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अदृश्य महंगाई?

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शशिकांत गुप्ते

सीतारामजी ने संत सूरदासजी के साथ हुआ वाकया सुनाया।
एक बार कुछ शरारती तत्वों कृष्ण भगवानजी के मंदिर स्थित, कृष्ण भगवानजी की मूर्ति के सारे कपड़ें उतार दिए और संत सूरदासजी से कहा कृष्णजी की भक्ति के भजन सुनाओं।
संत सूरदासजी ने कहा, बालगोपाल मेरे समक्ष नगं धड़ंग खड़े ऐसी अवस्था में क्या गाऊँ मै। संत सूरदासजी ने ये कहकर उन लोगों की आँखें खोल दी,जिनके पास आँखें थी, पर दृष्टि नहीं थी।
आज भी ऐसे शरारती तत्व समाज में मौजूद है। जिनके पास आँखें है पर दृष्टि नहीं है।
द्वापरयुग में एक ही धृतराष्ट्र था। कलयुग में धृतराष्ट्रों की बहुतायत है।
किसी शायर ने क्या खूब कहा है।
या रब एक आइना ऐसा बना दे
जिसमें चेहरा नहीं नीयत दिखाई दे

स्वामिभक्ति का ऐनक पहनने के बाद वही दिखता है जो स्वामी को पसंद होता है।
स्वामी को महंगाई दिख नहीं रही है,तो स्वाभाविक है,उन्हें क्यों दिखाई देगी?
इस मुद्दे पर शायर ज़िगर चुरुवीजी फरमातें हैं।
सब कुछ लूट ले जाने के बाद
नाम दिया आदमी गिर हुआ है

जिसतरह सावन के अंधे को हरा हरा ही दिखता है। उसीतरह आँखों से अंधे होकर भी जिनका नाम नयनसुख होता है उन्हे वही दिखता है, जो उनके स्वामी को पसंद होता है। स्वामिभक्ति में महंगाई अदृश्य हो गई।
क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाए,बिन कहे भी रहा नहीं जाए।
स्वरचित कविता प्रस्तुत है। यह कविता 6 जून 2019 को लिखी है।
कुदरती जो मूक है,
क्षम्य है वह।
वाणी है,
फिर भी है,
जो मूक दर्शक,
वह अप्रत्यक्ष,
समर्थक है,
अन्याय का।
दृष्टिहीन है,
क्षम्य है वह,
देख कर भी,
गुनाहों,
जो करता नजरअंदाज,
प्रश्रय है उसका,
सभ्यता की आड़ में,
गुनाहों को।
पाठक है,
सिर्फ पढ़ता है,
चाट जाता है,
अनेक गर्न्थो को,
दीमक है
मानव के भेष में।
लेखक है,
बहुत लिखा,
पुस्तकों की भरमार,
लेकिन,
किया नहीं कभी,
समाज को उद्वेलित,
वह अक्षम्य है।
चार दीवारी में
बैठ कर कोसना,
दूषित व्यवस्था को,
अपनी कुंठाओ,
सिर्फ करना शांत,
इसीलिए,
यह स्लोगन ही है सत्य,
“कथनी करनी भिन्न जहाँ
धर्म नही पाखंड वहां”।
महंगाई से आमजन त्रस्त है।

लेकिन जनसेवकों को महंगाई दिखाई नहीं देती है। दिखाई भी क्यों देगी। जो महसूस करने की पीड़ा है वह दिखाई नहीं देती है।
जाके पांव न फटी बिवाई,
वो क्या जाने पीर पराई
आमजन पूछता है।
हुजूर किया वादा क्या हुआ
दिखाया सब्जबाग हवा हुआ
क्या हुआ तेरा वादा वो क़सम वो इरादा?
कहाँ तो यह तय था चिरागा हर घर के लिए
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
(दुष्यन्त कुमार)

आमजन दुखी है महंगाई से। लेकिन रहबरों की तमन्ना इस शेर में झलकती है।
सहम उठतें हैं कच्चे मकान पानी के ख़ौफ़ से
महलों की आरजू है कि बरसात तेज हो

एक प्रकृतिक नियम है।अति का अंत सुनिश्चित है। अति वो ही करता है जिसकी मति मारी जाती है।
अंत में रब से यही गुज़ारिश है।
खुदा हमको ऐसी खुदाई ना दे
के अपने सिवा कुछ दिखाई न दे

(बशीर बद्र)
प्रकृति ने अभी तक ऐसी कोई रात नहीं बनाई जिसका सवेरा न हुआ हो।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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