मज़दूरी की प्रतिक्रिया। कुछ “यथार्थवादी” मूर्खों का ऐसा मानना है कि पूँजीपति वर्ग की समूची लागत और कुछ नहीं बल्कि मज़दूरी है और यह कि बढ़ती महँगाई में कम ही सही मगर बढ़ती मज़दूरी की भी भूमिका है! यह मूर्खों का एक गिरोह है जो मार्क्सवाद के नाम पर मज़दूर वर्ग में मूर्खतापूर्ण बातें फैलाने की अपनी परियोजना में लगा हुआ है और ‘यथार्थ’ नामक पत्रिका निकालता है।
दूसरी ग़लत धारणा यह है कि मौजूदा दौर में महँगाई के लिए केवल इजारेदार पूँजीपति वर्ग द्वारा इजारेदार कीमत द्वारा वसूला जाने वाला इजारेदार लगान जिम्मेदार है। यह भी भयंकर मूर्खतापूर्ण और नुकसानदेह सोच है जो कि बड़े इजारेदार पूँजीपतियों को छोड़कर बाकी पूँजीपतियों से मज़दूर वर्ग का मोर्चा बनाने की वर्ग सहयोगवादी नतीजे पर पहुँचती है और मज़दूर वर्ग की स्वतन्त्र राजनीति को भयंकर नुकसान पहुँचाती है। पहले समझ लेते हैं कि इजारेदार पूँजीपति कौन होता है। इजारेदार पूँजीपति वह होता है जिसका अपने निवेश के क्षेत्र में पूर्ण या लगभग पूर्ण एकाधिकार होता है और इसलिए वह अपने माल की कीमत अपने माल के मूल्य से ऊपर रख सकता है। इसे इजारेदार कीमत कहते हैं। यह इजारेदारी किसी भी वजह से हो सकती है। मसलन, कोई कम्पनी कोई विशेष माल बनाती है जिसकी तकनोलॉजी केवल उसके पास ही है, या किसी खनिज के भण्डार पर यदि किसी पूँजीपति का एकाधिकार हो, या फिर राजनीतिक इजारेदार कीमत के ज़रिए किसी पूँजीपति या पूँजीपति वर्ग के किसी हिस्से को सरकार द्वारा निर्धारित इजारेदार कीमत के कारण इजारेदार लगान प्राप्त होता हो, जैसे कि भारत में पूँजीवादी धनी किसानों-कुलकों को लाभकारी मूल्य यानी एम.एस.पी. की इजारेदार कीमत के ज़रिए मिलने वाला इजारेदार लगान।
इजारेदार कीमत के बारे में भी तमाम तथाकथित मार्क्सवादियों जैसे कि ‘यथार्थ’ पत्रिका के बौड़म गिरोह की विचित्र समझदारी है। इनको लगता है कि इजारेदार पूँजीपति इजारेदार कीमत के तौर पर कोई भी मनमानी कीमत बाज़ार पर थोप सकता है। यह भयंकर मूर्खतापूर्ण बात है। वजह यह कि इजारेदार पूँजीपति भी इजारेदार कीमत को उस स्तर पर ही रख सकता है, जिस स्तर पर उसके इतने माल बिक सकें कि उसे अतिलाभ (यानी औसत मुनाफे से ऊपर मुनाफा) प्राप्त हो सके। दूसरे शब्दों में, जैसा कि मार्क्स ने बताया था, इजारेदार पूँजीपति भी मालों की कीमत मनमाने तरीके से नहीं रख सकते और यदि कोई रखता है तो बाज़ार उस पूँजीपति की अक्ल जल्द ही ठिकाने लगा देता है और उसे अनुशासित कर देता है! इजारेदार कीमत के लिए ऊपरी सीमा है इजारेदार पूँजीपति के माल के लिए बाज़ार में मौजूद प्रभावी माँग, यानी ऐसी माँग जिसके पीछे क्रय-क्षमता मौजूद है। दूसरे शब्दों में, उस माल को ख़रीदने की औक़ात रखने वाले पर्याप्त ख़रीदार। लेकिन केवल इजारेदार पूँजीपतियों को अकेले मज़दूर वर्ग की तक़लीफ़ों के लिए जिम्मेदार ठहराने वाले मूर्ख “मार्क्सवादी” राजनीतिक अर्थशास्त्र की इन बातों को नहीं समझते हैं और जाने-अनजाने इजारेदार पूँजीपति वर्ग के अतिरिक्त बाकी पूँजीपति वर्ग को दोषमुक्त कर देते हैं। इसका राजनीतिक नतीजा यह होता है कि वे पूँजीपति वर्ग के बाकी हिस्सों जैसे कि धनी व्यापारी, पूँजीवादी कुलक-फार्मर, छोटे पूँजीपतियों आदि के साथ मज़दूर वर्ग की दोस्ती और मोर्चे की बात करने लगते हैं। यह एक भयंकर सर्वहारा वर्ग विरोधी पूँजीवादी राजनीतिक लाइन है, जिसको बेनक़ाब करना और उसे नष्ट करना मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी ताक़तों का फ़र्ज है।
बहरहाल, जैसा कि हम आगे इस लेख में देखेंगे, मौजूदा दौर में, इजारेदार पूँजीपतियों द्वारा इजारेदार कीमतों के ज़रिए वसूला जाने वाला इजारेदार लगान महँगाई का आधारभूत कारण नहीं है। वजह यह कि जिन भी मालों की कीमतों में हम सबसे ज़्यादा महँगाई देख रहे हैं, उनके उत्पादन के क्षेत्र में ऐसा एकाधिकार मौजूद ही नहीं है कि कोई इजारेदार पूँजीपति इजारेदार कीमत को बाज़ार पर थोप सके। हुआ यह है कि कोविड लॉकडाउन और उसके बाद यूक्रेन युद्ध के कारण दुनिया भर में लगभग सभी बुनियादी मालों व सेवाओं की आपूर्ति श्रृंखला के अस्त-व्यस्त और भंग होने के कारण महज़ इजारेदार पूँजीपति वर्ग के पास ही नहीं, बल्कि आम तौर पर समूचे पूँजीपति वर्ग के पास मालों और सेवाओं पर ऊँची कीमतें वसूलने की क्षमता आ गयी है जो कि सीधे तौर पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अराजकता, युद्ध और मुनाफाखोरी के कारण माँग-आपूर्ति के समीकरण में पैदा हुए भारी असन्तुलन का ही परिणाम है।
संक्षेप में, मज़दूरी का बढ़ना दामों के बढ़ने का कारण नहीं है और न ही महज़ इजारेदार पूँजीपति वर्ग महँगाई का अकेले जिम्मेदार है, बल्कि समूचा पूँजीपति वर्ग ही मौजूदा आपदा को अवसर में बदलने में लगा है और आपूर्ति श्रृंखलाओं के टूटने और माँग-आपूर्ति के समीकरण में आपूर्ति की तुलना में माँग की सापेक्षिक बढ़ोत्तरी के कारण बढ़ी हुई कीमतों का लाभ उठा रहा है, जमाखोरी करके कीमतों को बढ़ा रहा है, सट्टेबाज़ी कर रहा है और समूचे मेहनतकश वर्ग को लूटने में लगा हुआ है।
मौजूदा दौर में अभूतपूर्व रूप से महँगाई के बढ़ने की इन ग़लत व्याख्याओं के खण्डन के बाद अब हम सकारात्मक तौर पर समझते हैं कि महँगाई के मौजूदा दौर में सारे रिकॉर्ड ध्वस्त करने के पीछे प्रमुख आधारभूत कारण क्या हैं।
महँगाई की वर्तमान लहर के पीछे मूलत: निम्न प्रमुख मूलभूत कारण मौजूद हैं:
पहला है पिछले डेढ़ दशकों से मुनाफे की गिरती औसत दर का संकट जिससे विश्व पूँजीवादी व्यवस्था लाख दावों के बावजूद उभरती नज़र नहीं आ रही है। कोविड महामारी और उसके कारण थोपे गये कुप्रबन्धित लॉकडाउन के पहले से ही भारत समेत दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ मुनाफे की गिरती औसत दर के संकट से जूझ रहीं थीं। मुनाफ़े की गिरती औसत दर का संकट पूँजीपति वर्ग की ही मुनाफ़े की अन्धी हवस से पैदा होता है। पूँजीपति वर्ग आपसी प्रतिस्पर्द्धा में भी लगा होता है और मज़दूर वर्ग से नये मूल्य में अपने यानी मुनाफे के हिस्से को बढ़ाने की होड़ में भी लगा होता है।
पूँजीपतियों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा होती है बाज़ार के बड़े से बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करना। जो पूँजीपति अपनी लागत को न्यूनातिन्यून करके अपनी कीमतों को ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी बना सकता है, वही अपने प्रतिद्वन्द्वियों को प्रतिस्पर्द्धा में पीछे छोड़कर बाज़ार के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर सकता है और अपने मुनाफे को बढ़ा सकता है। इसके लिए पूँजीपति वर्ग श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी व मशीनें लगाता है ताकि माल के उत्पादन की प्रति इकाई लागत को घटाया जा सके। जो पूँजीपति अन्य पूँजीपतियों को इसमें पीछे छोड़ता है, वह तात्कालिक तौर पर अपने माल को अन्य पूँजीपतियों की औसत लागत से कम लागत पर पैदा करता है और उनके औसत दाम से कुछ कम दाम पर बेच सकता है। ऐसे में, उसे तात्कालिक तौर पर एक बेशी मुनाफ़ा मिलता है क्योंकि बाज़ार कीमतें उत्पादन की औसत स्थितियों से तय होती हैं, जबकि इस पूँजीपति की उत्पादन की स्थितियाँ बेहतर होती हैं और इसलिए लागत अन्य पूँजीपतियों से कम होती है। जो पूँजीपति प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ते हैं, तबाह न होने की सूरत में, कालान्तर में वे भी उन्नत तकनोलॉजी व मशीनें लगाते हैं और अपनी लागत को कम करते हैं। अन्तत:, तकनोलॉजी के मामले में पैदा हुआ अन्तर समाप्त हो जाता है और पहले आगे निकलने वाले पूँजीपति का बेशी मुनाफ़ा भी समाप्त हो जाता है। प्रतिस्पर्द्धा की यह पूरी प्रक्रिया समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सतत् जारी रहती है। लेकिन मुनाफे को अधिकतम बनाने की अलग-अलग पूँजीपतियों की यह प्रतिस्पर्द्धा ही अन्त में समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की मुनाफे की औसत दर को गिराती है। कारण यह कि नया मूल्य और बेशी मूल्य (जो कि पूँजीपति वर्ग के मुनाफे का स्रोत होता है) केवल जीवित श्रम से ही पैदा होता है। मशीनें, कच्चा माल, इमारतें आदि नया मूल्य नहीं पैदा करतीं। वे केवल अपना मूल्य माल के मूल्य में स्थानान्तरित करती हैं। जब समूची अर्थव्यवस्था में पूँजीपति वर्ग की आपसी प्रतिस्पर्द्धा के कारण जीवित श्रम पर पूँजी निवेश सापेक्षिक तौर पर मृत श्रम यानी मशीनों, कच्चे माल आदि पर निवेश के मुकाबले कम होता है, तो मुनाफे की औसत दर में अन्तत: गिरावट आती है। यही नियमित अन्तरालों पर बार-बार आने वाले पूँजीवादी संकट का मूल कारण होता है।
इसके अलावा, समूचा पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग से भी प्रतिस्पर्द्धा में लगा होता है। यह प्रतिस्पर्द्धा होती है नये मूल्य में अपने हिस्से को बढ़ाने की। मशीनों, कच्चे माल आदि द्वारा पहले से उत्पादित मूल्य बस माल में स्थानान्तरित होते हैं, जबकि जीवित श्रम ख़र्च होने की प्रक्रिया में यानी मज़दूर उत्पादन करने की प्रक्रिया में अपनी श्रमशक्ति के मूल्य बराबर मूल्य पैदा करने के अलावा पूँजीपति के लिए बेशी मूल्य भी पैदा करते हैं। इसलिए नये उत्पादित मूल्य के दो ही हिस्से होते हैं: मज़दूरी और मुनाफ़ा। यदि मज़दूरी बढ़ती है, तो अन्य स्थितियों के समान रहने पर, मुनाफ़ा घटता है और यदि मुनाफ़ा बढ़ता है, तो अन्य स्थितियों के समान रहने पर, मज़दूरी घटती है। मज़दूर अपनी मज़दूरी को बढ़ाने के लिए संघर्ष करते हैं। पूँजीपति वर्ग उनकी मोलभाव की क्षमता को कम करने के लिए उन पर निर्भरता को घटाने का प्रयास करता है और उन्नत मशीनें व तकनोलॉजी लगाकर उनकी संख्या को सापेक्षिक तौर पर कम करता है। यानी प्रति यंत्र श्रमिक संख्या को घटाता है। इसके कारण भी उत्पादन की प्रक्रिया में जीवित श्रम सापेक्षत: कम होता जाता है और मृत श्रम पर निवेश बढ़ता जाता है, जो कि उन्हीं कारणों से मुनाफे की औसत दर को अन्तत: गिराता है, जिनका हमने ऊपर जिक्र किया है।
जब मुनाफे की औसत दर गिरती है, तो पूँजीपति वर्ग द्वारा निवेश की दर भी कम होती है क्योंकि पूँजीपति समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उत्पादन में निवेश नहीं करता है, बल्कि मुनाफे के लिए करता है। ऐसे में पूँजीपति वर्ग उत्पादन में निवेश करने की बजाय अपने पूँजी के आधिक्य को सट्टेबाज़ी और शेयर बाज़ार में खपाता है। निवेश की दर कम होने के साथ छँटनी होती है, नयी भर्तियाँ बेहद कम हो जाती हैं और नतीजतन रोज़गार की दर में कमी आती है। रोज़गार की दर में कमी आने के कारण मज़दूरों की रिज़र्व सेना मज़दूरों की सक्रिय सेना की तुलना में बढ़ती है और जैसे-जैसे श्रम की माँग के सापेक्ष श्रम की आपूर्ति बढ़ती है वैसे-वैसे औसत मज़दूरी में कमी आती है। औसत मज़दूरी में कमी आने के साथ-साथ, संकट के दौर में निवेश में कमी के साथ तमाम मालों व सेवाओं की आपूर्ति भी माँग की तुलना में घट सकती है। नतीजतन, उनकी बाज़ार कीमतों में बढ़ोत्तरी आ सकती है। इतना स्पष्ट है कि संकट के कारण मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी में कमी आती है और उनके लिए महँगाई की दर में बढ़ोत्तरी होती है।
मौजूदा दौर में कमरतोड़ महँगाई का दूसरा कारण, जिसने पहले से मुनाफे की गिरती औसत दर का संकट झेल रही पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को मन्दी के भँवर में और बुरी तरह से फँसा दिया, वह था 2019 में कोविड महामारी और उसके बाद दुनिया के अधिकांश देशों में पूँजीपति वर्ग द्वारा थोपे गये अनियोजित किस्म के लॉकडाउन। इन लॉकडाउनों ने पूरी दुनिया में पूँजीवादी उत्पादन और सर्कुलेशन की व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया। इसके कारण आपूर्ति श्रृंखलाएँ लगभग सभी क्षेत्रों में ही बाधित हुईं। इसके कारण बाज़ार में अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं की माँग और आपूर्ति में एक भारी असन्तुलन पैदा हुआ जिसके कारण उनकी कीमतें बढ़ने लगीं। लॉकडाउन के खुलने के साथ अचानक माँग में और भी वृद्धि आयी, जबकि उत्पादन और सर्कुलेशन की प्रक्रिया अभी सुचारू रूप से गति नहीं पकड़ पायी थी। खाद्य तेलों की कीमतों में पिछले वर्ष आया ज़बर्दस्त उछाल और उसमें अब तक बनी हुई तेज़ी के पीछे मूल कारण यही था। चीन की अर्थव्यवस्था के लॉकडाउन के खुलने के बाद वनस्पति तेलों की वैश्विक माँग में भारी कमी आयी थी, जबकि विश्व भर में वनस्पति तेलों के प्रमुख उत्पादक देशों में उत्पादन अभी गति नहीं पकड़ पाया था। नतीजतन, आपूर्ति माँग के सापेक्ष काफी कम हो गयी और वैश्विक बाज़ार में इसकी कीमतों में उछाल आया। भारत में इनकी कीमतों में और भी ज़्यादा बढ़ोत्तरी होने का एक कारण यह था कि भारत के तिलहन उत्पादक धनी किसानों व कुलकों तथा वनस्पति तेल उत्पादक पूँजीपतियों के दबाव के कारण वनस्पति तेल के आयात पर भारत सरकार ने 35 से 40 प्रतिशत तक का आयात शुल्क लगा रखा था, जिसे सरकार ने अभी हाल ही में कम किया है। ऊपर से भारत अपने खाद्य तेल उपभोग के 60 प्रतिशत से भी ज़्यादा के लिए आयात पर निर्भर है। नतीजतन, विश्व बाज़ार में कीमतों में पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता और पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़ाखोरी के कारण आये उछाल का असर भारत में खाद्य तेलों की कीमत पर काफी ज़ोरदार तरीके से पड़ा। इसी प्रकार अन्य कई बुनियादी आवश्यक उत्पादों की कीमतों में वृद्धि का एक तात्कालिक कारण कोविड महामारी के पूरे दौर में आपूर्ति श्रृंखलाओं का टूटना था। ठीक इसी दौर में पूँजीपतियों ने मालों की कीमत को अधिक बढ़ाने का काम किया क्योंकि बढ़ी सापेक्षिक माँग के कारण उनके पास यह क्षमता थी कि वे अपने मालों पर ऊँची कीमतें वसूल सकते थे।
यहाँ दो बातें ग़ौर करने लायक हैं। पहला यह कि यह काम केवल बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग ने नहीं किया बल्कि पूँजीवादी कुलकों-फार्मरों, व्यापारियों व बिचौलियों समेत सभी पूँजीपतियों ने किया। पूँजीपति इसी प्रकार आपदा को अवसर में बदलते हैं। दूसरा यह कि महँगाई का आधारभूत कारण इजारेदार कीमतें नहीं थीं, बल्कि सापेक्षिक माँग में अनपेक्षित बढ़ोत्तरी के कारण कीमतों में आया उछाल था। यह प्रक्रिया चीन में हाल ही में लगे दूसरे लॉकडाउन के दौर तक जारी रही है और अभी भी जारी है।
तीसरा कारण, जिसने बहुत से बुनियादी मालों की आपूर्ति श्रृंखलाओं को और भी ज़्यादा बाधित किया वह है रूस-यूक्रेन युद्ध। रूस तेल व प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करने वाला एक प्रमुख देश है। यूरोप के अधिकांश देश अपनी ऊर्जा-सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिए रूस से आपूर्ति पर निर्भर करते हैं। रूस से आपूर्ति के बाधित होने के कारण विश्व बाज़ार में तेल व प्राकृतिक गैस की कीमतों में उछाल आया है। तेल व प्राकृतिक गैस की कीमतों में उछाल का अर्थ है सभी मालों की कीमतों में उछाल क्योंकि ये उत्पाद कई अन्य उत्पादों के उत्पादन में कच्चे माल के रूप में शामिल होते हैं और साथ ही परिवहन की पूरी व्यवस्था इन पर निर्भर करती है। लिहाज़ा हर वस्तु के परिवहन की लागत में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई जिसके कारण सभी मालों व सेवाओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी हुई है। इसके अलावा, रूस और यूक्रेन मिलकर दुनिया भर में गेहूँ की आपूर्ति के बड़े हिस्से के लिए उत्तरदायी हैं। यूक्रेन सूरमुजखी और मक्के का भी भारी पैमाने पर निर्यात करता है। युद्ध ने विश्व बाज़ार में इन खाद्य मालों की आपूर्ति में भी भारी कमी लायी जिसके कारण इन बुनियादी मालों की कीमतों में भी भारी उछाल आया है। इसके कारण, समूचा पूँजीपति वर्ग ही तमाम देशों में इसका फ़ायदा उठा रहा है। भारत में भी गेहूँ उत्पादन करने वाले पूँजीवादी कुलकों-फार्मरों ने लाभकारी मूल्य पर गेहूँ सरकारी मण्डी में बेचने की बजाय खुले बाज़ार में 30 से 40 प्रतिशत ऊपर कीमतों पर बेचा। वहीं व्यापारियों व बिचौलियों ने ऊँची कीमतों पर निर्यात की उम्मीद में गेहूँ की बड़े पैमाने पर जमाखोरी की। इस साल गेहूँ के उत्पादन में भी गर्मी की भीषण लहर के कारण कमी आयी और वह अनुमान से कम रहा। पहले मोदी ने दुनिया के अन्य पूँजीवादी देशों को आश्वासन दिया कि रूस और यूक्रेन से गेहूँ की आपूर्ति में जो कमी आयी है, उसे “विश्व गुरू” भारत पूरा करेगा! लेकिन जब गेहूँ के उत्पादन में कमी आयी, सरकारी ख़रीद में कमी आयी और देश में गेहूँ व आटे के दाम आसमान छूने के कारण सामाजिक असन्तोष पैदा हुआ, तो “विश्व गुरू” की हवा निकल गयी! इसके बाद मोदी द्वारा देश में गेहूँ की कमी का ख़तरा पैदा होने पर गेहूँ के निर्यात पर रोक लगाने की नौटंकी की गयी। लेकिन इसके बावजूद ये व्यापारी और बिचौलिये अभी भी गेहूँ की जमाखोरी करके बैठे हैं और घरेलू बाज़ार में कीमतों को ऊँचा करने में लगे हुए हैं। सरकारी ख़रीद कम होने के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए गेहूँ के वितरण में भी कमी आयी है और नतीजतन गेहूँ और आटे की कीमत घरेलू बाज़ार में भी काफ़ी तेज़ी से बढ़ी है। खाद्यान्न के व्यापार व संसाधन में लगे बड़े पूँजीपति भी इसका पूरा फ़ायदा उठाने में लगे हुए हैं। गेहूँ व अन्य खाद्यान्न समेत सब्जियों व खाद्य तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी की मार सीधे सबसे ग़रीब मेहनतकश आबादी पर पड़ रही है। पूँजीपति वर्ग के लिए भी एक स्तर तक मुद्रास्फीति का बढ़ना अच्छा होता है। लेकिन जब यह एक सीमा से ऊपर जाती है, तो यह मज़दूरी को बढ़ाने का दबाव भी पैदा करता है जो कि उनके मुनाफे की औसत दर में गिरावट ला सकता है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने गेहूँ के निर्यात पर पाबन्दी लगा दी ताकि गेहूँ की कीमतों पर नियन्त्रण पाया जा सके। साथ ही, वनस्पति तेलों पर लगने वाले आयात शुल्क में भी कमी की गयी है ताकि वनस्पति तेलों का सस्ता आयात किया जाये क्योंकि भारत अपनी खाद्य तेल आवश्यकताओं के 60 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्से के लिए आयात पर निर्भर है। लेकिन फिलहाल मोदी सरकार के ये कदम कामयाब नहीं हो रहे हैं क्योंकि पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़ाखोरी हमेशा पूँजीवादी सरकार के नियन्त्रण में नहीं रहती और इसके अलावा स्वयं पूँजीपति वर्ग बाज़ार को नियन्त्रित नहीं करता है बल्कि बाज़ार की अपनी एक गति होती है जो पूँजीपति वर्ग को नियन्त्रित करती है।
महँगाई का भारत में चौथा और कुछ मायने में सबसे अहम कारण पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले भारी कर और शुल्क हैं। जनता को एक लीटर पेट्रेाल व डीज़ल पर पिछले एक वर्ष में 27 से लेकर 32 रुपये तक टैक्स देना पड़ा है। यानी पेट्रेाल व डीज़ल की कीमतों पर 30 से 40 प्रतिशत जनता केवल टैक्स के रूप में पूँजीवादी सरकार को चुकाती है। दिसम्बर 2021 के आँकड़े के अनुसार, भारत सरकार ने 2018 से 2021 के बीच तीन वित्तीय वर्षों में इन टैक्सों के ज़रिए रु. 8 लाख करोड़ की भारी कमाई की। पूँजीवादी सरकार व नेताशाही द्वारा इस मुनाफ़ाखोरी के ज़रिए देश की जनता की जेब पर भारी डाका डाला जाता है। यह देश के आर्थिक अधिशेष से सरकार द्वारा निचोड़ा जाने वाला कर है जिसका बोझ सीधे सबसे ग़रीब जनता पर पड़ता है। इसके कारण, देश में सभी वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन की लागत में बढ़ोत्तरी होती है और इस बढ़ोत्तरी को पूँजीपति अपनी जेब से नहीं चुकाते हैं बल्कि अपने माल की कीमत में स्थानान्तरित करते हैं। नतीजतन, देश में आम तौर पर महँगाई का सबसे प्रमुख कारण पेट्रोलियम उत्पादों पर वसूला जा रहा भारी कर है। अभी हाल ही में मोदी सरकार ने पेट्रेाल व डीज़ल के दामों में करीब 10 रुपये की कटौती की है। इसका एक बुनियादी आर्थिक कारण यह है कि एक सीमा से ज़्यादा मुद्रास्फीति पूँजीपति वर्ग के लिए भी अच्छी नहीं होती है, जिसकी व्याख्या हम ऊपर कर चुके हैं। लेकिन तात्कालिक तौर पर इसका प्रमुख कारण है गुजरात और हिमाचल प्रदेश और बाद में कर्नाटक जैसे राज्यों में करीब आ रहे विधानसभा चुनाव। इन दोनों आर्थिक व राजनीतिक कारणों से मोदी सरकार ने पेट्रोल व डीज़ल के दामों में कटौती की है। लेकिन इसकी वजह से महँगाई में जो कमी आती है, पूँजीपति वर्ग उसका भी इस्तेमाल मज़दूर वर्ग की मज़दूरी को कम करने के लिए करता है।
इसके अलावा, पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों का एक स्कूल मुद्रा की आपूर्ति को महँगाई के बढ़ने-घटने का प्रमुख कारण मानता है। इस स्कूल को मॉनिटरिस्ट या मौद्रिकतावादी स्कूल कहा जाता है। मूलत: उसका मानना है कि मुद्रा की आपूर्ति बढ़ने पर महँगाई बढ़ती है क्योंकि तब मुद्रा का अवमूल्यन हो जाता है, जबकि मुद्रा की आपूर्ति को घटाने पर महँगाई कम होती है क्योंकि मुद्रा का मूल्य बढ़ता है। अधिकांश पूँजीवादी देशों के केन्द्रीय सरकारी बैंक इस मूर्खतापूर्ण अवधारणा पर अमल करते हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी हाल ही में ब्याज़ दर बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में तरलता यानी मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करने का रास्ता अख्तियार किया है। लेकिन इतिहास गवाह है कि मुद्रा की आपूर्ति अन्तत: वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था द्वारा नियंत्रित होती है न कि वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था मुद्रा की आपूर्ति से निर्धारित होती है। 2008-09 में जब आर्थिक संकट के कारण दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में तरलता की कमी आयी थी तो स्टिम्युलस पैकेज देने के नाम पर अधिकांश देशों में केन्द्रीय बैंकों ने बड़े पैमाने पर मुद्रा बाज़ार में डाली थी। लेकिन इसके कारण आम तौर पर महँगाई में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी, उल्टे मुद्रास्फीति की दर में अमेरिका और यूरोप के प्रमुख पूँजीवादी देशों में कमी आयी थी। केवल स्टॉक बाज़ार में स्टॉकों की कीमत बढ़ी थी और अचल सम्पत्ति यानी रियल एस्टेट में कीमतों में उछाल आया था क्योंकि यह सारी अतिरिक्त मुद्रा सट्टेबाज़ी में गयी थी न कि उत्पादक अर्थव्यवस्था में। कागज़ी नोटों के रूप में मुद्रा की आपूर्ति बढ़ने या घटने का कीमतों पर केवल तात्कालिक तौर पर ही कुछ प्रभाव पड़ सकता है। आखिरकार यह वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था की स्थिति और गति होती है जो कि मालों की कीमतों, यानी आम तौर पर महँगाई के स्तर का निर्धारण करती है। भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करने का भी बस इतना ही असर पड़ेगा कि पूँजी बाज़ार में ऋण की कीमत बढ़ेगी, जो कि निवेश की दर में और भी कमी लायेगी, बेरोज़गारी को और बढ़ाएगी, कुल घरेलू माँग में कमी आने के साथ अर्थव्यवस्था संकट के भँवर में और भी बुरी तरह से उलझेगी।
इसी प्रकार पूँजीवाद को पूँजीवाद से बचाने के प्रयासों में लगा जॉन मेनॉर्ड कींस के शिष्यों का भी एक स्कूल है जिसके अनुसार महँगाई बढ़ने का कारण रोज़गार की दर ऊँची होना है, जो कि औसत मज़दूरी को बढ़ा देता है और इस प्रकार लागत को बढ़ाकर दामों को बढ़ा देता है! हम पहले ही देख चुके हैं कि इस सिद्धान्त का सच्चाई से कोई रिश्ता नहीं है। 1970 के दशक में शुरू हुई मन्दी के दौरान भी हमने देखा है और इक्कीसवीं सदी की पहली महामन्दी के पूरे दौर में भी हम देख रहे हैं कि महँगाई की ऊँची दरें रोज़गार व औसत मज़दूरी की ऊँची दरों के कारण नहीं पैदा हुई हैं, उल्टे महँगाई की ऊँची दरों के साथ हम अर्थव्यवस्था के ठहराव, बेरोज़गारी और घटती औसत मज़दूरी दर के साक्षी बन रहे हैं। जैसा कि मार्क्स ने बताया था, अन्य कारकों के समान रहने पर, ऊँची मज़दूरी केवल निम्न मुनाफ़े की दर का कारण बनती है, न कि दामों के बढ़ने का। इस बात को आर्थिक आँकड़ों से सिद्ध किया जा सकता है। कींसवादियों और मौद्रिकतावादियों की इन ग़लत व्याख्याओं का वर्गीय प्रकार्य है बेरोज़गारी और महँगाई के लिए पूँजीवाद को दोषमुक्त किया जाय और इसका बोझ मज़दूर वर्ग या मौद्रिक नीति पर डालकर पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता, मुनाफ़ाखोरी और मानवद्रोही चरित्र को छिपाया जाय। अफ़सोस और विडम्बना की बात है कि कई तथाकथित मार्क्सवादी भी महँगाई और बेरोज़गारी की इन छद्म व्याख्याओं से प्रभावित हो जाते हैं और उन्हें मार्क्सवादी व्याख्याओं के रूप में पेश करते हैं।
ऊपर हमने जिन चार कारणों का जिक्र किया है वे महँगाई में मौजूदा दौर में आयी ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी के लिए मुख्यत: और मूलत: जिम्मेदार हैं। ये पूँजीवादी व्यवस्था की देन है न कि कोई प्राकृतिक आपदा। पूँजीवादी व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं किया जाता। उनका उत्पादन मालों के रूप में होता है और उत्पादन का मकसद होता है मुट्ठी भर पूँजीपतियों और धन्नासेठों का मुनाफ़ा, जिनका उत्पादन के साधनों पर मालिकाना होता है। एक ऐसी व्यवस्था में समाज की आवश्यकताओं का आकलन कर योजनाबद्ध तरीके से श्रम का आबण्टन कर उत्पादन नहीं किया जाता। पूँजीपति वर्ग आपस में अधिक से अधिक मुनाफ़े के लिए प्रतिस्पर्द्धा करता है और सामाजिक तौर पर अराजकतापूर्ण तरीके से सभी मालों का उत्पादन होता है। यह व्यवस्था नियमित अन्तराल पर इसी मुनाफे की हवस के कारण मुनाफे की गिरती औसत दर के संकट की शिकार होती है जिसका ख़ामियाजा भी सबसे ज़्यादा मेहनतकश आबादी को ही उठाना पड़ता है। निश्चित तौर पर, ऐसे संकट के दौर में छोटे और मँझोले पूँजीपति तबाह होते हैं, कुछ बड़े पूँजीपति भी तबाह होते हैं, पूँजी कम से कम हाथों में केन्द्रित होती है और इसी की प्रतिसन्तुलनकारी गति के तौर पर कुछ नये बड़े पूँजीपति भी पैदा होते हैं और पूँजीवादी घरानों के टूटने के कारण भी नये पूँजीपति पैदा होते हैं। नतीजतन, पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजी के एकाधिकारीकरण की प्रक्रिया हमेशा एक रुझान के तौर पर मौजूद रहती है और वह कभी पूर्ण एकाधिकारीकरण तक नहीं पहुँच सकती है। बिना प्रतिस्पर्द्धा के पूँजीवाद सम्भव ही नहीं है और एकाधिकारीकरण बढ़ने के साथ भी प्रतिस्पर्द्धा समाप्त नहीं होती, बल्कि बड़े पूँजीपतियों के बीच और भी अधिक तीखी और हिंस्र होती जाती है। यही कारण है कि आम तौर पर समूची अर्थव्यवस्था में महँगाई के बढ़ने का कारण मूलत: और मुख्यत: कभी इजारेदार पूँजीपतियों द्वारा इजारेदार कीमतों के ज़रिए लूटा जाने वाला इजारेदार लगान नहीं होता है। इजारेदार लगान के ज़रिए समूची पूँजीवादी व्यवस्था के पैमाने पर केवल दो चीज़ें होती हैं: पहला, अन्य सेक्टरों से इजारेदारी वाले सेक्टरों में मूल्य का स्थानान्तरण और दूसरा, आम मेहनतकश जनता की औसत कमाई में एक सीमा तक कटौती। पूरी अर्थव्यवस्था के पैमाने पर उतना मूल्य ही वास्तवीकृत हो सकता है, जितना कि पैदा होता है। आज के दौर में भी महँगाई का कारण कुछ इजारेदार पूँजीपतियों द्वारा इजारेदार लगान की वसूली नहीं है बल्कि आर्थिक संकट के दौर में, जो कि कोविड व युद्ध जैसे बाह्य कारणों के चलते और भी गहरा गया है, पूँजीपति वर्ग द्वारा आपदा को अवसर में बदला जाना है। और यह काम केवल बड़े पूँजीपति नहीं कर रहे हैं, बल्कि धनी किसानों-कुलकों, व्यापारियों, आढ़तियों, बिचौलियों जैसे छोटे व मँझोले पूँजीपतियों से लेकर अदानी, अम्बानी आदि जैसे बड़े पूँजीपतियों तक, समूचे पूँजीपति वर्ग द्वारा किया जा रहा है।
जब संकट के दौर में कुल उत्पादित नये मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा बढ़ती बेरोज़गारी, मज़दूर अधिकारों पर हमले और पूँजीपति वर्ग द्वारा वास्तविक मज़दूरी को घटाये जाने के कारण घटता है, तो मुनाफे का हिस्सा जाहिरा तौर पर बढ़ता है। यदि कुल उत्पादित नया मूल्य घट भी रहा हो, यानी उत्पादन में संकट के दौर में कमी भी आ रही हो, तो भी बेरोज़गारी व मज़दूरों की बढ़ती रिजर्व सेना के कारण औसत मज़दूरी में कमी आने की सूरत में मुनाफे का हिस्सा सापेक्षिक तौर पर और निरपेक्ष तौर पर भी बढ़ सकता है। मौजूदा संकट के दौर में यह हुआ भी है। कुल नये उत्पादित मूल्य में (जो कि अभी भी कोविड महामारी के पहले के स्तर से काफी कम है) मज़दूरी के हिस्से में भारी कमी आने के कारण मुनाफे का हिस्सा बढ़ा है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह हिस्सा इजारेदार पूँजीपतियों के लिए ही बढ़ा है या फिर यह उनके द्वारा इजारेदार लगान वसूलने के कारण बढ़ा है। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि मुनाफे की गिरती औसत दर के कारण निवेश की दर में कमी और बेरोज़गारी में बढ़ोत्तरी व मज़दूर वर्ग के अधिकारों पर हमले के फलस्वरूप औसत मज़दूरी में आयी कमी है। इसके साथ, बाह्य कारणों के चलते उत्पादन व आपूर्ति में कमी ने मालों की बाज़ार कीमतों को अभूतपूर्व रूप से बढ़ाया है। लिहाज़ा, कुल उत्पादित नये मूल्य के कोविड पूर्व स्तर से अभी भी पर्याप्त नीचे होने के बावजूद भी मुनाफे का उसमें हिस्सा मज़दूरी की तुलना में बढ़ा है, मज़दूर वर्ग की औसत आय में कमी आयी है और नतीजतन आम मेहनतकश आबादी के लिए महँगाई विशेष तौर पर बढ़ी है। साथ ही, आर्थिक संकट और कोविड व युद्ध के बाह्य झटकों के कारण आपूर्ति श्रृंखलाओं के बाधित होने के कारण भी आम तौर पर सभी मालों की कीमतों में बढ़ोत्तरी आयी है और इसका बोझ भी सबसे ज़्यादा मेहनतकश जनता को उठाना पड़ रहा है, जबकि समूचा पूँजीपति वर्ग इस आपदा को अवसर में तब्दील करने में लगा हुआ है।
यह मौजूदा दौर में महँगाई के अभूतपूर्व रूप से बढ़ने के मूल कारण हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अराजकता और मुनाफ़ाखोरी के कारण ऐसे दौर पूँजीवादी व्यवस्था में आते ही रहते हैं और हर बार उसका बोझ मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता पर ही पड़ता है। ऐसी व्यवस्था में आप और किसी बात की उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं। इस आर्थिक अनिश्चितता और सामाजिक असुरक्षा से समाजवादी व्यवस्था ही मज़दूर वर्ग और आम जनता को निजात दिला सकती है।