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फ़ौजी ख़र्चे के नाम पर बर्बाद हो रही है मेहनतकश जनता की दौलत

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रविंदर

दुनिया-भर में जो कुछ भी है, अनाज, कोयला, सड़कें, तेल, प्राकृतिक संसाधनों के अथाह भंडार, इनका मालिक कौन है ? क्या मुट्ठी-भर लोग इनके मालिक हैं ? क्या कोयले पर मालि‍की कोयले की खदान के मालिक की है या फिर जनता की ? इस धरती की छाती को जोतकर, संवारकर इसे इंसानों के रहने लायक़ बनाने के लिए सदियों से इंसानों की अनेक पीढ़ियों के श्रम का योगदान रहा है. अनेकों लोग इस धरती की कायापलट के लिए लगातार हाथों से श्रम करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं. बंजर भूमि को खेती लायक़ बनाना, पहाड़ों को चीरकर सड़कें निकालना, पानी के बहाव को मोड़कर मानवता ने महान निर्माण कार्य किए हैं.

इसमें सभी इंसानों का सामूहिक श्रम शामिल है, ना कि यह किसी व्यक्ति-विशेष की मिल्कियत है. परंतु फिर भी इस सामाजिक दौलत को तबाह करने वाले मुट्ठी-भर लुटेरे शासक, साम्राज्यवादी देशों के शासक सिर्फ़ और सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए दुनिया-भर के लोगों को युद्धों, हथियारों की भट्टी में लगातार झोंकते रहते हैं. पाठकों को बता दें कि मौजूदा समय में संसार के सकल घरेलू उत्पादन का बड़ा हिस्सा ना तो शिक्षा, ना स्वास्थ्य देखभाल, ना ही रोज़गार के नए मौक़े पैदा करने पर और ना ही पर्यावरण की देखभाल पर ख़र्च होता है, बल्कि इसका बड़ा हिस्सा हथियार बनाने, हथियार ख़रीदने, फ़ौजी ख़र्चों आदि पर लगता है.

विश्व साम्राज्यवादी देशों के शासक आम लोगों के ख़ून-पसीने की कमाई को हथियारों, जिसमें पिस्तौल, बंदूक़ें, मशीनगनें, असाल्टें, शूट-गनें, स्नाइपर राइफ़लें, हथगोले आदि छोटे हथियारों से लेकर एंटी टैंक हथियार, एंटी टैंक मिसाइल, एंटी एयरक्राफ़्ट मिसाइल, रॉकेट लॉन्चर, बैलिस्टिक मिसाइल, मोबाइल मिसाइल, हर तरह के टैंक, लड़ाकू जहाज़, हेलीकॉप्टर आदि बड़े हथियारों और साइबर सुरक्षा तक के कारोबार के द्वारा दिन दुगनी रात चौगुनी खर्च कर रहे हैं.

संस्था ‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की 25 अप्रैल 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2021 में विश्व-भर में सभी देशों का फ़ौजी ख़र्चा 21.13 खरब अमरीकी डॉलर हो गया. इस ख़र्चे में 62% हिस्सा सिर्फ़ पांच देशों – संयुक्त राज्य अमरीका, चीन, भारत, इंग्लैंड और रूस का है. 2020 में विश्व के सकल घरेलू उत्पादन का 2.3% और साल 2021 में 2.2% हिस्सा फ़ौजी ख़र्च पर लगाया गया था.

अकेले अमेरिकी साम्राज्यवाद की बात करें तो 2021 में इसने 801 अरब डॉलर फ़ौजी ख़र्चे जैसे हथियार ख़रीदने, कैंप बनाने, अफ़सरों की तनख़्वाह आदि पर ख़र्च किए जो कि अमरीका के सकल घरेलू उत्पादन का 3.5% बनता है. साल 2012 से लेकर 2021 तक फ़ौजी खोज और विकास पर अमरीकी शासकों ने 24% फ़ंड में बढ़ोतरी की है. अमरीका हथियारों की नई किस्में, नई तकनीक पर लगातार काम करता रहता है. ये तथ्य भी यही बताते हैं कि अमरीका हथियार बनाने, बेचने का बड़ा व्यापारी है.

सामाजिक साम्राज्यवादी रूस ने भी 2021 में अपने फ़ौजी ख़र्चों में 2.9% की बढ़ोतरी करके, सुरक्षा ख़र्च 65.9 अरब डॉलर कर दिया है. लगातार 3 सालों से रूस फ़ौजी ख़र्च पर लागत बढ़ा रहा है. साल 2021 में यह ख़र्च सकल घरेलू उत्पादन का 4.1% था. दुनिया का दूसरा सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाला देश चीन है, जिसने 2021 में अपनी फ़ौज के लिए अंदाज़न 293 अरब डॉलर अलॉट किए थे, जो कि 2020 के मुकाबले 4.7% ज़्यादा थे. चीन का फ़ौजी ख़र्च लगातार 27 सालों से बढ़ रहा है.

ये साम्राज्यवादी देश अपनी ताक़त बनाए रखने के लिए दुनिया-भर के प्राकृतिक संसाधनों और सस्ती श्रम शक्ति की लूट और बाज़ार को बढ़ाने के लिए, संसार के ज़्यादा से ज़्यादा इलाक़ों में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए युद्ध छेड़ते हैं. इसके बिना हथियारों का व्यापार साम्राज्यवादी देशों के मुनाफ़ों का बड़ा स्रोत है. युद्ध छेड़कर जहां एक तरफ़ ये अपने हथियारों का परीक्षण कर लेते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ युद्ध का वातावरण बनाकर ये अपने ग्राहक़ों के बीच हथियारों की ज़रूरत भी पैदा करते हैं.

साम्राज्यवादी देश अमरीका ने बड़े पैमाने पर ख़ासकर दूसरे विश्व युद्ध के समय से हथियारों से कमाई की है. हथियारों के कारोबार में अमरीका संसार के सभी देशों में अग्रणी है. इस बात का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि संसार की 10 बड़ी हथियार बनाने वाली कंपनियों में से 7 अमरीकी हैं. इसके अलावा अलग-अलग देशों में फ़ौजी अड्डे बनाने में भी अमरीका ही सबसे आगे है. इसके अलावा यह भी ध्यान देने वाली बात है कि ये हथियार बनाने वाली कंपनियां अमरीकी राजनीति को भी बहुत प्रभावित करती हैं.

ये कंपनियां वैश्विक पैमाने पर वातावरण, शांति, जनवादी आधिकारों आदि के नाम पर बनी अनेकों एन.जी.ओ. सरीखी संस्थाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में आर्थिक सहायता देती हैं, जिनमें नामी शांति संस्थाएं भी शामिल हैं. इसीलिए अमरीका ‘शांति दूत’ बनकर कभी इराक़ के परमाणु हथियारों से विश्व को ख़तरे की बात करता है, कभी वैश्विक पैमाने पर आतंकवाद का हौवा खड़ा करके छोटे-छोटे युद्धों को अंजाम देता है, कभी अलग-अलग देशों में मासूमों का क़त्ल करता है और आतंकी कहकर जुल्म को ढंक देता है.

दो देशों के आपसी झगड़े या किसी देश के अंदरूनी झगड़े का इस्तेमाल अपने हथियार बेचने के लिए आमतौर पर अमरीका करता है. जैसे ईरान और इराक़, इज़रायल और फि़लिस्तीन, भारत और पाकिस्तान, उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के झगड़े आदि. ये सारे कारनामे अमरीका अपने हथियार बेचने के लिए अंजाम देता है. अब तक अमरीका करोड़ों मासूमों का क़ातिल बन चुका है, परंतु मीडिया द्वारा यह दिखाया जाता है कि अगर अमरीका ना हो तो संसार को तो आतंकवादी ही खा जाएं. अकेला अमरीका ही नहीं, किसी भी साम्राज्यवादी देश के शासक यह मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते. अमरीका की तो काली करतूतों की लंबी फे़हरिस्त है और जगजाहिर भी है.

अकेले साम्राज्यवादी देश ही नहीं, बल्कि और देश भी, देश के सकल घरेलू उत्पादन का बड़ा हिस्सा हथियारों पर ही लगाते हैं और भारत भी इन्हीं देशों में आता है. जापान की सरकार ने फ़ौजी ख़र्चों पर 2021 में 7.0 अरब डॉलर लगाए हैं. 2021 में ऑस्ट्रेलियाई फ़ौजी ख़र्चे भी 4.0% बढ़कर 31.8 अरब डॉलर तक पहुंच गए हैं. मध्य और पश्चिमी यूरोप में जर्मनी तीसरा सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाला देश है. जर्मनी ने 2021 में अपनी फ़ौज पर 56.0 अरब डॉलर ख़र्च किए हैं.

भारत की बात करें, तो जहां रोज़ाना रात को 20 करोड़ लोग भूखे सोते हैं, 4000 बच्चे भूख-कुपोषण का शिकार होकर मरते हैं, उस देश के शासक फ़ौजी ख़र्च पर 76.6 अरब डॉलर एक साल (2021) में ख़र्च कर देते हैं. 2012 से लें, तो 9 साल की अवधि में यह 33% की बढ़ोतरी है. दुनिया-भर में फ़ौजी ख़र्चे के लिए भारत तीसरे स्थान पर है. देसी हथियार उद्योग को मज़बूत करने के लिए, 2021 के फ़ौजी बजट में 64% ख़र्चे घरेलू तौर पर तैयार किए गए हथियारों के लिए रखे थे.

ऊपर दिए गए तथ्य गवाह हैं कि इन देशों के सालाना बजट में शिक्षा, सेहत, और कल्याणकारी योजनाओं के लिए बजट साल-दर-साल कम होता गया है. दूसरा, सकल घरेलू उत्पादन का 0.2%, 0.4% जैसा मामूली-सा हिस्सा इन योजनाओं के लिए होता है. देश आम लोगों से बनता है, लेकिन वे तो बदहाली के दिन काटते हैं, परंतु देश के शासक लोगों का पैसा लोगों पर ख़र्च करने की जगह हथियारों पर क्यों लगाते हैं, जहां हथियारों का मतलब है युद्ध, तबाही, लोगों का विनाश, पर्यावरण का विनाश, आने वाली नस्लों का विनाश ? वहां, इसका क्या कारण है कि किसी भी पूंजीवादी देश के शासकों के लिए फ़ौजी ख़र्चे ही सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं ?

इसका पहला कारण है साम्राज्यवादियों के बीच संसार के क़ुदरती और मानव संसाधनों की लूट और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए आपसी झगड़े, मतलब मुनाफ़े, लूट-खसोट के लिए युद्ध. जब पूंजीवादी समाज में एकाधिकार के लिए टकराव बढ़ जाता है तो फिर संसार के बड़े साम्राज्यवादियों के आपसी हितों का टकराव तेज़ होता है, जिस कारण वे विश्व बाज़ार को बांटने के लिए लड़ते हैं (जैसे कि रुस, अमरीका का टकराव). क्योंकि इन दैत्यों का एकाधिकार इस हद तक पहुंच जाता है कि घरेलू बाज़ार इनके लिए काफ़ी नहीं रहता. हर साम्राज्यवादी देश अपने विरोधी को दबाने के लिए भी सुरक्षा पर भारी ख़र्च करता है, ताकि विश्व के क़ुदरती और मानव संसाधनों की लूट अकेले ही की जा सके और विश्व बाज़ार पर दबदबा क़ायम किया जा सके.

इसका दूसरा कारण है कि हथियारों का कारोबार मुनाफ़ों का अथाह साधन है, जिसका ऊपर भी जि़क्र किया गया है. सभी देशों की सरकारें जनता के पैसे को ग़ैर-ज़रूरी हथियार ख़रीदने और फ़ौजी ख़र्चों पर बर्बाद कर रही हैं, ताकि हथियार आदि बनाने वाले पूंजीपतियों की तिजोरियां मुनाफ़ों से भरी जा सकें. इसका तीसरा कारण है, जनविद्रोहों का डर. आज का मरणासन्न पूंजीवाद, आर्थिक संकट से गुज़र रही व्यवस्था, आदमखोर हो चुकी है, जो नशे का व्यापार, अश्लील और पोर्न फि़ल्में, देह व्यापार, इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त, घटिया दवाएं आदि घटिया-से-घटिया काम से लेकर पानी, शिक्षा, सेहत जैसे हर क्षेत्र में मुनाफ़ा कमा रही है और जनता को नोच खा रहा है.

कुछ लोगों के मुनाफ़े की बढ़ती हवस से आमजन की जिंदगी दिन-ब-दिन इतनी भयंकर और दूभर हो रही है कि इसका अंदाज़ा पिछले समय से अलग-अलग देशों में जनता के स्वतःस्फूर्त उठ रहे विरोध से, सरकारों के ख़िलाफ़ विद्रोह से लगाया जा सकता है. पूंजी के हवसी दैत्यों के चलते भुखमरी के शिकार लोगों का आक्रोश सड़कों पर फूट रहा है और चारों तरफ़ अराजकता फैल रही है. जहां लोग एकजुट होंगे वहां भविष्य में शासकों के तख़्ते पलट देंगे इसीलिए जनविद्रोहों का डर शासकों की नींद उड़ा रहा है. इन जनविद्रोहों को कुचलने, देश की मेहनतकश अवाम पर युद्ध थोपने, ख़ून की होली खेलने के लिए शासक हथियारों के अंबार लगाकर रखते हैं.

मेहनतकश जनता पर थोपे गए इस युद्ध के साथ लड़ने के लिए जनता को भी जूझना पड़ेगा. जैसा कि इतिहास गवाह रहा है कि जब अमरीका ने वियतनाम के लोगों पर युद्ध थोपा, लोगों ने जवाबी युद्ध से जुल्म का सामना किया था. इस संसार से हमेशा-हमेशा के लिए युद्धों के ख़ात्मे के लिए और युद्धों का कारण पूंजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए मेहनतकश अवाम को इंक़लाबी युद्ध लड़ने ही होंगे.

  • रविंदर (मुक्ति संग्राम)
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