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परसाई के मिथकीय व्यंग्यों में शिक्षा संस्थान

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सुसंस्कृति परिहार

     हरिशंकर परसाई व्यंग्य की दुनिया का एक ऐसा नाम जिसने व्यंग्य को विधा के रूप में ना केवल लोकप्रिय बनाया ,सम्मान दिलाया बल्कि व्यंग्य लेखकों की एक ऐसी पंक्ति तैयार की जिसने खरी खरी कहने की परसाई परम्परा को आगे बढ़ाया । उनके व्यंग्यों से जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रहा जिस पर उन्होंने ईमानदारी से कलम ना चलाई हो । उन्होंने अपना भी विश्लेषण जिस साफगोई से किया वह विलक्षण ही नहीं साहित्य में दुर्लभ है ।यह हरिशंकर परसाई को औरों से अलग करता है ।

                   बहरहाल हम यहां उनके उन मिथकीय  व्यंग्यों की चर्चा करेंगे जो काफी लोकप्रिय हुए और पोंगापंथियों के बीच ना केवल कसक छोड़ गये बल्कि समाज के शिक्षा संस्थानों की हालात का रहस्योद्घाटन भी कर गये ।”लंका विजय के बाद “परसाई के एक व्यंग्य लेख में देखें वे लिखते हैं लंका विजय के बाद अयोध्या में आए वानरों ने बड़ा ही उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया । वे परिश्रम करना नहीं चाहते थे ।क्योंकि उन्होंने रावण के संग संग्राम में बड़ा ही परिश्रम किया था ।उनकी दिलचस्पी अब अयोध्या के विविध क्षेत्रों में उच्च पदों को पाने की थी ।  ताकि वे अयोध्या पर शासन कर सकें ।जब उन पदों पर योग्यता की बात आती है वे कहते हैं युद्ध के दौरान उनके शरीर पर लगे घाव ही उनकी योग्यता के प्रमाण हैं ।वे राजा रामचंद्र से मांग करते हैं कि वे घावों की  संख्या के आधार पर उनकी योग्यता निर्धारित करके शासन के पद दें ।अयोध्या में दफ्तर  खुलता है और वहां के अधिकारी को अपने घाव दिखाकर प्रमाण पत्र मिलने लगते हैं ।एक वानर अपने शरीर पर घाव ना देखकर  परेशान है ।राम रावण युद्ध के कारण चूंकि वह भाग गया था और रावण की मृत्यु के बाद अयोध्या लौटने वाली वानर सेना के साथ हो गया इसलिए उसके शरीर पर उस समय कोई घाव नहीं थे औरअब क्योंकि घाव गिनकर पद मिल रहे हैं इसलिए वह शरीर पर घाव बनाता है ।उसकी पत्नी पूछती हैं । हे नाथ आप कौन सा पद लेंगे तो वह कहता है कि मैं कुलपति बनूंगा मुझे बचपन से विद्या से प्रेम है ।मैं ऋषियों के आश्रम के आसपास मंडराता रहा हूं ।मैं विद्यार्थियों की चोटी खींचकर भाग जाता था तथा हवन सामग्री तथा एक बार तो ऋषि का कमंडल ही ले भागा । इसी से तुम मेरे विद्या प्रेम का अनुमान लगा सकती हो। मैं कुलपति ही बनूंगा । 

         इस मिथक के जरिए उन्होंने शिक्षा संस्थानों में हो रही नियुक्तियों का पर्दाफाश किया है साथ ही यह भी कोशिश की गई है कि किस तरह अक्षम अध्यापक और अधिकारी पदों पर विराजमान हो रहे हैं ।इसके लिए,झूठे प्रमाणपत्र पेश किए जा रहे हैं साथ ही साथ चुनावी दौर में सहयोग करने वालों का यूं ही कर्ज का भुगतान भी हो रहा है । परसाई का आज़ादी के चंद सालों बाद ही सरकार से उनका मोहभंग हो गया था ।शिक्षा और शिक्षा संस्थानों की इस हालत में कैसे युवा तैयार हुए हम देख रहे हैं । छात्रों का बौद्धिक विकास कुंठित हो रहा है ।अब तो बिना आई ए एस और आई पी एस को नियुक्त किया जा रहा है

              छात्रों की इसी मनोदशा को परसाई जी एकलव्य ने अपने गुरु को अंगूठा दिखाया में गुरू द्रोणाचार्य के बारे में लिखते हैं एक विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रतिष्ठित अध्यापक थे द्रोणाचार्य ।पदक्रम में वे रीडर कहलाते थे ।रीडर(पढ़ने वाला) उस अध्यापक को कहते थे जिसे पढ़ना नहीं आता था और वह पाठ्यक्रम को कुंजी से कक्षा में पढ़कर काम चला लेता था ।कुछ छात्रों पर विशेष ध्यान देने वाला त्रिशंकु बेचारा ऐसा ही अध्यापक था जो किसी शहर के एक गंदे मोहल्ले के एक छोटे से कच्चे मकान में रहता था ।मकान मालिक के जो बेटे उसकी कक्षा में पढ़ते थे वह उनका बहुत ध्यान रखता था । परीक्षा के मौसम में उन्हें महत्वपूर्ण प्रश्न बता जाता था और अधिक नंबर भी देता था ।सोचता था मकान मालिक उससे प्रसन्न होकर पूछेगा तुझे क्या चाहिए और मैं कहूंगा एक अच्छा सा मकान। एकलव्य ने गुरू को अंगूठा दिखाया में गुरू द्रोणाचार्य की अपने प्रिय शिष्य अर्जुनदास को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कराने के लिए जब एकलव्य दास ने अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरु दक्षिणा के रूप में प्रस्तुत करने का आग्रह किया तो वह कहता है मैं बांए हाथ से भी कुशलता से परीक्षा दे सकता हूं तब आचार्य क्रोधित और दुखी हुए ।उसी शाम उन्होंने अर्जुनदास से कहा एकलव्य का अंगूठा मैं नहीं ले सका ।पर मेरे पास एक अकाट्य दांव भी है जिससे वह बच नहीं सकता तुम्हारा एक पेपर मुझे जांचने मिलने वाला है और दूसरा मित्र देवदत्त शर्मा को ।इन दोनों में तुम्हें 100में से 99अंक मिल जायेंगे और तुम एकलव्य दास से आगे निकल जाओगे । समसामयिक हालातों पर मिथक के सहारे परसाई जी छात्रों के साथ हो रहे व्यवहार को सामने रखते हैं ।

        अब छात्रों का क्या दोष ?वे गुरूजनो की मन: स्थितियों का फायदा उठाकर गुरु सेवा में तत्पर रहते हैं और पढ़ने से दूरी बना लेते हैं ।वह गुरु पत्नियों की कलंक कथाएं सुनासुना कर खुश रखता है ।सिनेमा ,नाटक दिखाता है अपने गुरु का पूरा ध्यान रखता है । छात्रों की इस मानसिकता के निरंतर विस्तार पर परसाई की चिंता समाज को नहीं झकझोरती । छात्रों का हुजूम भी इस व्यवस्था के प्रति नतमस्तक हो जाता है चंद लोग जो प्रतिरोध धश करते हैं उन्हें रेस्टीकेट कर अपराध की ओर धकेल दिया जाता है । 

                 वर्तमान दौर में धनसम्पदा को महत्त्व देकर ज्ञान को किस तरह से निम्न दिखाने की निरंतर कोशिशें हो रही हैं लक्ष्मी की विजय व्यंग्य में परसाई उस घटनाक्रम का वर्णन करते हैं जिसके प्रारंभ में देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु से संसार में धन वितरण करने का दायित्व अपने कंधे पर ले लेती हैं जिसे आगे चलकर अपना अधिकार मानकर धन का दुरुपयोग करती हैं ।मूढ़मतियों को धन देकर उनसे सम्मान और पूजा प्राप्त कर लेती हैं । बुद्धिमान और सदाचारी को कुछ नहीं देती और जिससे वह अत्यंत दुखी रहते हैं ।इस संदर्भ में वह भगवान विष्णु से कहतीं हैं महराज ये दुष्ट है यह वीणा लिए हुए सरस्वती की पूजा करते हैं ।बस इसीलिए इनका यह हाल है ।देखती हूं ,सरस्वती कैसे इनका पेट भरती है ? अभिप्राय यह कि समाज में आज ज्ञान सम्मानहीन धनहीन है और मूढ़मति लक्ष्मी की कृपा से धन और ऐश्वर्य के साथ सम्मान पा रहे हैं ।

           वास्तव में परसाई ने सामाजिक व्यवस्था खासकर शिक्षा संस्थानों की चीर फाड़ कर यह जताने की पुरजोर कोशिश की कि यदि इस बदरंग व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया गया तो स्थितियां भयावह होंगी ।शिक्षा,नौकरी ,व्यवसाय, राजनीति सब पूंजीपतियों के पास पहुंच जायेगी । अफसोसनाक यह कि हम तेजी से इसी दिशा में बढ़ रहे हैं । आज परसाई के पुनर्पाठ की जरूरत है ताकि नई पीढ़ी इस खौफ़ज़़दा माहौल से विमुक्ति का पैगाम ले सके ।

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