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अशोक स्तंभ के साथ कोई भी परिवर्तन या छेड़छाड़ करना औचित्यपूर्ण नहीं

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विजय शंकर सिंह

दिल्ली में नई राजधानी के रूप में निर्मित हो रहे सेंट्रल विस्ता में नई संसद के शिखर पर कांसे का राष्ट्रीय प्रतीक स्थापित किया गया था, जिसका लोकार्पण प्रधानमंत्री जी ने किया है। पर जैसे ही उक्त राष्ट्रीय प्रतीक की फोटो मीडिया और सोशल मीडिया पर दिखनी शुरू हुई, उस कलाकृति को लेकर विवाद शुरू हो गया। अशोक स्तंभ के चार शेरों वाला राष्ट्रीय प्रतीक देश का राज चिह्न भी है और वह हर राजकीय इमारत, कागज, सेना, पुलिस आदि की वर्दी का अनिवार्य अंग है। राज्य सरकारों के भी अपने-अपने प्रतीक होते हैं पर यह राष्ट्रीय प्रतीक, सभी राज्य सरकारों के प्रतीक और अन्य राजकीय प्रतीकों में किसी न किसी रूप में समाविष्ट रहता है। 

इस प्रकार, अशोक स्तंभ का चार शेरों वाला स्तंभ भारत केराष्ट्रीय चिह्न के रूप में विख्यात है। पर आज जिस राष्ट्रीय चिह्न के नाम पर चार शेरों वाले प्रतीक का प्रधानमंत्री ने उद्घाटन किया है, उस मूर्ति के, शेरों के भाव और अशोक स्तंभ सारनाथ के शेरों के भाव से स्पष्ट रूप से, अलग दिख रहे हैं।

नई संसद के शिखर पर रखी गई मूर्ति के शेरों के शरीर भी मूल स्तंभ के शेरों से अलग और बेडौल बने हुए हैं, साथ ही उनके मुंह अधिक खुले हैं। नई मूर्ति में वह सुघड़ता, पूर्णता और आकर्षण का अभाव नहीं है जो मूल सारनाथ स्तंभ के शेरों में है। सारनाथ स्तंभ की गरिमा, भव्यता और सिंहत्व, अकारण ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता है। तो इस प्रतीक को गढ़ने वाले मूर्तिकार, अशोक स्तंभ सारनाथ के चार शेरों के भाव को समझ नहीं पाए या वे, उन भावों को, इस प्रतिमा में उतार नहीं पाए। 

मूर्तिकला केवल पत्थरों, कांस्य, या किसी भी धातु को तराशना या उसे गढ़ना ही नहीं होती है बल्कि वह, प्रतिमा में, एक प्रकार से जान डाल देने की कला भी होती है। सारनाथ म्यूजियम में जो मित्र, घूमने गए होंगे, वे यह भलीभांति जानते हैं कि, म्यूजियम के मुख्य हॉल के बीच में रखा गया चार शेरों वाला भव्य स्तंभ, न केवल अपनी विलक्षण पॉलिश के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि भव्यता, राजत्व, गरिमा और आकर्षण में, मूर्तिकला का एक अनुपम उदाहरण भी है।

यह मूर्ति यूनानी मूर्तिकारों ने बनाई थी। सारनाथ स्तंभ, केवल एक मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण ही नहीं है, बल्कि अब तो, वह देश का मुख्य प्रतीक भी है। राष्ट्रीय चिह्न को जस का तस ही उतारा जाना चाहिए, बिल्कुल उसी तरह जैसा कि संविधान ने उसे मान्यता दी है। राष्ट्रीय चिह्न के स्वरूप, हावभाव और उसके अनुपात में कोई भी परिवर्तन, उसका विकृतिकरण करना होगा, और, राष्ट्रीय चिह्न का विकृतिकरण, एक दंडनीय अपराध भी है। 

मित्र सौमित्र रॉय की यह टिप्पणी भी जोड़ दे रहा हूं जिसे पढ़ा जाना चाहिए, “भारत के राष्ट्रीय प्रतीक का डिज़ाइन मेरे एमपी के बैतूल निवासी दीनानाथ भार्गव ने शांतिनिकेतन में नंदलाल बोस के सान्निध्य में बनाया था। वे एक माह तक रोज़ 100 किमी दूर चिड़ियाघर जाकर शेरों के हाव-भाव देखते थे। उनकी बनाई डिज़ाइन को प्रख्यात चित्रकार, नंदलाल बोस ने फाइनल किया था।”

भारत के राष्ट्रीय चिह्न में चार शेर हैं जिसमें एक बराबर से छिपा हुआ रहता। यह, शक्ति, साहस और आत्मविश्वास के प्रतीक हैं और एक गोलाकार स्तंभ पर टिके हुये हैं। इस गोलाकार स्तंभ पर चार छोटे जानवर हैं, जिन्हें चारों दिशाओं का संरक्षक माना जाता है। उत्तर दिशा का सिंह, पूर्व दिशा का हाथी, दक्षिण दिशा का घोड़ा और पश्चिम दिशा का बैल माने गए हैं। इन पशुओं में से प्रत्येक को धर्म चक्र (कानून के शाश्वत पहियों) के बीच के पहियों द्वारा अलग किया गया है। चार पशुओं का चिन्ह भगवान बुद्ध के जीवन के विभिन्न चरणों का प्रतीक माना जाता है।

1. हाथी, एक सफेद हाथी, सिद्धार्थ की मां, माया के स्वप्न संदर्भ में है।

2. बैल, एक राजकुमार के रूप में सिद्धार्थ के जीवन के दौरान, मानवीय इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है।

3. घोड़ा: कपिलवस्तु के राज प्रासाद के ऐश्वर्यपूर्ण जीवन से सिद्धार्थ के प्रस्थान, यानी महाभिनिष्क्रमण का प्रतीक है।

4. शेर, बुद्ध की उपलब्धि का प्रतीक है। 

बोध वाक्य ‘सत्यमेव जयते’, जो, मुंडक उपनिषद के सूक्त 3.1.6 से लिया गया है, जिसका अर्थ ‘सत्य की ही जीत होती है’, देवनागरी लिपि में प्रतीक के नीचे अंकित है। यह बोध वाक्य, राष्ट्रीय चिह्न का अंग है। 

अब अशोक स्तंभ की ऐतिहासिकता पर एक नजर डालते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास के एक शोधार्थी अंकित जायसवाल ने, अशोक कालीन बौद्ध स्तंभों, स्तूपों पर एक संक्षिप्त लेख अपनी फेसबुक वाल पर लिखा है। उक्त लेख के अनुसार, “सम्राट अशोक ने जब पशुओं की आकृतियों वाले स्तम्भ बनवाने शुरू किए तो उसके शिल्पियों ने तुरंत ही अपनी कलाकारी का चर्मोत्कर्ष प्राप्त नहीं किया बल्कि इसके लिए उन्हें 2 दशक से भी अधिक का समय लगा।

उनके हाथ, ऐसे बेहतरीन कला-प्रतीक को बनाने में इस प्रकार मंज गए थे कि, आज मशीनी दौर में भी उनको हूबहू बना पाना एक दुष्कर कार्य है। अशोक के शिल्पियों ने सबसे पहले कोलुहा या बखिरा का सिंह-शीर्षक बनाया जिसकी डंडी मोटी, भारी और ठिगनी है। चौकी पर बना शेर दुबक के बैठा मालूम पड़ता है, जैसे किसी ने जबर्दस्ती उसे वहाँ बैठा दिया हो, यहाँ का सिंह अनगढ़-भौंड़ा किस्म का है। यह देखने में ही बनावटी लगता है।”

वे आगे लिखते हैं, “फिर लौरियानन्दनगढ़ का सिंह उकड़ूँ बैठा हुआ बनाया गया है। सिंह की आकृति बलशाली और प्रभावशाली है लेकिन उसका भाव कुछ ग्रसित लगता है। रमपुरवा सिंह स्तम्भ का शेर चौकी पर अपने स्वाभाविक मुद्रा में बैठा है। उसके अंगों में परस्पर अनुपातों का सुंदर साम्य देखा जा सकता है, सिंह देखने में प्राकृतिक लययुक्त है।”

सारनाथ के बारे में वे कहते हैं, “सबसे अंतिम में सारनाथ का सिंह स्तम्भ है, जो अशोक के शिल्पियों की कला का निचोड़ है। अशोक कालीन कला का चर्मोत्कर्ष इसी में देखने को मिलता है जिसके लिए शिल्पी अपने पहले की कलाकृतियों से बहुत कुछ सीखकर निपुण हो चुके थे। सिंहों के सभी अंगों के विन्यास में शिल्पियों ने अपनी तक्षण-कला का अद्भुत दर्शन कराया है।

इसमें चार सिंह जो पीठ सटाये उकड़ूँ बैठे हैं, उनके चारों ओर की रेखाएँ, कानों से सटे बाल, माँसल पैर, मुँह और मूँछे, इन सबमें पारस्परिक संतुलित विन्यास किसी महान प्रतिभाशाली शिल्पी के कौशल का परिचय देता है। इतनी सुंदर और बेजोड़ कलाकृति जो कि हमारी ऐतिहासिक विरासत होने के साथ-साथ हमारा राष्ट्रीय राजचिह्न भी है, इसके साथ कोई भी परिवर्तन या छेड़छाड़ करना कहीं से भी औचित्यपूर्ण नहीं।”

राष्ट्रीय प्रतीक, ध्वज, गीत और गान राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और लोग उन्हें बरबस ही ध्यान से देखते हैं। लोग उसके इतिहास में जाना चाहते हैं और उनके प्रदर्शन में की गई जरा सी भी त्रुटि विवाद का कारण बनती है। 

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