अग्नि आलोक
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कहो मार्ग को पथ हो जाओ आजाद

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शशिकांत गुप्ते

अब हम राह,मार्ग,सड़क या रास्ते पर नहीं पथ पर चलेंगे। पथ पर चलने से हमे अपने कर्तव्य का बोध होगा कारण हम पथ पर चलते हुए स्वयं को आजाद महसूस करेंगे।
प्रख्यात साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी ने अपने महाकाव्य कामायनी में साहस के साथ कर्म करने के लिए प्रेरक पंक्तिया लिखी हैं।
वह पथ क्या पथिक कुशलता क्या
जिस पथ पर बिखरे शूल न हों
नाविक की धैर्य परीक्षा क्या यदि धाराएँ प्रतिकूल न हों?

उक्त प्रेरक पंक्तिया उन लोगों के लिए हैं,जो मानसिक रूप से स्वतंत्रता के लिए सँघर्षरत रहतें हैं।
मानसिक रूप से स्वतन्त्रता के पक्षघर कभी भी पथभ्रष्ट होते ही नहीं है।
देश की स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को पढ़ने समझने पर देश की बुनियादी समस्याओं से लड़ने के लिए अंतर्मन में प्रेरणा जागृत होती है।
इतिहास में यह लिखा है कि, स्वतन्त्रता के आंदोलन में कौन सहभागी नहीं थे। जयचन्दों का भी निंदनीय इतिहास भी, इतिहास की पुस्तकों में लिखा ही है।
इतिहास को इतिहास में जमाकर के वर्तमान में मार्ग छोड़ पथ पर विचरण करना चाहिए।
इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए सीतारामजी ने मुझसे पूछा क्या मार्ग को पथ कह देने से परिवर्तन हो जएगा?
महात्मा गांधी मार्ग को पथ कह देंगे तो इस पथ पर कभी हिंसा नहीं होगी? इस पथ पर कभी भी कोई झूठ बोलेगा ही नहीं?
जवाहर मार्ग को पथ देंगे तो देश के नोनिहाल तो फुटपाथ पर भीख मांगते दिखना ही नहीं चाहिए?कुपोषित नोनिहलों को भरपेट पोषण प्राप्त हो जाएगा?
सुभाष मार्ग को पथ कह देने से मार्ग पर निवास करने वाले सभी मिलिट्री में होने चाहिए?
सरदार पटेल मार्ग को पथ कह देंगे तो वहाँ के निवासी कृशकाय होंगे ही नहीं? सभी बलिष्ठ ही होंगे?
भगतसिंह मार्ग को पथ कहेंगे तो इस पथ पर सारे बलिदानी ही मिलेंगे?
ऐसी लंबी फेरहिस्त है।
ऐसे प्रश्न सामान्य रूप से उपस्थित होतें हैं?
सीतारामजी ने जब अपनी बातों को विराम दिया तब मै,अचानक ही उपकार नामक फ़िल्म का गीत गुनगुनाने लग गया।
कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बाते हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं है ये झूठे नाते है नातों का क्या
यदि अपनी भावनाओ पर काबू नहीं पाया तो क्या हश्र हो सकता है?
यह शायर तरन्नुम कानपुरीजी के इस शेर को पढ़कर समझ सकतें हैं।
ऐ क़ाफ़िले वालों, तुम इतना भी नहीं समझे
लूटा है तुम्हे रहज़न ने, रहबर के इशारे पर
इनदिनों सियासत सिर्फ लोकैषणा में सिमट कर रह गई है। लोकैषणा मतलब समाज में सिर्फ स्वयं की प्रतिष्ठा और यश की कामना करना।
सिर्फ Publicity करना। कोरा प्रचार प्रसार करना।
इस मानसिकता पर शायर फैज़ जौनपुरीजी का यह शेर मौजु है।
बस्ती में तुम ख़ूब सियासत करते हो
बस्ती की आवाज़ उठाओ तो जानें

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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