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प्रसंगवश : हमेशा चीतों की जान लेता शेर

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 पुष्पा गुप्ता

      _कबीर संजय संजय कहते हैं : भारत में नामीबिया के चीतों को बसाए जाने से कुछ लोग उत्साह में है। जाहिर है कि जानवरों के बारे में हमारी समझ बहुत ही भोथरी है। और हम उस समझ को बदलना भी नहीं चाहते। न ही इस बारे में कुछ पढ़ना-समझना चाहते हैं। यही कारण है कि कुछ पत्रकार इस तरह की खबरें चला रहे हैं कि भारत में शेर अब चीता लेकर आया है। लेकिन, उन्हें शायद पता नहीं कि जंगल में शेर जब भी मौका मिले चीते को मार देते हैं।_

         मांसाहारी जीव एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं। जब भी मौका मिलेगा एक बाघ किसी तेंदुए को मार देगा। जब भी मौका मिलेगा एक शेर चीते को मार डालेगा।

       जब भी मौका लगेगा बाघ और शेर में एक दूसरे को मारने की लड़ाई छिड़ जाएगी। वे एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं। यहां तक कि स्पाटेड हायना भी शेरों के बच्चों को मारने की फिराक में लगे होते हैं।

     शेर भी जहां मौका लगे हायना (लकड़बग्घा) को मार डालते हैं। हाथी को भी अगर मौका मिल जाए तो वो शेरों को बच्चों को मार डालते हैं। 

इसके पीछे कुल मिलाकर मतलब पारिस्थितिक संतुलन बनाने से है। मांसाहारी जानवर एक-दूसरे की जान के पीछे पड़े रहते हैं।

      _किसी चीते या लकड़बग्घे को मारने के बाद शेर उसे खाता नहीं है। क्योंकि, चीता या लकड़बग्घा उसके लिए खाना नहीं है। उसके लिए वह प्रतिद्वंद्वी है। दुश्मन है। आज अगर उसे नहीं मारा गया तो कल वह उसके शिकारों पर हमला करेगा। उसके साथ भोजन साझा करना पड़ेगा। इसीलिए वह जब भी मौका लगे वह उसे मार डालता है।_

       इसलिए कृपया शेर लाया चीता जैसे मुहावरे का इस्तेमाल नहीं करें। इससे सिर्फ यही पता चलता है कि आप वन्यजीवों के मामले में कितने बड़े अनपढ़ हैं। 

        फिर गूंजी चीते की दहाड़ भी गलत है। क्योंकि, चीते दहाड़ते नहीं है। इसकी बजाय यह कहा जा सकता है कि भारत में फिर से फर्राटा भरेंगे चीते। क्योंकि, रफ्तार के ही वे प्रतीक हैं। रफ्तार ही उनका सबकुछ है। उनकी दहाड़ में जान नहीं है। उनकी रफ्तार में जान है। 

      _इसलिए जैसे ही आप कहते हैं कि फिर गूंजेगी चीते की दहाड़, आप अपने आप को फिर से अनपढ़, जाहिर और अहमक सिद्ध करते हैं।_

   अफ्रीका के जंगलों में हत्या के ऐसे मामले अक्सर ही सामने आते रहते हैं। 

          {चेतना विकास मिशन)

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