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आत्म- दर्शन : मोक्ष का स्वरूप

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पवन कुमार
(निदेशक : काशीविश्वनाथ वास्तु-ज्योतिष संस्थान, वाराणसी)

 _आत्मा का परमात्मा से मिलन योग है, मोक्ष है। ऋषि व्यास के अनुसार  "योगस्समाधि:"। समाधि अवस्था ही योग है। समाधि की अवस्था में आत्मा , वृत्तियों से मुक्त हो कर स्वस्वरूप में स्थित होता है।_
   परमात्मा सर्वव्यापक होने से आत्मा में विद्यमान है। शांखायन आरण्यक का कथन है "आत्मनि ब्रह्म"। समाधि की अवस्था में आत्मा आत्मस्थित परमात्मा का साक्षात्कार करता है। यही कैवल्य है, मोक्ष है, अपवर्ग है। जब तक योगी की मुक्त आत्मा शरीर में रहती है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है।
   _देहावसान के पश्चात, मुक्त जीव स्वच्छन्द ईश्वर में वास करता है और परम आनन्द का अनुभव करता है । मुक्ति में जीव आनन्दमय हो जाता है, आनन्दस्वरूप नहीं होता । स्वरूप से आनन्द केवल सच्चिदानन्द परमात्मा है।_
   विज्ञानभिक्षु का कथन है : "आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठितम्" अर्थात् आनन्द ब्रह्म का स्वरूप है और वह आनन्द मोक्ष में प्रतिष्ठित है । इसी आनन्द को मुक्त आत्माएं मोक्षावस्था में अनुभव करती हैं।
   अब प्रश्न उठता है कि मोक्षावस्था में जब जीव के पास शरीर नहीं, कोई इन्द्रिय नहीं तो वह आनन्द कैसे अनुभव करता है । इसका उत्तर यह है कि यह आनन्द अतीन्द्रिय है; इन्द्रियों के अनुभव से परे है । जीव स्वस्वरूप में एवं ब्रह्म में स्थित होने से स्वतः आनन्द का अनुभव करता है।
  _इसके अतिरिक्त समाधिजन्य शरीर (परिष्कृत सूक्ष्मशरीर) जिसे तुरीय शरीर कहते हैं, वह जीव को मोक्षावस्था में आनन्द की अनुभूति में सहायक होता है।_
  स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि यदि कोई मुक्तावस्था में इन्द्रिय अनुभावित सुख लेना चाहे तो वह संकल्पमात्र से इन्द्रिय रचना कर सकता है।
  मोक्ष अवस्था में जीव ब्रह्मरूपता को प्राप्त करता है, ब्रह्म नहीं बन जाता। अल्पज्ञ जीव के लिये अनन्त ज्ञान और स्वरूप से आनन्दरहित जीव के लिये परम आनन्द की प्राप्ति ही जीव की ब्रह्मरूपता है।
  _इसका अर्थ यह नहीं कि जीव मोक्ष में परमात्मा बनकर, सर्वशक्तिमान् होकर सृष्टि रचना आदि में कार्यरत हो सकता है । ब्रह्मसूत्र स्पष्ट शब्दों में घोषणा करता है :_      *‘‘जगद्वयापारवर्जं प्रकरणादसन्निहितत्वाच्च’.*’ 
 -- वेदान्त 4.4.17
  अर्थात् जगत् के व्यवहार को छोड़कर मुक्त जीव को ऐश्वर्य भोग में स्वतन्त्रता होती है क्योंकि मुक्ति के प्रकरण में और सृष्टि रचना के प्रसंग में कहीं मुक्त का उल्लेख नहीं मिलता है । 

आदिशंकराचार्य इस सूत्र के भाष्य में लिखते हैं कि अगर मुक्त आत्माओं को भी जगद् व्यवहार की शक्तियाँ मिल जाए जो कि परमात्मा की विशिष्ट शक्तियाँ हैं तो कई परमात्मा खड़े हो जाएंगे और उनमें मतभेद हो सकता है, कोई चाह सकता है कि सृष्टि की रचना या संचालन हो और अन्य संहार।
मोक्ष अवस्था में, जैसे कि उपरोक्त युक्ति से सिद्ध है, जीवात्माएँ अपनी सत्ता बनाए रखती हैं । वे सर्वथा ब्रह्म में विलीन नहीं हो जातीं कि सत्ता ही नष्ट हो जाए । अगर जीव की सत्ता ही नष्ट हो जाए तो आनन्द का भोग कौन करेगा जिसके लिये जीव ने इतना प्रयत्न किया है।

गीता में स्पष्ट उपदेश है:
” मयि एवं निवसिष्यसि” , “माम एवं प्राप्यसि.
अर्थात् मुझे प्राप्त होगा, मेरे में निवास करेगा। यही परम धाम है, यही ब्रह्मलोक है, यही मोक्षावस्था है।
…………………………………..
ग्रहणीय संदर्भ :
1) The Soul is no longer conscious of the body or the mind; but knows that she has what she desired ; that she is where no deception can come; and that she would not exchange her bliss for all the heaven of heavens.
— Plotinus
(समाधि में मोक्षप्राप्ति की अवस्था में) आत्मा शरीर एवं मन के प्रति सजग नहीं होता ; परन्तु जानता है कि जो वह चाहता है, वह उसके पास है; कि वह वहां है, जहां कोई धोखा नहीं हो सकता; तथा वह उस आनन्द को स्वर्गों के स्वर्ग के बदले में नहीं दे सकता।
— प्लाटिनस

2) All particular spirits are contained in the Universal Spirit . The Universal Spirit exists in Itself and the particular spirits also exist in themselves ; and yet It implies them and is implied in them. Thus each particular spirit exists in itself and in Universal Spirit and the Universal Spirit exists both in each particular Spirit and in Itself.
— Plotinus
( History of Philosophy Eastern and Western Volume II Page 98. Dr S. Radhakrishnan.)
सभी आत्माएं परमात्मा में निवास करती हैं। परमात्मा की अपनी सत्ता है और आत्माओं की भी अपनी सत्ता है; फिर भी वह इनमें है और ये उसमें हैं। इस प्रकार हर व्यक्तिगत आत्मा अपने आप में विद्यमान रहती है और विश्वात्मा उन में भी रहती है और अपने आप में भी रहती है।
— प्लाटिनस

3) “No Self can go beyond the limits of selfhood, either morally (by the practice of the virtues that brake attachment)
or mystically (by direct cognitive union with the Ultimate Reality), unless it is fully aware of what it is and why it is what it is. Self-transcendence is through self-consciousness”
— Aldous Huxley
कोई भी आत्मा अपने अस्तित्व से परे नहीं जा सकती, न नैतिक तौर पर (पुण्य कर्मों से जो मोह का भंग करते हैं), न आध्यात्मिक स्तर पर ( परम सत्य के दर्शन से), जब तक यह अपने स्वयं के बारे में पूर्णतः नहीं जान लेता कि वह क्या है और क्यों ऐसा है जो वह है। आत्म उत्कर्ष आत्मज्ञान से ही सम्भव है।
— अल्डुअस हक्सली।

4) “It is the soul that is moved and awakened, It is as if God drew back some of the many Veils and coverings that are before it, so that it might see what He is”
—John Yepes on Christ’s Enlightenment
आत्मा ही ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है और जागृत होता है; मानो कि परमात्मा ने जो आवरण डाल रखा था, उसे हटा दिया है, ताकि यह उसे देख सके वह क्या है।
— जाहन यैप्स
{चेतना विकास मिशन}

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