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राष्ट्र-चिंतन : सियासत में भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार में सियासत

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मीना राजपूत

1974 में जयप्रकाश आंदोलन आरम्भ हुआ था. उसका प्रमुख नारा था – भ्रष्टाचार का विरोध और शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन.
बाद में जेपी ने अपनी समाजवादी -सर्वोदयवादी दार्शनिकता से उसे मंडित किया और उसमें दलविहीन जनतंत्र की छौंक लगाई.
फिर इस पूरे आंदोलन को सम्पूर्ण क्रांति की संज्ञा दी.
आज इतने सालों में हम और बुरे दौर में आ गए. जयप्रकाश आंदोलन उन सामाजिक -राजनीतिक हालातों से निकला था ,जो आज भी बने हुए हैं. बल्कि स्थितियां अधिक विकृत हुई हैं.

1974 में आंदोलन को बल देनी वाली शक्तियां क्रांतिकारी नहीं थीं. वह दक्षिणपंथी कांग्रेसियों के साथ हताश समाजवादियों और जनसंघियों ( तब की भाजपा ) के गठजोड़ का प्रतिफल था. जेपी का संतनुमा व्यक्तित्व इसे अपने विराट आकर्षण से बांधे हुए था.
चौदह महीने चलने वाला यह आंदोलन आरम्भ से ही अंतर्विरोधों का शिकार था. दरअसल 1974 में जब आंदोलन आरम्भ हुआ था, तब बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल ग़फ़ूर थे जिनकी ईमानदारी की कदर जेपी भी करते थे.
शिक्षा के हालात आज के मुकाबले तो बेहतर थे ही, 1967 -72 के मुकाबले भी बेहतर थे . 1972 में केदार पांडे बिहार के मुख्यमंत्री थे और डॉ रामराज सिंह शिक्षा मंत्री . इन दोनों के प्रयास से परीक्षाओं में कदाचार पूरी तरह रोक दिया गया था.
रामराज बाबू की तरह का काबिल शिक्षा मंत्री बिहार में तब से आज तक नहीं हुआ. 1974 में शिक्षा मंत्री वही थे. यह जेपी आंदोलन की हकीकत थी कि वह एक ईमानदार मुख्यमंत्री और काबिल शिक्षा मंत्री के कार्यकाल में हुआ.
यही सब इसका अंतर्विरोध था. हम इसकी व्याख्या अभी नहीं करना चाहेंगे.

मेरा ध्यान इस तथ्य पर है कि उस आंदोलन से निकले दो नेताओं के हाथ बिहार पिछले तीन दशक से अधिक से है और भ्रष्टाचार और शिक्षा के हालात जैसे हैं उसे आप बेहतर जानते हैं.
1990 में अचानक से कोटा -पॉलिटिक्स के तहत सामाजिक न्याय का एक बैनर इस पूरी पॉलिटिक्स पर जरूर लग गया,जिसने सामाजिक न्याय की भावना और उद्देश्यों को समझे बगैर कुल मिला कर एक जातिवादी उन्माद पैदा किया.
यह सही था कि बिहार के सामाजिक -राजनीतिक जीवन में जातिवादी आग्रह कांग्रेसी राज से ही बने हुए हैं. कांग्रेसी राज में वर्चस्व ऊँची कही जाने वाली जातियों का था, 1990 के बाद वह वर्चस्व पिछड़े वर्ग की दो दबंग जातियों में सिमट कर रह गया.
सबसे बड़ी बात यह हुई कि 1996 में इस पूरी राजनीति के अगुआ लालू प्रसाद को भ्रष्टाचार के अपराध में सीबीआई ने धर दबोचा और एक नाटकीय शैली में उन्हें 1997 में जेल जाना पड़ा. तब से आज तक वह जेल के चक्कर में पड़े हुए हैं.
बाद के दिनों में उन पर भ्रष्टाचार के और भी आरोप लगे,जिसकी जांच चल रही है.

इनदिनों भी उसी सिलसिले में सीबीआई सक्रिय है. लालू प्रसाद और उनके लोगों के ठौर -ठिकानों पर लगातार छापेमारी हो रही है. उस पर पक्ष -विपक्ष में सवाल उठ रहे हैं.
नई पीढ़ी के लोगों को लग रहा है कि मौजूदा मोदी सरकार सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता. सरकारें चाहे कोई भी हों, यह सब करती रहती हैं. दुनिया भर में यह होता आया है. लेकिन जनता यह भी देखती है कि साँच को आंच क्या.
अंग्रेजी हुकूमत के दौरान तिलक और गांधी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. लेकिन जनता उनकी जीवन शैली देख रही थी. उनके बाल -बच्चों को देख रही थी.
उसी बिहार में कर्पूरी ठाकुर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. किसी ने यकीन नहीं किया. क्योंकि जनता देख रही थी कि कर्पूरी जी का कहीं महल- बावड़ी तो दिख नहीं रहा है. उनके बाल -बच्चे भी वैसे ही दिख रहे हैं.

और तो छोड़िए इस बीच राजनीतिक विफलताओं की चाहे जितनी चर्चा हो ले ,कोई आदमी नीतीश कुमार के आर्थिक भ्रष्टाचार की बात नहीं करता. यह अलग बात है कि उनके संरक्षण में भ्रष्टाचार फल फूल रहा है और उस पर रोक लगाने में वह विफल हैं.
क्या लालू प्रसाद पर लग रहे आरोप किसी खास मनसा से लग रहे हैं? क्या भाजपा उन्हें उनके भाजपा विरोधी राजनीतिक स्टैंड के कारण परेशान कर रही है?
इस सवाल का जवाब शायद हर उस व्यक्ति के पास होगा जिसकी उम्र पचास के इर्द -गिर्द है.
जब 1994 के जून में जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में जनता दल के चौदह सांसदों ने एक साथ विद्रोह करते हुए जब एक अलग राजनीतिक धड़ा बनाया तब प्रमुख मुद्दा पार्टी में लालू प्रसाद की कार्यशैली थी.
यह ठीक है कि तब लालू बदनाम नहीं हुए थे. उनसे रंजिश केवल उन नेताओं की थी जो उनसे मिलते -जुलते थे. लालू पर सत्ता का मद हावी हो रहा था और यह बात उनके पुराने मित्रों को अखरती थी साथ बैठने वाला आदमी अब कोई भाव ही नहीं दे रहा है.

1995 के विधानसभा चुनाव में चारा घोटाला मुद्दा नहीं था. यह मुद्दा उठा जनवरी 1996 के बाद. जनवरी 1996 तक लालू प्रसाद हीरो थे. इसी समय हवाला भ्रष्टाचार का मुद्दा उठा और जनता दल अध्यक्ष एस आर बोम्मई को इसमें लिप्त होने के कारण जनता दल अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा.
लालू प्रसाद दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए, क्योंकि दल में उनका रुतबा काफी प्रभावी था. उनकी त्वरित टिपण्णी थी – “हवाला ने पार्टी का अध्यक्ष पद मेरे हवाले कर दिया.” हवाला भ्रष्टाचार प्रकरण ने लालू की राजनीतिक औकात बढ़ा दी थी .
लेकिन कौन जानता था कि इतनी जल्दी वह चारा मामले में फंस जाएंगे. चारा घोटाले के मामले में इन्हे किसी ने फंसाया नहीं था. खुद फंसे थे.
जब उन्हें लगा कि इस मामले में वह उलझ सकते हैं तब इन्होने मामले को रफा -दफा करने की कोशिश की. मामले को उठाया था मंत्री जगदानंद सिंह और अफसर विजय शंकर दुबे ने. यहीं आकर भाजपा -समता पार्टी के लोगों को लगा कि पूरे मामले की जाँच सीबीआई द्वारा हाई कोर्ट की निगरानी में होनी चाहिए.

लालू प्रसाद के लोग इस पर आपत्ति करने लगे. 1 मार्च 1996 को पटना में मामले की निष्पक्ष जांच की मांग को लेकर एक छोटा-सा प्रदर्शन हुआ,डाकबंगला चौराहे पर.
नीतीश जी के साथ कुल जमा दर्जन भर लोग रहे होंगे. डाकबंगला चौराहे पर मुश्किल से दो -ढाई सौ लोग जमा हुए थे. पुलिस की हलकी लाठियां भी चली. दिवंगत विनय सिन्हा और रेणु कुशवाहा की पीठ पर चोट के निशान आए थे जिसे प्रेस कॉन्फ्रेंस में नीतीशजी ने पत्रकारों को दिखाया.
तब संघर्ष का यही हाल था. इसी समय पटना हाई कोर्ट में शिवानंद तिवारी , सरयू राय और सुशील मोदी ने और इसी के रांची बेंच में ललन सिंह और वृष्णि पटेल ने एक याचिका दायर की कि इस मामले को सीबीआई हाई कोर्ट की निगरानी में जांच करे.

अब लालू प्रसाद के मंत्री -अफसर कहने लगे कि सीबीआई जांच के पूर्व राज्य सरकार से इज़ाज़त लेने केलिए बाध्य है. लेकिन फाइलों के खंगालने के क्रम में पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के कार्यकाल का एक सरकारी फैसला सामने आया जिसमें मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने टिप्पणी की थी कि यदि भ्रष्टाचार के किसी मामले में सीबीआई को प्रतीत होता है कि उसे जांच करनी चाहिए तो उसे करनी चाहिए.
इसके लिए राज्य सरकार से इज़ाज़त लेने की आवश्यकता नहीं है. यह समाचार अख़बारों में छपा तो लालू सरकार की थू-थू हुई. बाद में हाई कोर्ट ने फैसला दे दिया कि उसकी निगरानी में सीबीआई जांच होगी.

इस बीच लोकसभा चुनाव हुए और देश में जनता दल नेता देवगौड़ा के नेतृत्व में सरकार बनी. सीबीआई जांच इसी कार्य काल में हुए. जनता दल सरकार के कार्यकाल में. तब उस दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद ही थे.
यानी उन्ही की सरकार में उनके खिलाफ जांच हुई. जनता दल के नेताओं ने जिसमें शरद यादव प्रमुख थे आवाज उठाई कि बोम्मई की तरह लालू को भी इस्तीफा करना चाहिए. अब हवाला ने अध्यक्ष पद मेरे हवाले किया का जुमला उछालने वाले नेता की घिग्गी बंध गई. वे इस्तीफा नहीं देने पर अड़ गए.
नतीजतन दल विभाजित हो गया. 5 जुलाई 1997 को लालू प्रसाद ने अलग पार्टी बना ली राष्ट्रीय जनता दल. बीस रोज बाद 25 जुलाई को सीबीआई ने उन्हें गिरफ्तार किया अथवा वह कोर्ट में सीधे हाजिर हो गए. अब बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी बन गईं.

आज जो लोग लालू प्रसाद के सिपहसलार बन कर उनके लिए भ्रष्टाचार की नैतिकता तलाश रहे हैं उन्हें पूरे मामले को ध्यान में रखना चाहिए.
यह राजनीतिक त्रासदी ही है कि जिन लोगों ने उन पर मुकदमे किए वे आज उनकी तरफदारी कर रहे हैं और उनके प्रवक्ता बन गए हैं. राजनीति में ऐसी बेहयाई शायद हमेशा चलती रही है.
सबसे अधिक विवश नीतीश कुमार दिख रहे हैं. लगातार तीन दफा ( 2013 , 2017 और 2022 ) चुनावी जनमत को अंगूठा दिखा कर उन्होंने राजनीतिक अवसरवाद का परिचय दिया है.
इसके लिए उनकी आलोचना होती रही है और होगी . लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोप उनके शत्रु भी उन पर नहीं लगाते. यही उनकी व्यक्तिगत राजनीतिक पूँजी है. उनके छुटभैय्ये नेताओं का कोई इतिहास नहीं बनना है.
अधिक से अधिक वे इनके या उनके चापलूस कहे जाएंगे. जनता आज भी उन्हें गाली देती है,कल भी देगी. लेकिन नीतीश कुमार ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यदि थोड़ी से भी कमजोरी दिखाई तो उनकी मिटटी पलीद हो जाएगी.

2017 में उन्होंने कहा था कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह कोई समझौता नहीं करेंगे. आज वह क्या करेंगे यह जनता देखना चाहेगी.
छुटभैय्ये नेताओं के सीबीआई विरोधी बयानों पर उन्हें रोक लगानी चाहिए और उन्हें अपना ही पुराना वक्तव्य दुहराना चाहिए – ”कानून अपनी तरह से अपना काम करेगा . न हम किसी को फँसाएगे , न बचाएंगे.’ अपने इस स्टैंड से वह यदि हटेंगे तो कहीं के नहीं रहेंगे.”
{चेतना विकास मिशन)

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