संजय कनौजिया की कलम”✍️
इस प्रकरण का जिम्मेदार केवल दलित-पिछड़ों के अपने-अपने नेतृत्वकर्ता थे..यही “कटु सत्य” है और इस कटु सत्य को शोषितों के नेतृत्व कर्ताओं को स्वीकार कर लेनी चाहिए और शोषित उपेक्षित पीड़ित वर्ग के आम जनमानस को भी स्वीकार करनी चाहिए..इसका जीता जागता उदहारण है कि, 25 वर्षों के अंतराल के उपरान्त, 2019 के चुनाव से कुछ समय पहले ही सपा-बसपा गठबंधन का प्रयोग फिर हुआ..यह गठबंधन तो सैद्धांतिक था ही नहीं, बल्कि केवल अपने-अपने लक्ष्यों को साधने तक ही सीमित था इसीलिए यह प्रयोग असफल रहा..इस प्रयोग के राजनीतिक कारण कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन सच्चाई कुछ और थी..यदि राजनीतिक पहलुओं पर नज़र डालें तो, कांग्रेस से गठबंधन असफल होने के बाद सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव वह मंत्र खोज रहे थे, जो उन्हें सफलता के शिखर तक पहुंचा दे..मायावती लम्बे समय से मिल रही असफलताओं से इतनी निराश थी कि वह किसी तरह सन्देश देना चाहती थी कि अभी भी बसपा में दम है, इसके अलावा मायावती को प्रधानमन्त्री पद भी दिखाई दे रहा था..लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही बयाँ कर रही थी..उस स्थिति को यह दोनों दलों के सुप्रीमों भांप ना सके..लेकिन भाजपा ने 2018 के उपचुनावों के परिणामों को देखते हुए, अपनी रणनीति में बदलाव लाकर, अति-दलित और अति-पिछड़े वर्गों में पैंठ बनाकर सोशल-इंजीनियरिंग के फार्मूले पर चुनाव लड़ा और जबरदस्त विजय पाई..लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं करने वाली बसपा ने 2019 में 10 सीटों पर जीत हासिल की, और मायावती को उनके सलहाकारों ने ये गलत फ़हमी बैठा दी कि मुस्लिम वर्ग उसी के साथ है..दूसरी ओर सपा केवल 5 सीटों पर ही सिमटकर रह गई..हालांकि सपा की चुनावी समीक्षा में केवल यही बात निकलकर आई कि जरुरत से ज्यादा सीटें बसपा को देना घाटे का सौदा रहा और बसपा द्वारा अपने प्रभावशाली क्षेत्रों की सीट चालाकी से झटक लेना आदि-आदि परन्तु मायावती ने सपा पर बे-बुनयादी आरोप लगाकर गठबंधन तोड़ लिया..इसका यह नतीजा निकला की 2022 के विधानसभा सभा चुनाव में बसपा को अकेले लड़ना पड़ा और केवल एक सीट जीती तथा 24 प्रतिशत वोट से, 10 प्रतिशत वोट तक में सिमट कर रह गई..!
यह 10 प्रतिशत वोट सदैव मायावती के साथ कटिबद्ध है..यह प्रतिशत भविष्य में, 10 से 12-15 प्रतिशत तक तो हो सकता है लेकिन 8-9 तक नहीं जाएगा और अब यही मायावती की बची-कुची ताक़त है, लेकिन यह किसी भी चुनाव को जिताने के लिए प्रयाप्त नहीं..भाजपा से कहीं ज्यादा सपा पर आक्रामक रहने की मायावती की प्रवर्ति को मुस्लिम खूब समझ चुका है, वे मायावती को भाजपा की सहयोगी समझ चुके हैं..2007 वाली बसपा जिसमे भाईचारे के पैगाम पर ब्राह्मण साथ आ गया था, उस ब्राह्मण ने मानो प्रण ही कर लिया है, कि अब कभी भी बसपा का साथ नहीं देना वे अब भाजपा में ही अपने को सुरक्षित मानते हैं..अब सवाल उठता है कि बसपा क्या अब अपने 10 प्रतिशत वोट के साथ चुनाव में सिर्फ सांकेतिक प्रदर्शन की औपचारिकताएं पूरी किया करेंगी ?..जबकि अगला चुनाव 2024 का होना है और तब भी बसपा का मुख्य मुक़ाबला भाजपा से ही होना है..दूसरी बड़ी पार्टी उ०प्र० में सपा है, बांकी दल तो 4 या 6 प्रतिशत की हैसियत तक सीमित हैं..विचारणीय यह है कि बसपा के 10 प्रतिशत मतदाताओं पर जो केवल एक ख़ास जाति है उसपर इस स्थिति का क्या असर पड़ेगा ?..जो ना केवल भाजपा को वोट डालना पसंद करता है ना सपा को और ना ही किसी और दल को, वो केवल और केवल अपना “चुनाव चिन्ह-हांथी” को जानता है..हांथी चुनाव चिन्ह पर किसी भी जाति-धर्म का प्रत्याशी आ जाए तब वह उसे वोट जरूर करेगा..!
उक्त सभी वाक्यों को समझने के लिए वरिष्ठ पत्रकार “स्व० शेष नारायण सिंह” के एक लेख जो, “सत्यहिन्दी डॉट कॉम” की वेव-साइट में दिनांक-9 मई, 2019 में प्रकाशित हुआ था, के केवल दो महत्वपूर्ण बिंदुओं के अंश प्रेषित है..2019 के लोकसभा चुनावों की शेष नारायण, राय-शुमारी यात्रा पर थे..उन्होंने लिखा कि शासक वर्गों की कोशिश रहती है कि दलितों को ब्राह्मण विरोधी साबित किया जाए, और सारी बहस को “जाति बनाम जाति” के विमर्श में लपेट दिया जाए..लेकिन सामाजिक मुद्दों के प्रति जो जागरूकता यहाँ देखने को मिली वह अद्वितीय है..दलित बस्तियों के बाशिंदों ने साफ़-साफ़ बता दिया कि उनकी लड़ाई किसी ब्राह्मण से नहीं है..लड़ाई केवल उस सोच से है जो एक ख़ास वर्ग के आधिपत्य की बात करती है..”सवर्ण-सुप्रीमेसी” की उस राजनीति को ब्राह्मणवाद भी कहा जा सकता है..करीब घंटा भर चले इस वाद-विवाद में सब खुलकर बोले और सारे सवालों पर डॉ० अंबेडकर के हवाले से अपने दृष्टिकोण रखे..दलितों के इंसानी हक़ूक़ का सबसे बड़ा दस्तावेज़ भारत का संविधान है..उसके साथ हो रही छेड़छाड़ की कोशिशों से हमारे गाँव का दलित चौकन्ना है, उनको जाति के शिकंजे में लपेटना नामुमकिन है..वे मायावती की राजनीति का समर्थन करते हैं और उम्मीदवार किसी भी जाति का हो उसकी जाति की परवाह किये बिना उसको वोट देने में उन्हें कोई संकोच नहीं..क्योकिं इन दलित नौजवानो ने तय कर रखा है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी अगर उनके भविष्य को डॉ० अंबेडकर के राजनीतिक दर्शन से हटकर लाने की कोशिश करेगी तो वह उनको मंजूर नहीं क्योकि डॉ० अंबेडकर की राजनीति में ही सामाजिक बदलाव का बीजक सुरक्षित है..!
दरअसल शोषित, उपेक्षित, वंचित समाज धीरे-धीरे नेतृतविहीन होता जा रहा है..एक नेता और उभरे थे उन्होंने भी, बाबा साहब के चित्र वाले बैनर के तले दलितों को उनके अधिकार सुरक्षित रखने की लड़ाई पर इक्कट्ठा किया, लड़ते भी थे..लेकिन वर्ष 2014 में, अपने बैनर के सभी कार्येक्रमों की पूँजी सहित, भाजपा की सदस्यता लेकर दिल्ली की आरक्षित सीट से चुनाव लड़ सांसद बन गए..बाद में भाजपा ने उन्हें दोबारा उम्मीदवार बनाना नहीं चाहा, तो वे अब कांग्रेस में आ गए..कुछ और दो तीन क्रांतिकारी युवा नेता मूछों पर ताव देते हुए तो आये है, लेकिन इनसे उम्मीद की जा सकती है, लेकिन…..
धारावाहिक लेख जारी है