विजय शंकर सिंह
जमानत के बाद तीस्ता सीतलवाड, जेल से बाहर आ गईं। जिन आरोपों पर, तीस्ता जेल में बन्द थीं उसी मुकदमे में जस्टिस खानविलकर की फैसले में दी गई टिप्पणी के आधार पर, गुजरात के रिटायर्ड डीजी आरबी श्रीकुमार भी जेल में बंद हैं। अब आरबी श्रीकुमार की जमानत का इंतजार है। जस्टिस खानविलकर ज़किया जाफरी की पुनः जांच की याचिका के मामले में, 25 जून को अपना फैसला सुनाते हैं और 26 जून को, गुजरात पुलिस, उक्त फैसले में अंकित कुछ अंशों के आधार पर मुकदमा दर्ज कर, तीस्ता सीतलवाड और आरबी श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लेती है।
क्या यह पहले से तय था, कि फैसले में तीस्ता और श्रीकुमार पर साजिश गढ़ने की बात लिखी जाएगी और दूसरे ही दिन, इन दोनो को, जेल भेज दिया जायेगा या यह महज संयोग है कि जस्टिस खानविलकर, ने कुछ प्रतिकूल टिप्पणी की और दूसरे ही दिन, गुजरात पुलिस, जीडी में रवानगी दर्ज कर, दोनो को, गिरफ्तार करने के लिए मुंबई की ओर निकल पड़ी! जो भी हो, लेकिन, जस्टिस खानविलकर का ज़किया जाफरी मामले में दिया गया फैसला, जो उनके रिटायरमेंट के कुछ ही दिन पहले आया है, देश के न्यायिक इतिहास में एक विवादित फैसले के रूप में जाना जाएगा।
तीस्ता एक सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और यह उनका काम है कि, वे लोगों को अन्याय के खिलाफ जागरूक करें, उनको कानूनी राय दिलवाएं, उनके लिए कानूनी सहायता उपलब्ध कराएं और यह सब करना न तो कोई अपराध है और न ही अनैतिक। उन्होंने वही किया। पर यह कहा गया कि उन्होंने कुछ दस्तावेज़ फर्जी बनाए। अगर दस्तावेज फर्जी बनाए तो, एसआईटी जिसके काम की प्रशंसा अदालत कई बार कर चुकी है, ने तीस्ता के खिलाफ जांच के ही दौरान कोई मुकदमा क्यों नहीं दर्ज कर के कार्यवाही की। दस्तावेज फर्जी हैं और यदि सुप्रीम कोर्ट ने कोई फ्रॉड पाया तो कानूनी कार्यवाही, अदालत को ही करनी चाहिए थी। आखिर तीस्ता की जमानत के मामले पर विचार करते हुए, सीजेआई ने यह टिप्पणी भी की थी, कि एफआईआर में, सिवाय जस्टिस खानविलकर के फैसले के अंशों के, कुछ भी नहीं है। फिर जिस तरह से बिना पूरी विवेचना किए, पुलिस गिरफ्तारी के लिए दौड़ पड़ी, उससे तो यही पता चलता है कि, सरकार का उद्देश्य, मुकदमे की प्रोफेशनल तफ्तीश नहीं कुछ और ही था और जो था और है, वह पोशीदा नहीं है।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उल्लिखित शब्द, kept the pot boiling, ही नरेंद्र मोदी की असल मुसीबत है। लंबे समय तक यह मामला क्यों जिंदा रखा गया, लोग इसे भुला क्यों नहीं देते हैं, यह असल समस्या है और दंगो में मारे गए निर्दोष नागरिकों का प्रेत इन्हें, अब भी घेरे रहता है। न केवल गुजरात दंगे में मारे गए एहसान जाफरी और उनकी सोसायटी के लोग, बल्कि, हरेन पांड्या की हत्या से लेकर, सीबीआई के जज बीएम लोया की संदिग्ध मौत का प्रेत आज भी, सरकार के सबसे महत्वपूर्ण लोगों को अपनी गिरफ्त में यदा कदा लेते रहता है।
तीस्ता अब बाहर हैं। पर यह उनकी अंतरिम जमानत है। उन्हे नियमित जमानत लेनी होगी, जिसका मामला गुजरात हाईकोर्ट में अभी भी लंबित है। पर जिन मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम जमानत तीस्ता को दी है, वे विंदु लगभग जमानतीय अपराध के हैं और मुझे लगता हैं, इस मुकदमे में, उन्हे जमानत, मिल भी जायेगी। सुप्रीम कोर्ट ने अब बर्तन को बर्नर से, उतार लिया है, पर यह भी अंत नहीं है। कल कोई नया प्रकरण सामने आता है तो उसमे भी याचिका दायर हो सकती है। पर फिलहाल तो बर्तन को ठंडा किया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट की इस बात के लिए भी आलोचना की जा रही है कि, उसने जल्दबाजी में, गुजरात दंगो से जुड़ी सारी याचिकाएं निपटा दीं, पर यहीं एक सवाल यह भी उठता है कि, आखिर किसी मामले को अदालत, कब तक या कितनी अवधि तक के लिए, लंबित रख सकती है। फिलहाल तो तीस्ता, आजाद हैं और उस मुकदमे में भी, कुछ होना जाना नहीं है। सरकार का एक ही उद्देश्य था, अपनी हनक और खीज जताना और डराना जो उसने तीस्ता को, 26 जून से जेल में रख कर पूरा करने की कोशिश कर भी ली।
(विजय शंकर सिंह)