सुधा सिंह
स्त्री या पुरुष
चरित्रहीन नहीं होतेl
चरित्र तो चरित्र है
चित्त की रचना है।
चित्त भटका तो
चरित्र गया न
न्यौछावर होने
पर बुलाया किसने ?
रूप ने रंग ने सुगंध ने
स्वरो की झंकारों ने।
मोहित कौन हुआ
सम्मोहित कौन हुआ
चरित्र? नही न।
चित्त हुआ तो दोष स्त्री को क्यों?
पुरुष को क्यों?
चित्त किसका है?
तुम्हारा है न
तो चित्त कैसे दोषी।
दोषी तो तुम हो, जो शाश्वत स्वयं की चेतना को, पूरे ब्रह्मांड के सुख को लेने के लिए, (चेतना जो चित्त रूप में शांत थी) , उसे जागृत किया।
दोषी_कौन है ?
प्रकृति के दो रूप हैं
सृजन और विघटन।
सृजन भी दो की उपस्थिति के बिना नही हो सकता।
और विघटन भी दो के बिना नही हो सकता।
दोनो ने अपने अस्तित्व को मिला दिया,
समर्पित हो गए,
अनुबंधित हो गए तो सृजन हो गया ।
अब अनुबंधित होने के लिए पहल तो होगी ही।
तो यहां दोष किस बात का?
स्वीकृति न स्वीकृति हो तो भी सृजन की प्रेरणा तो होगी ही न।
प्रकृति ने स्वजातीय सृजक को जागृत किया, उसे पुष्ट किया और प्रेरणा दी ।
सृजन विजातीयता में हो .
..तो दोष है।
इससे दृष्टि में दोष होगा और विघटन भी जल्दी होगा। सृजन और विघटन दोनो परिणामी क्रियाएं है।
चरित्रस्वजातीय है। दुष्चरित्रविजातीय है। बेमेल का है।
इसलिए दुष्चरित्र का होना
उत्तम नही है।
प्रकृति में चरित्र और गुण की ही महानता है.
गुण गुणानु वर्तते।
गुणों का व्यवहार समान गुण के साथ ही हो तो यह सद्चरित्र है।
अन्यथा चरित्र दोष है।
ज्ञान के बिना अज्ञान ही है।
तम अर्थात अंधकार।
जहां अपना पराया नहीं सूझता।
कुछ का कुछ नजर आता है।
यह ही अज्ञानता है।
यह विजातीय_धर्म दुःख का कारक है।
स्त्री और पुरुष में दोष नहीं है।
दोनो ही अपने गुणों में वर्त रहे हैं।
लेकिन विजातीयता हो तो
चरित्र दोष उत्पन्न होगा ही।
संग दोष से चरित्र दोष तो आयेगा ही।
पर किसी स्त्री या पुरुष पर दाग लगाने से पहले,
खुद के चरित्र का आंकलन जरूर कर लें l
और दोस्तों संग दोष से निरत रहो।
जल में कमल बनो।
और फिर देखो..
आप संग दोष से बच जाओगे,
सृजन भी होगा और सुंदरता भी बढ़ेगी.