अजय असुर
अमेरिकी संसद की स्पीकर नैंसी पेलोसी 2 अगस्त मंगलवार को ताइवान की राजधानी ताईपेई पहुंच गईं थीं। नैंसी पेलोसी की यात्रा की लिस्ट में में ताइवान की यात्रा शामिल होने पर चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन को ताइवान को लेकर आग से न खेलने की चेतावनी दी थी जिसके बाद नैंसी पेलोसी के यात्रा की लिस्ट से ताइवान की यात्रा को हटा दिया गया। इसके बाद मलेशिया की यात्रा के बाद चुपके अचानक नैंसी पेलोसी ताइवान पहुँच गयीं। 25 साल बाद ये पहली बार था, जब अमेरिकी स्पीकर ताइवान के दौरे पर थीं। जिस पर चीन ने इसे अमेरिका द्वारा उकसाने वाली कार्रवाई बताया। चीन ने कहा है कि अमेरिका को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे और इसके लिये अब अमेरिका स्वयं जिम्मेदार होगा।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ न्यूज एजेंसी के अनुसार, पेलोसी के ताइपे हवाई अड्डे पर उतरने के बाद, चीन की जनमुक्ति सेना यानी पीपुल लिबरेशन आर्मी (PLA) छह अलग-अलग क्षेत्रों में 4 से 7 अगस्त तक सभी दिशाओं से ताइवान द्वीप को घेरने वाले लाइव फायर सैन्य अभ्यासों की एक श्रृंखला आयोजित करेगा। चीन के पास पुन: एकीकरण की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए कई तरह के विकल्प मौजूद हैं जिसमें सैन्य अभ्यासों के अलावा, विकल्पों में ताइवान के सैन्य ठिकानों पर हमला करना भी शामिल हो सकता है, जैसा कि चीन की जनमुक्ति सेना पीएलए ने पिछले ताइवान जलडमरूमध्य संकट में किया था। नैंसी पेलोसी की इस षडयंत्र यात्रा में शामिल ताइवान के अलगाववादियों को जल्द से जल्द सबक सिखाने की बात भी चीन ने कहा है।
नैंसी पेलोसी की इस यात्रा की गहमा-गहमी में और चीन की जनमुक्ति सेना पीएलए द्वारा छह अलग-अलग क्षेत्रों में 4 से 7 अगस्त तक सभी दिशाओं से ताइवान द्वीप को घेरने वाले लाइव फायर सैन्य अभ्यासों से दलाल मीडिया द्वारा दिन-रात चीन के खिलाफ नफरत परोसा जा रहा है और भारत के तथाकथित कुछ बुद्धजीवियों को भी लगने लगा कि अब तो युद्ध तय है और अब चीन ताइवान पर बम गिराएगा और अमेरिका एक सुपरहीरो की तरह इंट्री मारेगा और ताइवान के समर्थन में चीन के खिलाफ युद्ध करेगा और यह युद्ध धीरे-धीरे विश्व युद्ध का रूप ले लेगा।
पर ऐसा नहीं है, कोई युद्ध होने की स्थिति नहीं है, यह सब अमेरिकी बन्दरघुड़की है क्योंकि चीन युद्ध नहीं चाहता और वो किसी तरह के युद्ध की पहल भी नहीं करेगा। अमेरिका तो युद्ध चाहता है और उसका बस चले तो आज ही युद्ध शुरू हो जाये पर अमेरिका के सोचने और चाहने से ऐसा कुछ होने वाला नहीं क्योंकि आर्थिक, राजनीतिक और कूटनीतिक परिस्थियाँ अमेरिका के खिलाफ और चीन के पक्ष में है। आज भी शक्ति सन्तुलन चीन के पक्ष में है जिस दिन ये शक्ति सन्तुलन चीन से खिसककर अमेरिका के पक्ष में हो जायेगा उसी दिन तीसरा विश्व युद्ध शुरू हो जायेगा।
अभी अमेरिका ताइवान को नैतिक और जबानी सपोर्ट के अलावा सैनिक सपोर्ट देने में सक्षम नहीं है। सैनिक सपोर्ट देने के लिये अमेरिका को आधी दुनिया पार कर ताइवान आना पड़ेगा और चीन अपनी दक्षिणी पूर्वी सीमा से मात्र 100 मील दूर है। इसके अलावा चीन का सबसे खास मित्र उत्तर कोरिया और रशिया भी बगल में ही है। इसके अलावा चीन ताइवान को अपना ही एक स्वायत्त राज्य मानता है तो क्या चीन अपने ही जनता के ऊपर हथियार चलाएगा? ये राष्ट्रवादियों के पूंजीपतियों की सरकार नहीं है, चीन में मेहनतकश जनता की जनता सरकार है और जनता अपने ही एक दूसरे स्वायत्त राज्य पर हमला कैसे कर सकती है? वह अलगाववादियों को गिरफ्तार कर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दे सकती है।
ताइवान के शासक वर्ग की भलाई इसी में है कि चुप-चाप जैसे अभी तक स्वायत्त रूप से शासन करते आ रहें हैं उसी तरह से शासन करें। यदि अमेरिका के उकसावे में आकर कोई गलत कदम उठा लिया तो इसका खामियाजा स्वंय भुगतेंगे। अमेरिका उकसाकर पीछे हट जायेगा कोई साथ देने वाला नहीं है और इतिहास भी यही कहता है। सबसे बड़ा उदाहरण 1962 का भारत-चीन युद्ध! अमेरिका के उकसाने पर भारत ने चीन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और कहीं से भी अमेरिका ने भारत का साथ नहीं दिया। नतीजा आपके सामने। अफगानिस्तान और यूक्रेन ताजा उदाहरण हैं।
अमेरिका द्वारा इस कूटिनीति कदम को कुछ राष्ट्रवादी लोग समर्थन दे रहें हैं और उनको लगता है कि अमेरिका सही है। तो उन राष्ट्रवादियों से मेरा एक सवाल कि भारत के एक स्वायत्त राज्य नागालैंड के खिलाफ अमेरिका या कोई और देश ऐसे ही खुराफात करे तो क्या आप या आपकी राष्ट्रवादी सरकार यह बर्दाश्त कर पाएंगे? यदि नहीं तो फिर चीन कैसे गलत है?
चीन की “वन चाइना” पॉलिसी क्या है?
“वन चाइना” पॉलिसी के तहत ताइवान, मकाओ, हांककांग, तिब्बत और चीन एक ही देश हैं यानी पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC)। यानी चीन, ताइवान, मकाओ, हांककांग और तिब्बत कोई अलग-अलग देश नहीं बल्कि ये पांचों मिलकर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) बनते हैं। 1949 में माओ के नेतृत्व में बना पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) ताइवान ही नहीं मकाओ, हांककांग और तिब्बत को भी अपना प्रांत मानता है क्योंकि इनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। “वन चाइना” पॉलिसी के तहत मेनलैंड चीन और हॉंग कॉंग, मकाओ, ताइवान और तिब्बत जैसे विशेष रूप से प्रशासित क्षेत्र आते हैं। मेनलैंड चीन में समाजवादी शासन है और बाकी हॉंग कॉंग, मकाओ, ताइवान और तिब्बत में पूंजीवादी शासन है। यानी एक देश दो व्यवस्था (एक देश, दो प्रणाली)।
ताइवान खुद को आधिकारिक तौर पर रिपब्लिक ऑफ चाइना (ROC) कहता है। चीन की “वन चाइना” पॉलिसी के मुताबिक चीन से कूटनीतिक रिश्ता रखने वाले देशों को ताइवान से संबंध तोड़ने पड़ते है। वर्तमान में भारत, अमेरिका सहित विश्व के कुल 193 देशों में से 180 देश ताईवान को चीन की “वन चाइना” पॉलिसी का हिस्सा मानते हैं और ताइवान समेत चीन, मकाओ, हॉंग कॉंग, तिब्बत को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) गणराज्य के प्रांत के रूप में मान्यता देते हैं। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ भी ताइवान को स्वतंत्र देश ना मानते हुए चीन की “वन चाइना” पॉलिसी का हिस्सा मानते हुए चीन का अंग ही स्वीकार करता है। 13 छोटे देशों को छोड़कर बाकी 180 देश ताइवान को अलग नहीं मानते। ओलंपिक जैसे वैश्विक आयोजनों में ताइवान चीन के नाम का इस्तेमाल नहीं कर सकता लिहाजा वह लंबे समय से चाइनीज ताइपे के नाम से शामिल होता है क्योंकि चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक देश की मान्यता 1971 में मिलती है और उससे पहले ताइवान को ही असली चीन की मान्यता थी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा। मगर इन सबसे ये मतलब ना निकालिये कि ताइवान चीन का अंग ना होकर एक स्वतंत्र राष्ट्र है। चीन ताइवान का कल भी हिस्सा था और आज भी है।
कुछ राष्ट्रवादी लोग तर्क देते हुए कहते हैं कि ताइवान समेत मकाओ, हाँग काँग और तिब्बत का अपना झंडा और संविधान है और वहां जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है इसलिए वह स्वतंत्र देश है तो भारत में अभी कुछ साल पहले कश्मीर का अपना संविधान और झंडा था और नागालैंड का आज भी अपना अलग झंडा और संविधान है और नागालैण्ड में आज भी वहां की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है तो क्या वह भारत का अंग नहीं हैं? क्या नागालैंड स्वंतंत्र देश हैं? तो फिर इस आधार पर ताइवान, मकाओ, हाँग काँग और तिब्बत, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) का स्वायत्त प्रांत ना होकर स्वतंत्र देश कैसे हो जायेगा?
अमेरिका राजनयिक स्तर पर आज भी “वन चाइना” पालिसी को ही स्वीकारता है और ताईवान को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) का ही हिस्सा मानता है तो फिर पीछे दरवाजे से ये खुराफात क्यूँ? क्यूँ ताइवान को हथियार सप्लाई करता है?
ताइवान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और चीन-ताइवान विवाद
विवाद इस बात पर शुरू हुआ कि जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने जीत हासिल की है तो ताइवान पर सीपीसी यानी कम्युनिस्ट पार्टी आफ चाइना का अधिकार है। जबकि कॉमिंगतांग पार्टी के लीडर चियांग काई शेक की दलील थी कि वे चीन के कुछ ही हिस्सों में हारे हैं लेकिन वे ही आधिकारिक रूप से चीन का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए ताइवान पर उनका ही अधिकार है। अब इस विवाद को समझने के लिये थोड़ा इतिहास में जाना पड़ेगा।
ताइवान दक्षिण पूर्वी चीन के तट से करीब 100 मील दूर स्थिति चारों तरफ पानी से घिरा एक द्वीप है। इसकी राजधानी ताइपे है। ऐतिहासिक रूप से भी देखें तो ताइवान चीन का ही हिस्सा था और अभी भी है।
यह कहानी 1644 से शुरू होती है। 1644 में चिंग वंश सत्ता में आया और उसने चीन का एकीकरण किया तबसे ताइवान चीन का हिस्सा बना। 17वीं शताब्दी में चीन में मिंग वंश का पतन हुआ, और मांचू लोगों ने चिंग वंश (1644-1912) की स्थापना की। उस वक्त सत्तासीन रहे मिंग वंशीय चेंग चेंग कुंग (Cheng Cheng Kung) ने 1661-1662 में डों को हटाकर ताइवान में अपना राज्य स्थापित किया। 1682 में मांचुओं ने चेंग चेंग कुंग (Cheng Cheng Kung) के उत्तराधिकारियों से ताइवान भी छीन लया। दक्षिण पूर्व एशिया में चीन-फ्रांसीसी युद्ध (1883-85) के दौरान फ्रांसीसी सेना ने ताइवान के बंदरगाहों को अवरुद्ध कर दिया, चीन ने ताइवान पर और भी अधिक ध्यान केंद्रित किया। 1885 में किंग सरकार ने ताइवान पर अपना ध्यान केंद्रित करने के लिए फ़ुज़ियान के गवर्नर लियू मिंगचुआन (लियू मिंग-चुआन) को निर्देशित किया, और 1886 में ताइवान को एक प्रांत का दर्जा दिया गया। लियू ने ताइवान में सुधार किया, द्वीप का पहला रेलमार्ग बनाया, और सड़कों और बंदरगाहों में सुधार किया। ताइवान समृद्ध हुआ, जिसने चीन के प्रति मैत्रीपूर्ण भावनाओं को जन्म दिया। हालांकि, लियू को किंग कोर्ट में विरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें समय से पहले वापस बुला लिया गया। ताइवान और मुख्य भूमि चीन दोनों में इतिहासकारों ने लियू और झेंग चेंगगोंग दोनों को अत्यधिक माना है।
1894 में कोरिया में अपने परस्पर विरोधी हितों को लेकर चीन और जापान के बीच युद्ध छिड़ गया। जापान ने संघर्ष को आसानी से जीत लिया। शिमोनोसेकी की संधि (1895), जिसने युद्ध को समाप्त कर दिया, में एक प्रावधान शामिल था जिसने ताइवान और पेंग-हू द्वीपों को जापान को सदा के लिए सौंप दिया। पश्चिमी शक्तियों ने संधि को कानूनी रूप से बाध्यकारी माना, लेकिन चीन ने इसे दबाव में उस पर लगाए गए समझौते के रूप में नहीं देखा।
1895 में चीन-जापान युद्ध के बाद ताइवान पर जापानियों का झंडा गड़ गया, और ताइवान चीन के हाथ से निकलकर जापानी साम्राज्यवाद का उपनिवेश हो गया। किंतु ताइवान की जनता ने अपने को जापानियों द्वारा शासित नहीं माना और ताइवान गणराज्य के लिए संघर्ष करते रहे। जापान के शासन के दौरान ताइवान और उन्नत हुआ रेल लाइनों का विस्तार हुआ कई नई कारखानों का विस्तार हुआ। 50 सालों के जापानी शासन के दौरान ताइवान पहले की अपेक्षा बहुत ही उन्नत हुआ क्योंकि चीन की राष्ट्रवादी सरकार चाहे जिसकी रही हो सबने जनता को लूटा। ऐसा नहीं है कि जापानी बड़े महात्मा थे उन्होने भी जी भरकर जनता को लूटा पर ताइवान को लूटने के लिये ढेर सारे संसाधन तैयार किये।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान पर परमाणु बम गिरा दिया और इस युद्ध की विभीषिका ने जापान का बहुत कुछ समाप्त कर दिया और इस बीच दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार हुई और सितंबर 1945 में जापान ताइवान को छोड़कर चला गया जिससे चीन के शासक चियांग काई शेक का पुनः ताइवान पर कब्जा हो गया। यानी ताइवान 1644 से 1895 तक कुल 251 साल चीन का एक प्रांत के रूप में रहा और इसके बाद ताइवान 1895 से 1945 तक 50 साल जापान का हिस्सा रहा। फिर उसके बाद 25 अक्टूबर 1945 को ताइवान दोबारा चीन गणराज्य का हिस्सा बन गया और शासक चियांग काई शेक ने द्वीप के गवर्नर-जनरल चेन यी (चेन आई) को ताइवान पर शासन के लिये नियुक्त किया। चियांग काई शेक ने बाद में चेन को अपने पद से मुक्त कर दिया और सैन्य शासन को रद्द कर दिया, और कई ताइवानियों को शीर्ष राजनीतिक नौकरियों में नियुक्त किया। कई सरकारी इजारेदार उद्यमों को बेच दिया गया, और बेरोजगारी को कम करने के प्रयास किए गए, जो कि नाकाफी साबित हुए।
इससे पूर्व चीन के शासक चियांग काई शेक के जुल्मों से चीन की तरह ताइवान में भी व्यापक रूप से जनता के बीच जबरदस्त नाराजगी थी और समय-समय पर वहां की जनता ने भी आक्रोशित होकर चियांग काई शेक के खिलाफ विद्रोह किया और उन विद्रोहों का दमन बड़ी नृशंसता से चियांग काई शेक की सेना ने किया और उधर चीन में 8 दिसंबर 1949 में गृहयुद्ध के दौरान माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने चियांग काई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को हरा दिया और वहां का शासक चियांग काई शेक माओ त्से तुंग की ताप से डरकर वहां से भागकर ताइवान पहुंच गया और वहां जाकर अपना शासन चलाने लगा। चीन में सत्ता में आ चुके कम्युनिस्टों की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की नेवी (नौसेना) की ताकत उस वक्त न के बराबर थी। यही कारण था कि माओ की सेना समंदर पार करके ताइवान नहीं पहुँच पायी और चियांग काई शेक का पीछा नहीं कर पाई। इस चियांग काई शेक के शासन को परोक्ष रूप से अमेरिका का संरक्षण प्राप्त हो गया यानी ताइवान अमेरिका के संरक्षण में चला गया। 1950 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने जल सेना का जंगी जहाज ‘सातवां बेड़ा’ ताइवान और चीन के बीच के समुद्र में पहरेदारी करने भेजा, जो आज भी तैनात है। 1954 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइज़न हावर ने ताइवान के साथ आपसी रक्षा संधि पर भी हस्ताक्षर किए। जिसके तहत ही अमेरिका ताइवान को हथियार सप्लाई करता है।
शुरू में ताइवान संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य था और चीन नहीं क्योंकि वहां शासक चियांग काई शेक अपने आधिपत्य वाले राज्य ताईवान को ही असली चीन कहता था इसलिए ताइवान को शासक चियांग काई शेक रिपब्लिक ऑफ चाइना कहते थे और संयुक्त राष्ट्रसंघ ने ताइवान को रिपब्लिक ऑफ चाइना के नाम से ही मान्यता दी थी (और माओ के नेतृत्व में 1949 में आजादी के बाद चीन को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का नाम दिया और आज भी चीन पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के नाम से जाना जाता है।) और उस चियांग काई शेक के शासन को अमेरिका का संरक्षण प्राप्त होने के कारण सयुंक्त राष्ट्र संघ ने ताईवान को एक स्वतंत्र देश का दर्जा दिया। किन्तु धीरे-धीरे जब विश्व में चीन का दबदबा बढ़ने लगा तो 1971 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने चीन को एक स्वतंत्र देश की मान्यता दिया और संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता भी दिया और इसी के साथ ताइवान की सदस्यता भी खारिज कर स्वतन्त्र देश की मान्यता भी खत्मकर चीन का अंग माना। धीरे-धीरे आज 180 देशों ने भी ताइवान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ चीन के साथ कूटनीतिक संबंध जोड़ लिया।
*अजय असुर*