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तंजावुर मंदिर में आरक्षण, प्रसाद पहले महावत को, बाद में राजा को

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प्रणव प्रियदर्शी

एक प्रिय मित्र इन दिनों भारत प्रवास पर हैं। सपरिवार छुट्टियां मनाने का कार्यक्रम चल रहा है। इसी क्रम में उनका तंजावुर (तमिलनाडु) के प्राचीन मंदिरों में जाना हुआ, जहां की सुव्यवस्था ने उन्हें काफी प्रभावित किया। पुजारियों ने बताया कि कैसे मंदिर का प्रसाद सबसे पहले मंदिर के हाथी के महावत और सफाईकर्मियों के परिवार को, फिर मंदिर के कर्मचारियों जैसे गाने वालों, फूल-मालाएं बनाने वालों के परिवारों को, तब मंदिर के पुजारियों, श्रद्धालुओं को और आखिर में राजा के परिवार को देने की रीत है। राजा का जिक्र ही बता देता है कि यह रीत पुरानी है, फिर भी परिवार के एक बच्चे ने पूछा कि यह चलन कब से चल रहा है, दस-पंद्रह या चालीस-पचास साल से? पुजारी को इस बचकाने सवाल पर हंसी आ गई, सो हास्यमिश्रित स्वर में ही कहा, ‘यह दो हजार साल पुराना मंदिर है और चलन भी उतना ही पुराना है। हम पर किसी ने ‘मंडल कमिशन’ नहीं किया, हम शुरू से ऐसे ही हैं।’ इस उदार, विराट सोच का मर्म अगर मंडल कमिशन के ऐसे जिक्र के बावजूद आप तक नहीं पहुंचा हो तो इसकी व्याख्या में कहा गया पुजारी का अगला वाक्य पहुंचा देगा, ‘बेटे, आप लोग तो जानते नहीं हो, गांव में आज भी ऐसी ही व्यवस्था चल रही है। वहां ज्यादा भेदभाव या नफरत वगैरह नहीं है। ये शहरों में ज्यादा है, जहां लोगों में अव्यवस्था आ गई है, कोई किसी से भी शादी कर लेता है। अनुशासन नहीं रह गया है।’

अनुशासन…। इस तरह की उदारता की यह परिणति मेरे लिए नई नहीं है। बचपन में परिवार के अंदर भी अपने से ऊपर की दोनों पीढ़ियों के मुंह से ऐसी उदारता का बखान मैं सुनता था कि कैसे गांवों में लोगों का प्रेम भाव इतना गहरा था कि जातिगत भेदभाव उसे प्रभावित नहीं कर पाते थे कि जातीय पूर्वाग्रहों से भरी अभिव्यक्तियां निकलती थीं लेकिन संबंधित जाति समूह के लोग उसका बुरा नहीं मानते थे क्योंकि उनके पीछे भाव बुरा नहीं होता था, कि सबकुछ सुनकर भी वे उतने ही प्रेम और आदर से आते, काम करते थे, कि अपने काम को वे अपना धर्म मानते थे और धर्म का अनुशासन तोड़ना उन्हें मंजूर नहीं होता था।

इस सारी उदारता की सार्थकता इस संदेश में निहित होती थी कि भेदभाव, आग्रह-दुराग्रह सब ठीक, उनका विरोध गलत। उदारता हमेशा सांकेतिक हुआ करती थी। इसकी झलक मिलती थी प्रसाद पहले देने, कभी किसी खास मौके पर पांव पखारने, खास समुदाय के घर की मिट्टी से किसी कर्मकांड के जुड़े होने जैसी रीतियों में और अनुशासन झलकता था इस उदारता पर लहालोट होने में, इसकी आड़ में रोजमर्रा की अनुदारताओं को भूल जाने में। सवाल यह है कि यह उदारता और अनुशासन बेहतर है या इसके विरोध से उगी अराजकता। हर व्यक्ति इसके जवाब तक अपने हिसाब से पहुंचता है। मुझे जवाब तक प्रेमचंद ने पहुंचाया था अपनी कहानी ‘सद‌्गति’ के जरिए, ऐसे अनुशासन को मानसिक गुलामी बताकर।

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