राम अयोध्या सिंह
621 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज के नीचे दबा भारत भी अपने को विश्वगुरु और विश्वशक्ति बनने का ख्वाब देखे, यह आत्म प्रवंचना और पागलपन छोड़ और कुछ नहीं है. इससे भी बड़ा आश्चर्य तो यह है कि यहां का प्रधानमंत्री अपने को अमेरिका के राष्ट्रपति के बराबर समझता है और अपने शानो-शौकत के लिए पैसे पानी की तरह बहा रहा है. एक साल के अन्तर्गत भारत को 267 अरब डॉलर हर हाल में चुकता भी करना है. कहीं इसीलिए तो नहीं भारतीयों को भीख मांगने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया जा रहा है ?
ऐसी स्थिति में भारत के पास दो ही विकल्प शेष हैं – या तो वह दिवालिया होकर हमेशा के लिए अमेरिका का गुलाम बन जाए, या फिर जनाक्रोश की आग में तपकर एक नए भारत की शुरुआत हो. संभावना का प्रतिशत फिफ्टी-फिफ्टी ही है. भारत का दुर्भाग्य अभी लंबे समय तक इसका पीछा नहीं छोड़ेगा. गुलामी का आनंद लेने वाली जनता का यही हस्र होता है.
किसी भी देश में एक लोकतांत्रिक सरकार की उपस्थिति के लिए संसद में जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों का बहुमत ही आवश्यक नहीं होता, अपितु यह भी आवश्यक होता है कि वह सरकार संवैधानिक प्रावधानों, नियमों और परिनियमों के साथ ही लोकतांत्रिक मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों और परंपराओं के अनुपालन के लिए भी प्रतिबद्ध हो.
इनमें सबसे महत्वपूर्ण है अभिव्यक्ति और समाचारपत्रों की स्वतंत्रता की अभिरक्षा. भारत के केन्द्र में स्थापित मोदी सरकार अपने शुरूआती कार्यकाल से ही संविधान और लोकतंत्र को ठेंगा दिखाने का काम करती आ रही है. एक-एक कर संविधान और संवैधानिक संस्थाओं और प्रावधानों की उपेक्षा करने के साथ ही उनकी मर्यादा को भी तार-तार किया जाता रहा है.
लोकतंत्र को अपने प्रतिकूल मानते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों और परंपराओं को रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता रहा. विरोध के स्वर को दबाने से लेकर अपने तमाम विरोधियों के अस्तित्व को नकारने एवं उसे हमेशा के लिए मटियामेट करने के सारे हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं.
सरकार के खिलाफ आवाज उठाने, उसकी आलोचना करने, हड़ताल करने, सरकार की जनविरोधी नीतियों, निर्णयों और कार्ययोजनाओं के खिलाफ जनांदोलन एवं जनसंघर्ष करने वाले तथा सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल देने के साथ ही उनकी हत्या करना भी सरकार की नीतियों में शामिल है.
ताजातरीन मामला मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी का है, जिसे बिना किसी वाजिब आधार के गिरफ्तार कर लिया गया है. ऐसे मामले हजारों की संख्या में हैं, जो वर्तमान सरकार की अलोकतांत्रिक चरित्र को उद्घाटित करने के लिए पर्याप्त है. क्या नागरिक अधिकारों का दमन और शमन कर कोई सरकार अपने को लोकतांत्रिक कह सकती है ? अगर कोई भी सरकार ऐसा करती है तो यह परले दरजे का फासीवादी रवैया है और सरकार के फासीवादी चरित्र को उजागर करती है.
महज संसद में बहुमत के आधार पर वह अपने को लोकतांत्रिक साबित नहीं कर सकती. सरकार की चाल, चरित्र और चेहरा भी लोकतांत्रिक होना चाहिए, और साथ ही उसे लोकतांत्रिक मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों और परंपराओं के अनुपालन के लिए प्रतिबद्ध और कटिबद्ध भी होना चाहिए अन्यथा लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है.
भारत सरकार के इस दोहरे मापदंड और अलोकतांत्रिक रवैये का यूरोपीय संघ और खासकर जर्मनी ने खुलकर आलोचना की है. इसके पहले भी अमेरिकी समाचारपत्रों के समूह ने भारत में पत्रकारों पर लगातार हो रहे हमलों तथा अभिव्यक्ति के अधिकार के खिलाफ सरकारी रवैये पर तीखी नाराजगी जाहिर की थी. दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों तथा विरोधियों के खिलाफ लगातार आक्रामक रवैया अपनाकर सरकार अपने अलोकतांत्रिक चरित्र को ही साबित कर रही है. सचमुच यह भारत के लिए एक शर्मनाक स्थिति है.
एक तरफ तो सरकार भारत को दुनिया का सबसे बड़ा और अच्छा लोकतांत्रिक देश घोषित करती है और दूसरी तरफ खुद ही लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया, आदर्शों, मूल्यों और परंपराओं का हनन करती जा रही है. यह सरकार के दोहरे चरित्र और दोहरे मानदंड को ही अभिव्यक्त करती है.
‘प्रतिभा एक डायरी’ से