नरेन्द्र कुमार
जाति को खत्म करने की बात लगातार चर्चा में रहती है अक्सर जाति उत्पीड़न की समस्या को आरक्षण के सीमाओं में कैद कर दिया जाता है। एक पक्ष इस तरह से बहस करता है कि आरक्षण के कारण ही ऊंची जाति के लोग बेरोजगार हैं, तो दूसरी तरफ पिछड़ावादी और दलितवादी पूंजीवादी सिद्धांतकार ऐसे पेश करते हैं कि यदि सही ढंग से आरक्षण दे दिया जाए, तो उनकी बेरोजगारी खत्म हो जाएगी। इन दोनों के बीच पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजी के मालिकों पर प्रहार ना करें के मुद्दे पर एकता है। तो यहां प्रश्न यह किया जाना चाहिए कि जाति और बेरोजगारी के बीच में क्या संबंध है?
जब तक बेरोजगारी की भयावहता है, शहरों में सम्मानजनक काम नहीं मिलता है, उद्योगों और विकसित क्षेत्रों में रोजगार का निर्माण नहीं होता है, तब तक परंपरागत क्षेत्र से जुड़ी जातियां कमोबेश उस काम में जुड़ी ही रहेंगी। ऐसी स्थिति में जाति और बेरोजगारी का संबंध एक दूसरे को बनाए रखने का है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि जाति के प्रश्न को किस दृष्टिकोण से उठाया जा रहा है। एक जमात जाति को बनाए रखना चाहता है अपनी श्रेष्ठता को कायम रखने के लिए और दूसरा जाति को बनाए रखना चाहता है इस पूंजीवादी व्यवस्था में हिस्सेदारी के लिए। एक तीसरा पक्ष है जो जाति को खत्म करना चाहता है जनवादी समाज बनाने के लिए जो कि पूंजीवाद के कब्र पर ही बन सकता है। तो जिन लोगों को पूंजीवाद ने धनी बनाकर जाति तौर पर श्रेष्ठता का गौरव महसूस करने में मदद करता है, भला क्यों चाहेंगे कि जाति खत्म खत्म हो, और फिर वह भी क्यों चाहेंगे कि जाति खत्म हो जिनको पूंजीवाद के ऐश्वर्य से आकर्षण है सिर्फ शिकायत यह है कि उनकी अपनी जाति की आबादी के हिसाब से उन्हें हिस्सेदारी नहीं मिल रही है।
दोनों ही अपनी-अपनी जाति के मेहनतकशों के साथ धोखा करते हैं। दोनों ही उनके नाम पर पूंजीवाद से उस जाति के कुलीन वर्ग के रूप में खिराज वसूलने की कोशिश में जुटे रहते हैं। इसलिए जाति को खत्म करने के लिए और इन जातियों के इन तमाम कुलीनों को खत्म करने के लिए पूंजीवाद का खात्मा आवश्यक है।
*नरेन्द्र कुमार*