अग्नि आलोक
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कहीं देर ना हो जाए?

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शशिकांत गुप्ते

सन 1955 में प्रदर्शित फ़िल्म श्री 420 के इस गीत की इन पंक्तियों का स्मरण हुआ गीत के गीतकार शैलेन्द्रजी हैं।
स्वतंत्रता प्रप्ति के पिचहत्तर वर्षो बाद भी देश के आमजन की स्थिति का यथार्थ इन पंक्तियों में निहित है।
ग़म से अभी आज़ाद नहीं मैं
ख़ुश हूँ मगर आबाद नहीं मैं
मंज़िल मेरे पास खड़ी है
पाँव में लेकिन बेड़ी पड़ी है
टांग अड़ाता है दौलतवाला
इस गीत का प्रारम्भ इन पंक्तियों से होता है।
दिल का हाल सुने दिलवाला
सीधी सी बात न मिर्च मसाला
कहके रहेगा कहनेवाला
दिल का हाल सुने दिलवाला

इनदिनों आमजन को अपने दिल का हाल कहने के पूर्व सोचना पड़ता है।
आमजन मतलब आमआदमी इनदिनों आमआदमी बोलते ही लोग सफाई के लिए उपयोग में आने वाली झाड़ू तक पहुँच जातें हैं। लोगों में मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी का लुफ्त उठाने लालसा जागृत हो जाती है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पिचहत्तर वा वर्ष बुलडोजर वर्ष में परिवर्तित हो गया है।
देश के बेरोजगार युवाओं को हरतरह की अग्निपरीक्षा से गुजरने बाद भी जीवन में युवावस्था के सिर्फ चार वर्षों के लिए रोजगार प्राप्त होने का गौरव प्राप्त होगा।
देश की वर्तमान स्थिति पर गम्भीरता से विचार करते हुए, अचानक 9 सितंबर 1850 में काशी में जन्मे परिवर्तनकारी कवि,लेखक विचारक, और चिंतक भारतेंदु हरिश्चंद्र के द्वारा लिखी अंधेर नगरी चौपट राजा कहानी का स्मरण हुआ।
प्राचीन समय की बात है कोशी नदी के तट पर एक संत अपने शिष्य के साथ रहते थे। दोनों का अधिकांश समय भगवान के भजन कीर्तन में ही व्यतीत होता था।
एक बार दोनों देश भ्रमण पर चल पड़े। घूमते घूमते वो एक अनजान देश पहुँच गए। वहाँ जाकर एक बगीचे में दोने ने अपना डेरा जमा लिया। गुरु जी ने शिष्य गंगाधर को एक टका देकर कहा बेटा बाजार जाकर कुछ सब्जी भाजी लावो।
शिष्य गंगाधर जब बाजार पहुंचा तो उसे, बाजार देख कर हैरानी हुई। उस बाजार में सभी बस्तुए टके सेर के भाव बिक रही थी। क्या साग क्या पनीर क्या मिष्ठान सब एक टके में एक सेर के भाव से बिक रहे थे।
अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा (खाजा एक प्रकार का मिष्ठान है)
शिष्य ने सोचा सब्जियाँ तो रोज ही खाते हैं आज मिठाई ही खा लेते हैं। शिष्य ने टेक सेर के भाव से मिष्ठान ही खरीद लिए। मिठाई लेकर ख़ुशी ख़ुशी ओ अपने कुटिया पर पहुंचा। उसने गुरु जी को बाजार का सारा हाल सुनाया। गुरु जी ध्यानमग्न होकर कुछ सोच कर बोले ! वत्स जितना जल्दी हो सके हमें ये नगर और देश त्याग देना चाहिए। शिष्य गंगाधर ये अंधेर नगरी है और यहाँ का राजा महा चौपट है। यहाँ रहने से कभी भी हमारे जान को खतरा हो सकता है और हमें न्याय भी नहीं मिलेगा।
परन्तु शिष्य को गुरु जी का यह सुझाव बिल्कुल पसंद नहीं था। क्योंकि उसे यहाँ सभी महंगे महंगे खाद्य पदार्थ मिष्ठान आदि सभी सस्ते में मिल रहे थे। वह यहाँ कुछ दिन और रहना चाहता था।
गुरु जी को शिष्य के व्यवहार पर हंसी आ गयी। गुरूजी ने कहा ठीक है बेटा तुम यहाँ कुछ दिन और ठहरो और मिष्ठान आदि खा लो। और कोई संकट आये तो मुझे याद करना। यह कह कर गुरु जी ने वह स्थान त्याग दिया।
गंगाधर रोज प्रातः भिक्षाटन को निकलता और भीख में जो एक दो रुपये मिलते उनसे अच्छी स्वादिष्ट मिठाईयाँ खरीद कर खाता। इस प्रकार कई मास गुजर गए। स्वादिष्ट मिठाई आदि खा पीकर वह काफी मोटा तगड़ा हो गया।
एक दिन गरीब विधवा कलावती की बकरी पंडित दीनदयाल की खेत की फसल चर रही थी। दीनदयाल ने बकरी को डंडे से मारा बकरी मर गयी। कलावती ने राजा के सामने गुहार लगायी। राजा ने फैसला सुनाया जान के बदले जान दीनदयाल को फांसी पर चढ़ा दो।
जल्लाद दीनदायल को फाँसी की फंदे पर चढ़ाने लगा। दीनदयाल काफी दुबला पतला था सो उसके गले में फांसी का फंदा नहीं आ रहा था। जल्लाद ने राजा से अपनी परेशानी जताई। राजा ने कहा नगर में जिस किसके गले में ये फंदा ठीक बैठता हो उस मोटे व्यक्ति की तलाश करो।
अपराधी की तलाश शुरू हुई।
जल्लाद, कोतवाल को लेकर ऐसे व्यकि की तलाश में निकल पड़ा। खोजते खोजते कोतवाल गंगाधर की कुटिया पर पहुंचा। संयोग वश फाँसी का फंदा गंगाधर के गले में फिट आ गया। अब कोतवाल राजा के दरबार में उसे पकड़ लाया।
फाँसी देने से पहले राजा ने गंगाधर से उसकी अंतिम इच्छा पूछा। गंगाधर ने अपने गुरु से मिलने की इच्छा जताई। गंगाधर के गुरु को बुलाया गया।
गुरु अपने पोथी के साथ अपने शिष्य के पास आये। गुरु ने पोथी से कुछ देख कर बताया। आज तो बहुत शुभ मुहूर्त है। आज के दिन जो मरेगा वो स्वर्ग का राजा होगा स्वर्ग का सुख भोगेगा।
मेरे प्यारे शिष्य गंगाधर अब तक मैंने तुमसे कुछ भी गुरु दक्षिणा में नहीं लिया। आज मैं तुमसे ये गुरु दक्षिणा चाहता हूँ। तू मुझे स्वर्ग का राजा बनने का अवसर दो और फाँसी पर मुझे चढ़ने दो। गुरु की बात सुनकर शिष्य ने कहा गुरूजी दक्षिणा में आप कुछ और ले लीजिये लेकिन मैं स्वर्ग के सुख से वंचित नहीं होना चाहता।
गुरु और शिष्य के बीच बहस को सुनकर राजा ने दोनों को अपने निकट बुलाया और बहस का कारण पूछा ?
गुरु के मुख से जब राजा ने सुना की आज मरने वाले को स्वर्ग का राज मिलेगा तो वह चौक गया। राजा सोचने लगा जल्लाद मेरा फांसी का फंदा मेरा और स्वर्ग में जाने की चाह गुरु चेले की।
ऐसा बोलकर वह खुद फांसी के फंदे पर चढ़ गया। अब अंधेर नगरी का चौपट राजा सदा के लिए समाप्त हो गया था।
गुरु जी ने शिष्य से कहा वत्स गंगाधर अब इस अंधेर नगरी के चौपट राजा नहीं रहे। अब यहाँ टके सेर में भाजी और टके सेर में खाजा मिठाई नहीं मिलेगी। हर किसी व्यक्ति वस्तु का उचित मूल्यांकन होगा। इस राज्य की बागडोर अब तुम संभाल लो और मैं मंत्री के रूप में तुम्हे उचित मार्गदर्शन किया करूँगा।
क्या हक़ीक़त में ऐसा कोई मंत्री मिलेगा?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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