अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

अधर्म का नाश हो*जाति का विनाश हो*(खंड-1)-(अध्याय-45)

Share

संजय कनौजिया की कलम”✍️

इसी मध्यकाल में मानव सभ्य व अनुशासित होता भी दिखाई देने लगा इन्ही सभी मामलों को लेकर ऐतिहासिक मामलों की छानबीन की जाती रही है..सिंधुघाटी के लुप्त हो जाने के बाद पुनः मानव जीवन के सभ्य होने की पहचान मध्यकालीन काल ही कराता है..मध्यकाल की शुरुआत में धर्म कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखता था..वह केवल प्रकृति के जैसे पेड़-पहाड़-जल-नदी या अन्य जीव आदि के पूजा पद्दति और आस्था तक सीमित थे जिसे श्रमण पंथ कहा जाता है, चूँकि मनुष्य सभ्य हो रहा था..लिपि तथा तरह तरह की बोलियों में भाषाओँ को रूप देने लगा था..अतः उस काल के संपन कुछ लोग लेखन को भी अधिक महत्व देने लगे थे..तब मानव को सकरात्मक और नकरात्मक क्रियाओं के पहचान की समझ भी होने लगी थी..नगर बसने लगे, विकास, उत्पादन, खेती, चिकित्सा औषदि आदि आदि की खोजे होने लगी..कबीले अपना मुख्या चुनने लगे और मुखिया अपना राजा..धर्म शुरूआती दौर में प्रभाव नहीं बना पाया था, लेकिन अधर्म ने अपना जन्म ले लिया था..उस दौर की नकरात्मक क्रियाएं ही अधर्म की प्रतीक थीं..हालांकि उपासना के सिद्धांत का उद्देश्य क्या रहा होगा..उसकी अनेकों विद्वानों ने अलग-अलग तरह से परिभाषित किया है..लेकिन तब अनुशासन धर्म के आधार पर नहीं बल्कि उस वक्त अनुशासन को बनाने में, “व्यापार” ही एक मात्र सहारा था..जीवन यापन के लिए उस दौर के लोगों ने अपने को कर्म से जोड़ लिया था, और कर्म था भरण-पोषण के अलावा उत्थान से जुड़ा हुआ..उस दौर का व्यापारिक माध्यम वस्तु विनिमय दो या दो से अधिक पक्षों के बीच माल या सेवाओं का व्यापार करने की प्रणाली जिसमे मुद्रा का उपयोग नहीं किया जाता था.. उदाहरण के तौर पर एक बढ़ई उस वक्त किसान के लिए खेत के चारों ओर बाड बनाता था तथा मजदूरी और सामग्री के लिए किसान बढ़ई को खाद्य-प्रदार्थ को प्रदान करता था..इसे हम वाणिज्य का पुराना रूप कहते आए हैं..जिसे समय-समय या क्षेत्र के अधार पर बोलियों (भाषा) के बदलते रहने पर, पण्य-प्रकि, प्रपण-प्रतिपण, अवक्रय-रूचिक्रय, क्रीत-क्रेता आदि इत्यादि प्रणाली के तहत उपयोग में लाया जाता था.. बढ़ईगिरी-सिलाई-खेती-पशु या पशु चमड़ा, औषधि, भवन निर्माण, आदि पर ईमानदारी से मुल्य का आदान-प्रदान मानव जीवन में अनुशासन बनाये रखे हुए था..जिसमे बेईमानी पर कानूनी कार्येवाही का राजा की ओर से प्रावधान होता था, जिसमे कड़ी सजा का स्थान शामिल था..राजा साहूकारों से कर वसूलता था और उन्हें व्यापार हेतू साधनों के निर्माण में सहायक होता था..मध्यकाल में सड़कों के अलावा नदियां, मानव व्यापारिक यातायात दोनों के लिए संचार के उत्कृष्ट साधनो में उपयोगी साबित होने लगे थे..उस दौर में गंगा-जमुना-घाघरा-सिंधु-दक्षिण और बंगाल की नदियां अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं, और अक्सर व्यापारिक वस्तुओं और सैनिकों के परिवहन के लिए उपयोग की जाती थी..सब कुछ व्यापारिक नियम के तहत होता था अतः अनुशासन का मुख्य केंद्र तब व्यापार ही था..क्योकिं सभी लोग व्यापार के आदान-प्रदान से जुड़े हुए थे..!
चूँकि साहूकार राजा को कर देता था अतः उसकी नजदीकी, प्रशासन व राजा तक जुडी होती थी, और आर्थिक मामलों में वह राजा का सलहाकार का काम भी करता था..इसी आड़ में वह उत्पादकों से अधिक मुनाफ़े हेतू कहीं ना कहीं वाणिज्यक तकनीकि का सहारा लेकर बेईमानी पर भी उतर जाया करता था..इसी गैर अतिरिक्त मुनाफ़े ने अधर्म को जन्म दिया..जनता और राजा के मध्य यही एक समस्या बन गई..समझा जा सकता है व्यापार की तकनिकी पर वर्तमान में संविधान के तहत क़ानून नज़र रखता है, संविधान से पूर्व धर्म के दिशा रुपी कर्त्तव्य इस ओर स्थितियों को सँभालते थे और धर्म से पूर्व व्यापार अनुशासन बनाने में सहायक रहा..लेकिन जब सहायक प्रणाली में अधर्म का दोष आया, तब हुई पहले धर्म की उत्पत्ति..यह पहला धर्म था “जैन धर्म”..हालांकि कहा यह भी जाता है कि सिंधुघाटी से मिले अवशेषों में जैन धर्म का जिक्र आता है..जैन का मूल अर्थ ही है “अकर्मों” (नकरात्मकता या अधर्म) का नाश करने वाला..जैन ग्रंथों के अनुसार, जैन धर्म भगवान आदिनाथ के समय से प्रचलन में आया..यहीं से तीर्थकर परंपरा शुरू हुई, जो संस्थापक ऋषभ देव से ही उसकी उत्पत्ति बताकर, भगवान महावीर या वर्धमान तक चलती रही जिन्होंने ईसा से 527 ईश्वी पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था..कहा जाए तो जैन धर्म से पूर्व श्रमण पंथ जो प्राकृतिक उपासना तक ही सीमित था और कर्म को अधिक महत्व देते हुए उत्पादक कहलाते थे, इन्ही श्रमण पंथ के मध्य जैन धर्म की उत्पत्ति हुई..वक्त बीतने के उपरान्त, सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्या के कार्येकाल में जैन धर्म खूब फला-फूला..जैन स्रोतों के अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्या ने मात्र 24 वर्ष के अपने शासन के उपरान्त अपना साम्राज्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंपकर “जैन भिक्षु भद्रबाहु” से जैन धर्म की दीक्षा ली थी..उन्ही के साथ वह कर्णाटक के श्रवणबेलगोला में आकर अपने जीवन के अंतिम दिनों में रहे..उस समय चन्द्रगुप्त की आयु 50 वर्ष थी..वैदिक रीति-रिवाज़ के अनुयायी ब्राह्मण वर्ग अपने-अपने क्षेत्रों तक ही सीमित रहकर उनके ऋषि यज्ञ-हवन व पूजा पाठकर और पशुवली देकर अपनी उपासना में लीन रहकर नए-नए प्रयोग करते रहते थे, और उन्हें शासन की ओर से कोई मदद भी नहीं मिलती थी..आश्चर्य तब होता है कि जैन धर्म, जिसमे अहिंसा चरम पर थी वह पशुवली देने वाले ब्राह्मणों को अपने घरेलू समाहरोह में आमंत्रित कर नियुक्त किया करते थे..शायद इसका यह भी कारण रहा हो कि वह ब्राह्मणो को पशुवली की परम्परा को समाप्त करने का संकेत देते हों..कारण कोई भी रहा हो, व्यापार के बाद, मानव अनुशासन में, धर्म ने अपनी मजदूत स्थिति स्थापित कर ली थी..धर्म के आधार पर ही अनुशासन हेतू सन्देश देने के लिए, विद्वानों ने शासन की मदद से जातक कथाओं की रचनाएँ, रचनी शुरू कर दी थी..जो उस दौर में अत्यंत ही कारगर सिद्ध हुई, जो अधर्म की गति…

धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें