dr vikas Manav
पौराणिक व्याख्याएं कथाप्रधान हैं. शास्त्रीय व्याख्याएं दार्शनिक पक्ष को दर्शाती हैं और वेद भूत, भविष्य और वर्तमान को अपने मे समेटे हुए हैं.
तस्य क्व मूलँस्यादन्यत्राद्भयोsद्भिः सोम्य शुङ्गेन तेजो मूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलन्विच्छ सन्मूलाः।
(छान्दोग्य उपनिषद /६/८/६)
तो क्या यह पृथिवी ही मूल है, जिसमे सत्यरुपी मूल छिपा है और हम उसकी खोज करें? हमारा कहना है कि नही। यदि हम पृथिवी के कथा-पुराणों मे उलझे रहे तो मूल के अन्वेषण का समय ही कब मिलेगा?
पृथिवी तो अंतरिक्ष मे स्वयं एक गूलर के फल की भाँति लटकी हुई है। जैसे गूलर के पेंड़ मे अनगिनत फल लगते हैं और उनमे लाखों फल लगते हैं, उस फल को तोड़कर देखें तो उसमे असंख्यात् कीड़े होते हैं।
इसी तरह यह पृथिवी अंतरिक्ष और अंतरिक्ष उस मूल मे लटका है। तो हम कीड़े की तरह के मनुष्य जब कथा-पुराण मे समय बिता देंगे तो मूलमन्विच्छ कैसे होगा?
तो आरुणी कहता है कि हे सोम्य! यहाँ सोम्य श्वेतकेतु है. त्वम् मूलं अन्विच्छ अर्थात् तुम उस मूल का अन्वेषण करो।
तो कैसे और किस मूल का…?
इस पर श्रुति कहती है कि, शरीराख्यं शुङ्गम्. इस देहसंज्ञक शुङ्ग (कार्य) जो कि जल का कार्यभूत (परिणाम) है यानी जल से शरीर की उत्पत्ति होती है तो तुम जलरुप अङ्कुर से तेजरुप मूल की खोज करो.
इसलिए कि तुम्हे यह मनुष्य शरीर दुबारा नही मिलने वाला। तुम्हारी उत्त्पत्ति का हेतु जल है और जल की उत्त्पति का हेतु तेज (अग्नि/प्रकाश/ऊर्जा) है.
वह तेज वीर्य्य बनकर तुम्हारी उत्त्पत्ति का कारण बनता है. तो तेजसा के मूल के अन्वेषण की इच्छा (अन्वेषण/अन्विच्छ) से तू सद्रुप मूल सत्य की खोजकर।
त्रिदेवों (अग्नि, जल, अन्न) का प्रतिरुप तुम शरीरवाची श्वेतकेतु हो. जब तुम्हारे शरीर का अंत होगा तो तुम्हारी वाणी जिससे तुम बोल रहे हो वह अग्नि है — वह मन मे लीन हो जाएगी.
वाङ्मनसि सम्पद्यते और मनः प्राणे, प्राणस्तेजसी तेजः परास्यां देवतायाम्
तो परदेवता कौन है जो जब मनुष्य बोलना बंदकर देता है तब भी वह जीवित रहता है. मन प्राण मे प्रतिष्ठित हो जाता है तब सभी उपस्थित लोग पुकारते हुए कहते हैं कि हमे पहचानते हो? तब वह चुप रहता है. फिर लोग आपस मे खूसर -फूसर करते हुए कहते हैं कि अब यह पहचान नही रहा है लेकिन साँस चल रही है।
मरणासन्न वह पुरुष दर्द से कराहता हुआ हाँथ-पाँव पटकता है, अपने मर्मस्थानों का छेदन करता हुआ बहिर्गत होकर तेज मे उपसंहार करता है।
ए.पी.के.जोगी को 1.76 लाख का एक इन्जेक्शन लगा था. वे तेज मे उपसंहृत हो गये। तब डाक्टर घोषणा करता है कि, “यह मर गया।”
गाँव मे गरीब के पास यह सुविधा उपलब्ध नही होती तो बड़े बुजुर्ग शरीर को छूते हैं और नाड़ी देखते हैं तो कहते हैं कि अभी उष्णता है तो मानते हैं कि जिन्दा है. (देह उष्णों जीवतीति).
*यदा तदप्यौष्ण्यलिङ्गं तेज उपसंह्रियते तदा तत्तेजः परस्यां देवतायां प्रशाम्यन्ति :*
तो जिस पर देवता मे वह तेज जाकर शांत होता है वही मूल है. तुम उसी को जानो, खोजो, अन्वेषण करो। मरते समय कोई सगे संबंधी तुम्हारे साथ उस परम देवता मे लीन नही होंगे. अतः तुम अकेले ही उसका अन्वेषण करो।
अब पौराणिंकों का मत देखिए :
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार स्वर्ग लोक मे देहधारी देवताओं का वास है. इनका राजा इन्द्र और पुरोहित बृहस्पति है।
इसी प्रकार पाताल लोक मे देहधारी राक्षसों का वास है जिनका गुरू शुक्राचार्य है। राक्षस लोग स्वर्ग तथा इन्द्राणी (शची) को प्राप्त करने के लिए तपस्या कर भगवान शिव से वरदान मांग लेते हैं।
पश्चात आकाश मे देवासुर संग्राम होता है तब राक्षस लोग देवताओं को पराजित कर स्वर्ग और शची को प्राप्त कर देवताओं को भगा देते हैं. देवता रोते गिड़गिड़ाते विष्णु के पास जाकर उनसे प्रार्थना करते है।
विष्णु उन्हे आश्वस्त करते है और अवतार लेकर राक्षसों का संहार कर स्वर्ग एवं शची देवताओं को दे देते हैं।
यह भी कहा गया है कि जो इस कथा को सुनेगा उसे स्वर्ग और जो नही सुनेगा वह रौरव नामक नरक को प्राप्त होगा।
पुराणों मे नरक की कई केटेगरी सहित नीरसागर,दधिसागर,घृतसागर आदि का भी वर्णन है।
इस तरह की अनेकानेक गप्पबाजी पुराणों मे भरी पड़ी है। वास्तविकता क्या है? वैदिक ग्रन्थ क्या कहते हैं :
इन्द्रस्य नु वीर्य्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम्।I
अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वस्टास्मै वज्रं स्वर्य्यं ततक्ष।
वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः।।
ऋग्वेद [मंत्र १/सूक्त३२/मंत्र१,२) यह इन्द्र और त्वष्टा राक्षसी के पुत्र वृत्रासुर की कथा का विवेचन है। वृत्रासुर ने देवराज इन्द्र को निगल लिया तब सब देवता विष्णु की ओर भागे।विष्णु ने वृत्रासुर के मारने का उपाय बताया किः-मै समुद्र के फेन मे प्रविष्ठ हो जाऊँगा तुम लोग उस फेन को उठाकर वृत्रासुर के उपर फेक देना वह मर जाएगा। जबकि उपरोक्त मंत्र का अभिप्राय यह है किः-इन्द्र अर्थात सूर्य अपनी किरणों से वृत्र अर्थात् मेघ को मारता है।मेघ मर कर जलस्वरूप शरीर को पृथिवी पर फैलाता है।इस जल से सम्पूर्ण नदियाँ पूर्ण होकर समुद्र मे मिल जाती है। फिर वही मेघ सूर्य के ताप से वाष्पित होकर मेघमंडल का आश्रय लेता है। पुनः सूर्य उसे अपनी किरणों से मारकर जलरूप वृष्टि से समुद्र मे गिरा देता है। इस प्रकार प्रकृति की क्रिया प्रतिक्रिया हर क्षण Automatic हो रही है। ऐसी तमाम कथाएँ हैं जिन्हे देवासुर संग्राम का नाम पुराणकारो ने दिया है. यथार्थ में कहीं न कोई स्वर्ग है न नरक। वैज्ञानिकता को समझे विना जो कथा कहानियों का निर्माण हुआ आज आमजन के मुक्ति का तथाकथित मार्ग [वस्तुतः बंधन का मार्ग) बन गया जो अज्ञानयुक्त होने के कारण मानव के धार्मिक शोषण का माध्यम है।_
इसलिए इस सत्य को समझकर अपने मार्ग का चुनाव करो और जानो कि तुम कौन हो और सत्य क्या है?
पुराणों की काल्पनिक कथाओं मे एक कथा मिलती है कि मरीचि के पुत्र कश्यप को दक्षप्रजापति ने विवाह विधान से तेरह कन्याएं दी और उनसे से संसार की उत्पत्ति हुई।
दिति से दैत्य,अदिति से आदित्य,दनु से दानव,कद्द्रू से सर्प,विनता से पक्षी तथा अन्यों से वानर,ऋच्छ,घास आदि अन्य पदार्थ उत्पन्न हुए। इसी प्रकार चन्द्रमा को सत्ताईस कन्या दी।
जनमानस यह नही सोच पाता कि जब संसार की उत्पत्ति इन तेरह कन्याएं से हुई तो संसार विहीन स्थिति मे कश्यप और दक्षप्रजापति कहाँ रहते थे।
दूसरी बात चन्द्रमा तो जड़ तत्व है तो उसे सत्ताईस कन्याएं कैसे दी गयी?
स यत्कूर्मो नाम। प्रजापतिः प्रज्ञा असृजत,यदसृजताकरोत्तद्यद्करोत्तस्मात्कूर्म्मः,कश्यपो वै कूर्म्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाःकाश्यप्य इति।
अर्थात परमेश्वरेणेदं सकलं जगत् क्रियते. तस्मात्तस्य कूर्म्म इति संज्ञा।
प्रजा को उत्पन्न करने के कारण कूर्म्म तथा उसके पालन की विधि रचने के कारण परमेश्वर को ही कश्यप कहा गया है।
कश्यप शब्द पश्यक के आद्यन्तक्षरविपर्य्यय से बना है जिसका अर्थ है देखना।
पालनकर्ता यानी एक परमशक्ति ने ही अपने मे निहीत सभी तत्वों से सभी भूतों की रचना की है।
अदिति शब्द की वैदिक व्याख्या
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः।
विश्वेदेवा अदिति पञ्चजना अदितिर्जातमदितिजनित्वम्।।
(ऋ० म० १/८९/१०)
अदिति ही प्रकाश,अंतरिक्ष, माता, पिता है. इससे पुत्र तथा पञ्चजना= पाँच तन्मात्रा,पाँच भूत,पाँच विषय,पाच प्राण,पाँच इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई है।
जनित्वम्=जनने वाला, पैदा करनेवाला,उत्पन्न करने वाला आदि।
तो वह अदिति कौन हुआ?
जो आदि और अंत है,उसका विवाह हुआ पश्यक से और अदिति कन्या कहाई दक्षप्रजापति। यह पुराणों की कथा हुई।
सूर्य जो लगभग तेरह हजार किलोमीटर डायमेंशन वाला तथा एक करोड़ पचास लाख डिग्री सेल्सियस टेम्परेचर वाला ग्रह है वह अदिति के गर्भ से पैदा हुआ.
तो अदिति एक स्त्री के रूप मे कितने डायमेंशन और टेम्परेचर वाली और कश्यप ऋषि कैसा होगा यह तो पुराणवादी जाने?
वेदों में जिन संकेतक शब्दों का प्रयोग हुआ है वह एकमात्र परमब्रह्म परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार उसी की उपासना करने और उसी को जानने के लिए है। शेष हम सबकी अपनी अपनी समझ और संस्कार तथा प्रज्ञा के स्तर की बात है।
पुराणों मे ऎसी ही एक अन्य कथा का वर्णन है :
महर्षि गौतम की पत्नि अहिल्या के साथ छिप कर यौनकर्म किया करता था। एक दिन जब गौतम ने दोनो को रंगे हाथों पकड़ लिया तो दोनो को श्राप दे दिया।
यहाँ पुराणकारों ने प्रकृति के रूप अलंकार की कल्पना कर उन्हे देहधारी मानते हुए जिस कथा को समाज के सामने रखा वह काल्पनिक होने के कारण भ्रम पैदा करती है।
ब्राह्मण ग्रन्थों मे इस कथा का वर्णन भिन्न है :
इन्द्रागच्छेति।गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेति।तद्यान्येवास्यचरणानि तैरेवैनमेतत्प्रमोदयिषति।
~शतपथ (३/४/१८)
इस मंत्र अनुसार सूर्य का नाम इन्द्र,रात्रि का नाम अहल्या और चन्द्रमा का नाम गौतम है। रात्रि और चन्द्रमा का संबंध स्त्री और पुरूष के समान है।दोनो मिलकर लोकल्याण के लिए सभी प्राणियों मे आनंद की अनूभुति कराते हैं.
इस रात्रि का जार आदित्य सूर्य/इंद्र है जिसके उदय होते ही रात्रि का अंतर्ध्यान हो जाता है।
इस प्रकार सूर्य रात्रि के स्वरूप को बिगाड़ देता है। चन्द्रमा का नाम गौतम इसलिए कि वह तीव्र गति से चलता है। रात्रि को अहल्या इसलिए कहा गया है कि उसमे दिन (सूर्य) का लय हो जाता है. इस स्थिति को चन्द्रमा (गौतम) ही देखता है।
सूर्य पुनः प्रकाशित होकर रात्रि को निवृत्त कर देता है अर्थात जारकर्म करता है। इस प्राकृतिक क्रिया को बिगाड़ कर लिखने वाले गधे थे.
ईश्वर को धर्म से जोड़कर देश को गुमराह करना क्षूद्र राजनीति है।धर्म एक जीवन शैली है.
राजा,प्रजा,ब्राहमण,क्षत्रिय,पिता पुत्र,माता, सगे संबंधियों सभी का धर्म विद्वानों ने पारिभाषित किया हुआ है।ईश्वर इस सब से पृथक है।
वेद और वेदांत किसी भी शरीरधारी या शरीरमुक्त को ईश्वर नही मानता। अवतारवाद पुराणों की देन है जो न्याय दर्शन की कसौटी पर खरा नही उतरता।
मंदिर, मूर्ति, चित्र ईश्वर नही है। ये सब केवल मनुष्य का भाव है जो उसे ईश्वरत्व प्रदान करने की मूर्खता करता है। वेद प्रकृतिपूजा की बात करते हैं, क्योंकि ये जीवन का आधार है. वहाँ व्यक्ति पूजा, बुतपूजा का उल्लेख नहीं है. एक ही संदेश है : मनुर्भव.🍃