पवन कुमार
_क्या ग्रह शांत होते हैं?यदि ग्रह का नाम आकाशगंगा स्थित गैसीय पिण्डों का है तो अभी हमे सभी ग्रहों का ज्ञान ही नही हैं।नीचे एक तालिका दे रहे हैं, बताएं कि ज्योतिषशास्त्र मे इनकी गणना कहाँ हुई है?_
क्रं. ग्रह का नाम. पृथ्वी से दूरी(प्रकाशवर्ष मे)
1 प्रोक्जिमा सेन्टोरी 4.22
2 अल्फा सेन्टोरी 4.35
3- बर्नार्ड। 5.98
4 सिरियस 8.65
5 रोस 154 9.45
6- एप्सीलान इरीडनी 10.8
7- रोस 248 10.4
8 – 61 सैग्नी 11.1
9 वोल्फ 7.75
10 – — लैलेण्ड 8.22
इसके अतिरिक्त अंतरिक्ष मे लगभग 40000 ग्रहिकाएं हैं जिसमे से पाँच ज्ञात हैं तथा पुच्छलतारा(धूमकेतु) और उल्कापिण्डें अलग से हैं जिनका प्रभाव पृथ्वी पर अप्रत्यक्षरुप से पड़ता है। इन सबकी गणना वर्तमान ज्योतिषशास्त्र नही करता जबकि राहु-केतु जिनका अंतरिक्ष के ग्रहमण्डल मे कोई अस्तित्व नही है उसकी गणना करता है।
एक ज्योतिषि ने एक संदर्भ मे कहा कि सूर्य्य कन्या राशि मे आ गये हैं, हमने कहा महाराज-सूर्य्य नही पृथ्वी कन्याराशि मे आ गयी और सूर्य्य पृथ्वी के लिए स्थिर है आकाशगंगा मे गतिमान है। तो बिगड़ गये, बोले आप हमसे ज्यादा जानते हैं तो हमने कहाँ नही भगवन् हमतो सत्य जानना चाहते हैं।
उनका विचार था हमारा ग्रह शांत कराना. सो ग्रहशांति के बारे मे उनकी राय और वैदिक राय का विवरण इस प्रकार है :
ऊँ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या$अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः।।
यह यजुर्वेद अ०२९/३७/का मंत्र है।इसका अर्थ यह है कि (ऊँ)अर्थात हे परमेश्वर(केतुं कृण्वन्)हम सब मनुष्य की आत्मा मे ज्ञान का प्रकाश करो।तथा(अकेतवे)अज्ञान(अपेशसे)और दरिद्रता को दूर कर अर्थ (पेशो) विज्ञान,धन और राज्य दो, जिससे कि (मर्याः) आपके उपासक कभी दुःख को प्राप्त न हों। यहाँ मर्या इति मृत्यु नाम है.
इस व्याख्या को समझे बिना वर्तमान कर्मकांडियो द्वारा इसी मंत्र से केतु ग्रह की शांति कराई जाती है।यहाँ विशिष्ट तथ्य यह है कि न तो उपरोक्त मंत्र मे कही केतु की ग्रह के रूप मे व्याख्या हुई है और न इस सौरमंडल मे अभी तक केतु ग्रह का पता चला है तथापि पौराणिंकों ने किस आधार पर इस मंत्र को ग्रहशांति के लिए प्रयोग करना प्रारंभ किया यह रहस्यमय ज्ञान जो जानता है उससे हमारा ज्ञानवर्धन करने का निवेदन है।
मंत्र मे परमेश्वर से कष्ट निवारण करने की प्रार्थना अवश्य है किन्तु किसी अन्य के द्वारा जप करने से वह हमारी प्रार्थना कैसे कही जा सकती है?
हर जीव जिसने देह धारण किया है उसके अच्छे बुरे कर्म का प्रारब्ध अनुसार फल तो उसे भोगना ही पड़ेगा।फिर इसमे अज्ञान रूपी कल्पित केतु को बीच मे लाकर अस्तित्वहीन की प्रार्थना कैसे?
वेद विहित ऊँ त्वमीश्वराणां परमं महेश्वरम् (श्वेताश्वर उ०६/७) की प्रार्थना क्यों नही?
केतु ग्रह के नाम से लहसुनिया रत्न धारण करना,ब्राह्मणों से जप कराना कहीं व्यापारवाद का परिणाम तो नही?
यह मञ्त्र मूलतः ऋग्वेद/१/६/३/ का है, जिसमे केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्(निघं/३/९) सहित सभी शब्दों का वैदिक अर्थ हमने श्रृण्खला मे लिखा भी है, किन्तु किसी शब्द से सौरमण्डल मे केतु ग्रह का अस्तित्वबोध नही होता।
(चेतना विकास मिशन)