विनीत
एक थे वीर और एक थी बुलबुल अंडमान में रहते थे
है ये कहानी बिलकुल सच्ची दक्कन वाले कहते थे
बुलबुल कुछ ऐसे उड़ती थी जैसे अफ़वाहें उड़ती हों
वीर सकोची यूं, जैसे प्रश्नों से सरकारें डरती हों
बुलबुल को मालूम नही था वीर ऐसे क्यों सकुचाता था
वो क्या जाने उसका उड़ना वीर के दिल को भरमाता था
दिल के भेद ना आते लब पर ये दिल में ही रहते थे
है ये कहानी बिलकुल सच्ची दक्कन वाले कहते थे
लेकिन दिल की बात भला ऐसे भी कितने दिन छुपती है
नहीं रहा ‘की-होल’ कोई पर बुलबुल मिलने आ पहुँची है
आख़िर जान लिया बुलबुल ने वीर को लेकर उड़ जाना है
तुमको पसंद आया हो तो बोलूं फिर आगे जो अफ़साना है
बुलबुल के पंखों पर बैठे वीर बड़े मसरूर हुए
मातृभूमि दर्शन के किस्से दक्कन में मशहूर हुए
साथ उड़ेंगे छितराएँगे वे दोनों ये कहते थे
है ये कहानी बिलकुल सच्ची दक्कन वाले कहते थे
फिर इक दिन की बात सुनाऊं कुछ अंग्रेज़ चमन में आए
ले गए वो बुलबुल को पकड़के वीर से भी सॉरी बुलवाए
शायर लोग बयां करते हैं ऐसे उनकी उड़ान की बातें
गाते थे ये गीत वो दोनों उड़े बिना नहीं कटती रातें
मस्त बहारों का मौसम था आँख से आंसू बहते थे
है ये कहानी बिलकुल सच्ची दक्कन वाले कहते थे
आती थी आवाज़ हमेशा ये झिलमिल-झिलमिल तारों से
जिसका नाम मुहब्बत है वो कब रुकती है दीवारों से
इक दिन माफ़ीनामा आख़िर उस पिंजरे से जा टकराया
टूटा पिंजरा छूटा कैदी साठ रूपये का पेंशन पाया
रोक सके ना उसको मिलके सारा ज़माना सारी ख़ुदाई
बुलबुल वीर का गीत सुनाने फिर किताब में वापस आई
याद सदा रखना ये कहानी चाहे जीना चाहे मरना
तुम भी किसी के साथ रहो तो साथ वीर-बुलबुल से रहना
विनीत