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देंगे दुःख कबतक भरम के ये चोर?

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शशिकांत गुप्ते

दूसरें की थाली में घी ज्यादा ही नजर आता है। इसीतरह की यह भी कहावत है कि अधिकांश लोग इसलिए दुःखी रहतें हैं कि, पड़ौसी सुखी है।
उक्त दोनों कहावतों में उन लोगों पर व्यंग्य है जो लोग या तो दूसरें को खुश देख जलतें हैं। या स्वयं अपराधबोध के शिकार होतें हैं।
ऐसे लोग हमेशा Frustration में मतलब कुंठित ही रहतें हैं।
कुंठाओं से ग्रस्त होने के कारण इन्हें दूसरों में सिर्फ बुराई ही नजर आती है। ऐसे लोग संकुचित मानसिकता के रोगी होतें हैं।
व्यंग्यात्मक भाषा में कहा जाए तो ऐसे लोगों की समझदानी बहुत छोटी होती है।
ऐसे लोग स्वयं के दिमाग़ का बहुत कम उपयोग कर पातें है। ये लोग संकीर्ण मानसिकता से बनी हुई धारणाओं पर ही अपना सोच बनातें हैं। जैसे एक ही व्यक्ति के पास दिमाग़ है। किसी एक दल में सभी ईमानदार लोग हैं, विपक्ष में सभी भ्रष्ट्राचारी हैं। ऐसे लोगों को विकल्प नजर ही नहीं आता है।
“समाजवादी विचारक चिंतक स्व.किशन पटनायकजी एक पुस्तक लिखी है। विकल्पहीन नहीं है दुनिया इस पुस्तक में लेखक ने तथा कथित बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि, भ्रम फैलाने में इन छद्म बुद्धिजीवियों का बहुत योगदान रहता है।”
यथास्थितिवादियों को सच्चाई कभी भी बर्दाश्त नहीं होती है। ऐसे लोग हमेशा illusion मतलब भ्रम में ही रहतें हैं।
ऐसे लोगों को भ्रमित करने के लिए यथास्थितिवादियों द्वारा सुनियोजित षडयंत्र रचा जाता है।
यथास्थितिवादी हमेशा परिवर्तन के विरोधी होतें हैं। ये लोग भ्रमित लोगों का मानसिक और शारीरिक श्रम का शोषण करतें हैं।
ऐसे भ्रमित लोगों को देश की मूलभूत समस्याएं नजर नहीं आती है।
भ्रमित लोग जघन्य अपराधियों का भी स्वागत करने में संकोच नहीं करतें है। ऐसे अपराधियों को संस्कारवान कहने में भी इन्हें कोई
संकोच नहीं होता है।
इस संदर्भ में सन 1962 में प्रदर्शित फ़िल्म सूरत और सीरत के इस गीत की निम्न पंक्तियाँ प्रासंगिक है। इस गीत के गीतकार है ,शैलेंद्रजी

देंगे दुःख कब तक भरम के ये चोर
अरे ढलेगी ये रात प्यारे फिर होगी भोर
कब रोके रुकी है समय की नदियां
घबरा के यूँ गिला मत कीजे

अति का अंत सुनिश्चित है। अति वो ही करतें हैं जिनकी मति मारी जाती है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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