अग्नि आलोक
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 सप्ताह की शुरुवात 10 शानदार कविताओं के साथ

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मैं आम्बेडकर बोल रहा हूँ-2*

तुम सब ने
मेरे उन निर्रथक शब्दों को पकड़ लिया है
जो एक भौतिक परिस्थितिवश कहे गए थे
जैसे जातिप्रथा अभेद्य दीवार है
और तुम इसका सहारा लेकर
मान्यवर कांशीराम साहब के पास चले गए
और सत्ता के राजनीतार्थ
वोट का ध्रुवीकरण करने के लिए
जाति को ही मजबूत करने लगे;
आरक्षण इस आशय से स्वीकार किया था
ताकि कुछ वर्षों में तुममें से कुछ लोग
संघर्ष करने के लिए शिक्षा और धन ग्रहण कर सकें
लेकिन तुम तो उसी को
मुक्ति का साधन मान बैठे;
बौद्ध धम्म मैंने स्वीकार किया
उसका कारण यह नहीं था
कि वह तुम्हें हिन्दू धर्म से मुक्त कर देगा
बल्कि इसलिए ऐसा किया था
ताकि तुम्हारा एक संघ तैयार हो जाय
जहाँ तुम बेजाति रह सको
और अवैज्ञानिक-अभौतिक चिंतन-गिरोहों से लड़ सको
लेकिन दुर्भाग्य
तुम धम्म में गए ही नहीं
और जो गए
वे जाति को वहाँ भी चिपकाए बैठे हैं;
मैंने बुद्ध को प्रेफर किया था
जिससे हिंसा न हो
हिंसा में ग़रीब ही अधिक मारे जाते हैं
तो तुम सब मार्क्स को विरोधी मान बैठे;
मेरा अंतिम धेय
संसदीय लोकतंत्र सहित राजकीय समाजवाद है
शिक्षा और रोजगार
तुम्हारे सम्मान का रास्ता खोलता है
लेकिन तुम्हारा सारा फोकस सम्मान पर हो गया
जबकि पेट में चारा बग़ैर
सम्मान की लड़ाई बहुत दिनों तक नहीं लड़ी जा सकती है;
अगर तुमने मेरी यह बात समझ ली होती कि
उत्पादन का उद्देश्य मुनाफ़ा नहीं,
लोकहितपूर्ति होनी चाहिए
संपत्ति और उत्पादन के संसाधन को
व्यक्तिगत हाथों में नहीं,
बल्कि उसका राष्ट्रीयकरण होना चाहिए
निजी हाथों में केंद्रित संपत्ति और संसाधन
विसंगतियों को जन्म देते हैं
इसलिए राजकीय समाजवाद ही विकल्प है
मैंने कहा था
मैं राजकीय समाजवाद को
क्रांति और तानाशाही द्वारा नहीं अर्जित करना चाहता हूँ
अतः मैं बुद्ध की करुणा को प्रेफर कर रहा हूँ
प्रेफर का अर्थ मार्क्स की उपयोगिता को नकारना नहीं है
तुम्हें समाजवाद लाने के रास्ते पर बहस करना चाहिए
यदि शांतिपूर्ण ढंग से नहीं लाया जा सकता है
तो क्रान्ति और सर्वहारा की तानाशाही के अलावा
कोई और चारा नहीं है
तुम चाहो तो
मेरे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए
मार्क्स के सिद्धांतों का सहारा ले सकते हो
लेकिन यह सत्य है कि
मेरा अंतिम लक्ष्य
जातिप्रथा उन्मूलन सहित समाजवाद की स्थापना ही है।

आर डी आनंद


एक ताजातरीन रचना

मत बोलिये की बोलना अब पाप है
सच बात ही लगने लगा अब शाप है

जो भूल के दिखा दिया गरीब की थाली
पड़ रहीं उस पर सीबीआई की लात है

नमक का कसम देकर कर दिया हुजूर ने
ईजाद अब एक नई वोटरों की जात है

छद्म राष्ट्रवाद, जात-पात और पाक से
लँग रहा महँगाई अब फिजूल की बात है

मुल्क एक बार फिर धधक रहा वाद में
जगह जगह पड़ रहीं वैमनस्यता की थाप हैं

पर मुल्क में अमन-चैन, शांति है खूब
लिखनें वालों पर ये लिखनें की चाप हैं

बुझ रहीं रोशनी, चिराग हर आँख से
पर देखता नहीं, जो आस्तीनों का साँप है

क़लमकार क़लम अपनी गिरवी रख कर
बोल रहा महफ़िलो में वाह वाह क्या बात है

मत बोलिये की बोलना अब पाप है
सच बात ही लगने लगा अब शाप है ।।

बिमल तिवारी “आत्मबोध”
देवरिया, उत्तर प्रदेश


क्या लिखूं

देश में होता नरसंहार लिखूं ?
या मानवता की हार लिखूं ?
कपकपाती इस लेखनी से ,
फिर कैसे चीख-पुकार लिखूं ?
करुण क्रंदन भारत का लिखूं,
या प्रजातंत्र की हार लिखूं ?
शासकों का अत्याचार लिखूं,
या विदेशियों का व्यापार लिखूं ?
वेदों का भेद व्यवहार लिखूं ?
या बुध का समता द्वार लिखूं ?
प्रभुता भारत की बिखर रही ,
फिर कैसे डूबों को पार लिखूं ?
भारत की सुसीमा अभय लिखूं,
अब हाथ में रहे तलवार लिखूं ?

सुसीम शास्त्री


मत पूछ

क्या होता जज्बात से धोखा, मत पूछ
अब होगा क्या टूटे दिल का, मत पूछ

सम्भाल लिए अब तो आंसू सब,
बिखरे अरमां, उनका मत पूछ

बांधे थे उसने घाव सलीके से
दर्द, ठीक हुए ज़ख्मों से मत पूछ

हम गुरबत में तो सदियों से थे
हाल अपना नये ज़माने, मत पूछ

बूत-साबूत खड़े दुबारा
बात इंसा की अब मत पूछ

टूटा तो दिल अपना भी है,
सबके टूट गए तो मत पूछ

डा. नवीन


मध्यवर्गीय जडता पर

लूला आदमी,
भेडों का झुण्ड-
रह-रहकर तिलमिलाता-
तीन दिन,
बडा तिलस्म-
भेदना मुस्किल-
कितना जटिल है,
एक हाथ से छड़ी थामना ?
उग तो रही है,
मेरी कटी बाँह-
पर क्या तबतक-
मेरी आधी भेडें,
कुएँ में नहीं गिर जाएँगी ?

सन्तोष ‘परिवर्तक’


बीते दिनो की याद ताजा कर रहा हूँ

इन्सान की चाहत है कि उड़ने को पर मिले,
और परिंदे सोचते हैं कि रहने को घर मिले…

“उड़ा भी दो सारी रंजिशें इन हवाओं में यारो”
“छोटी सी जिंदगी है नफ़रत कब तक करोगे”

“घमंड न करना जिन्दगी मे तकदीर बदलती रहती है”
“शीशा वही रहता है बस तस्वीर बदलती रहती है

बीते दिनो की याद ताजा कर रहा हूँ !

सोशल मीडिया से साभार


कविताओं में इश्क का होना

कविताओं में इश्क का होना
इश्क में कविताओं का होना
धरती, आकाश, सूर्य, चाँद
फूल का हिलना, पंछियों का चहकना
कितना सुंदर है ना इश्क करना!

पर,
क्या ये सब उतना ही सुंदर होता है?
जब देश, समाज बँटा हो दो पाटों में
एक तरफ है गिनती वाले लोग
जिसने बाँध रखी है अपनी मुट्ठियाँ
और मुट्ठियों के साथ छुपा रखी है
इश्क की सुंदरता
उसे सहेजने के लिए नहीं
उसे मसल डालने के लिए
और मुट्ठियों में मसल रहे हैं वो
देश, समाज के दूसरे पाट के लोगों की खुशियाँ
उनकी सांस, उनका भोजन
उनकी आजादी, उनका इश्क।

तो दूसरी तरफ है
अपनी इश्क, अपनी आजादी
अपनी दुनिया को
मसले जाते देखते हुए लोग
वे देख भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं
कि कैसे उनके हिस्से का
चाँद, सूरज, तारे, फूल, खुशबू
सब कुछ मुट्ठियों में मसला जा रहा है
और उन्हें भी अब
बंद करनी है अपनी मुट्ठियाँ
और हवा में लहराकर
यूं तानकर
लेना है प्रण
कि अपने संघर्ष से छीन लेना है
अपनी धरती, अपना सूरज
फूलों का हिलना
पंछियों की चहचहाहट
और उन छुपी, भींची मुट्ठियों से
आजाद कर लेना है अपना इश्क
‘इश्क की सुंदरता।’

ईप्सा शताक्षी


षड्यंत्र

हजारों साल पहले
एक रात
हालांकि यह रात बहुत लंबी थी…….
जब सभी औरतें सो रही थी
पुरुषों ने एक षड्यंत्र रचा
उन्होंने एक एक कर सभी महिलाओं की रूहें चुरा ली.

और उसे सात ताले लगे एक संदूक में बन्द कर दिया
सुबह उठने पर
औरतों को पता चल गया कि उनकी रूहें चुरा ली गयी हैं.

औरतों को उस संदूक का पता भी चल गया
जहां उनकी रूह कैद थी.

क्योंकि तब दुनिया इतनी विशाल न थी
इतनी जटिल न थी.

उस संदूक के लिए
अपनी रूह के लिए
औरतों पुरुषों के बीच भीषण संघर्ष हुआ.

बिना रूह के वे भला कितनी देर टिकती
हालांकि कुछ ‘गद्दार’ पुरुषों ने भी
औरतों का गुपचुप साथ दिया
लेकिन फिर भी अंततः वे हार गई.

तभी से
उनकी पहचान गायब हो गयी
उनका नाम गायब हो गया
यहां तक कि उनकी योनि पर भी पुरुषों ने ताले जड़ दिए.

पीढ़ी दर पीढ़ी यह बात उनके विचारों में रच बस गयी
आने वाली पीढ़ियों ने मान लिया कि
उनके पास रूह नाम की कोई चीज कभी थी ही नहीं.

यह बात इतनी सहज हो गयी कि
अरस्तू ,सुकरात ने भी एलान कर दिया कि
औरतों और गुलामों में रूह नहीं होती.

लेकिन कुछ औरतों ने अपनी अगली पीढ़ी को
यह गुप्त सूचना देना जारी रखा
कि रूह चुराने की घटना से पहले हम कितने आज़ाद थे!
खुदमुख्तार थे!

जैसे समुद्र होता है खुदमुख्तार!

उन्होंने उस लंबी रात की कहानी भी सुनाई…..
‘जिसे हमने रूह बख्शी, उसी ने हमारी रूहे कैद कर ली’.

उन्होंने अगली पीढ़ी को उस संदूक का पता भी दिया
जहां उनकी रूहें कैद थी.

ज़्यादातर लड़कियां इन्हें महज कहानी के रूप में सुनती
और अपने रोजाना के काम पर लौट जाती.

लेकिन कुछ लड़कियां बुरी तरह बेचैन हो उठती
अपनी रूह को वापस पाने के लिए तड़प उठती.

खुदमुख्तार होने का उनका सपना
समुद्र की तरह उछाल मारता!

कई बार वे सफल भी होती
लेकिन उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती.

कभी ज़िंदा जमींदोज़ होकर
कभी ज़िंदा जलकर
और कभी प्याले में जहर पीकर!

कभी कभी तो उन पर इतने पत्थर बरसाए जाते
कि वे खुद पत्थर बन जाती.

अफसोस कि हम इन रूह वाली खुदमुख्तार औरतों के नाम
अब कभी नहीं जान पाएंगे.

कुछ समय बाद या सच कहें तो बहुत समय बाद
औरतों को अहसास हुआ
कि सात तालों में बन्द अपनी रूह को
एक एक कर चुराने से बेहतर है कि
मिलकर संदूक का ताला ही तोड़ दिया जाय!

कुछ पुरुषों ने भी इस योजना में उनका साथ दिया
क्योंकि वे जानते थे कि आज़ाद महिलाओं के बिना
वे भी आज़ाद नहीं है.

एक मनुष्य पर चाबुक जड़ता दूसरा मनुष्य
मनुष्य कहाँ रह जाता है?

और इस तरह एक दिन…..
अचानक पृथ्वी हिलने लगी
इतिहास करवट ही नहीं लेने लगा
उठने की तैयारी भी करने लगा!

आसमान नीचे उतरने लगा
मानो मुठ्ठी लहराती औरतों की मुठ्ठियों को चूमना चाहता हो.

और इस तरह बहुत जल्दी-जल्दी एक एक करके 6 ताले टूट गए….
संदूक काफी जर्जर हो गया.
उसमें कई सूराख हो गए.

बहुत सी महिलाओं ने अपनी रूह को हजारों पीढियों बाद, दुबारा हासिल किया
अरस्तू, सुकरात, डार्विन को गलत साबित किया.

सातवां ताला भी अब जर्जर हो चुका था!

लेकिन अचानक एक दिन तेज़ आंधी आयी
इस आंधी में मिट्टी की सोंधी महक नहीं थी.
बल्कि किसी बंद नाले की सड़ांध थी.

इसी आंधी में
ताले पर चोट करने वाला हथौड़ा कहीं गुम हो गया !
या शायद इसी आंधी की आड़ में किसी ने चुरा लिया.

औरतें बुरी तरह बेचैन
कुछ उस हथौड़े को खोज रही हैं!
कुछ उसे साहस के साथ दुबारा गढ़ रही हैं!
लेकिन इसी बीच उमस बुरी तरह बढ़ती जा रही है!

धरती को इंतज़ार है मूसलाधार भारी बारिश का !

महिलाओं को, मानवता को
इंतज़ार है
सातवें ताले के टूटने का…

मनीष आज़ाद


मैं भूखा हूं

आप सरस हैं,
मैं रूखा हूं..!
आप बारिश हैं,
मैं सूखा हूं..!
पेट खाली है,
दोनों का इस फ़र्क के साथ,
आप अनशन पर हैं,
मैं भूखा हूं..!

सन्तोष ‘परिवर्तक’


आओ भाई आओ

आओ भाई बेचू आओ
आओ भाई अशरफ आओ
मिल-जुल करके छुरा चलाओ
मालिक रोजगार देता है
पेट काट-काट कर छुरा मँगाओ
फिर मालिक की दुआ मनाओ
अपना-अपना धरम बचाओ
मिलजुल करके छुरा चलाओ
आपस में कटकर मर जाओ
छुरा चलाओ धरम बचाओ
आओ भाई आओ आओ

गोरख पाण्डेय

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