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‘ ‘बांग्ला साहित्य में टैगोर के अलावा कोई महान कथाकार हुआ, तो शरतचंद्र चट्टोपाध्याय’.

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जनाब, इस क़िस्म की नज़ीरें बहुत कम मिला करती हैं. कि जब एक साहित्यकार किसी दूसरे की जीवनी लिखे. और वह जीवनी भी उस साहित्यकार के तरह ही देश, दुनिया में मशहूर हो जाया करे, जिसके बारे में वह लिखी गई है. हालांकि, हिन्दुस्तान में कुछ ऐसी चुनिंदा मिसालें हैं. इन्हीं में एक शरत चंद्र चट्‌टोपाध्याय ख़ुद, और उनकी जीवनी ‘आवारा मसीहा’. यह किताब हिन्दी अदब के बड़े मुसन्निफ़ (लेखक) विष्णु प्रभाकर जी ने लिखी थी. साल 1974 में. और जैसा कि विष्णु प्रभाकर जी ख़ुद लिखते हैं, ‘जब पहला संस्करण (आवारा मसीहा का) प्रकाशित हुआ, तो मैं मन ही मन डर रहा था कि कहीं बंगाली मित्र मेरी कुछ स्थापनाओं को लेकर नाराज़ न हो जाएं. लेकिन मेरी ख़ुशी का पार नहीं था, जब पहला पत्र मुझे एक बांग्ला भाषा की पत्रिका के संपादक का मिला. उन्होंने लिखा था कि आपने एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण, चिरस्थायी कार्य किया, जो हम न कर सके’.

जनाब, ऐसे ‘आवारा मसीहा’ शरत चंद्र के बारे जानने की दिलचस्पी किसकी नहीं होगी. वैसे, तमाम लोग जानते ही होंगे उनके बारे में बहुत कुछ. फिर भी आज मौका है, उनकी जयंती का, तो इस दास्तान की शक़्ल में थोड़ा रिवीज़न ही कर लेते हैं. तो जनाब, आज के पश्चिम बंगाल में एक जिला है हुगली. वहीं देवनंदपुर क़स्बे में 15 सितंबर 1876 में शरत बाबू की पैदाइश हुई. मोतीलाल और भुवनमोहिनी चट्टोपाध्याय की नौ संतानों में से एक थे. कहते हैं, मोतीलाल जी एक नौकरी में ज़्यादा टिक कर नहीं रह पाते थे. इसलिए घर की माली हालत भी एक सी टिक कर नहीं रहती थी. अक्सर डांवाडोल रहा करती थी. इसी वज़ह से शरत बाबू की कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं हो पाई. हालांकि इससे पहले ही उन्होंने अदबी दुनिया की पढ़ाई शुरू कर दी थी. यही कोई 16-17 बरस के रहे होंगे, साल 1893 में, जब से उन्हें इस दुनिया में दिलचस्पी जगी थी.

गुरुदेव रबींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर) और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की लेखनी का शरत बाबू पर गहरा असर पड़ा था, शुरू से. और इसी असर में उन्होंने 18 साल की उम्र में ही ‘बासा’ नाम से पहला उपन्यास लिख डाला. हालांकि उनका यह उपन्यास छपा नहीं, ऐसा कहते हैं. चूंकि माली हालात डांवाडोल थे, इसलिए जल्द ही उन्हें अपने लिए रोज़गार तलाशना पड़ा. इसी सिलसिले में वे बर्मा गए और लोक निर्माण विभाग में क्लर्क के ओहदे पर काम करने लगे. यह 1895-96 के आस-पास की बात होगी. बर्मा में बंगचंद्र नाम का एक शख़्स उनसे जुड़ा. वह बड़ा विद्वान था लेकिन शराबी और बेतरतीब क़िस्म का भी था. कहा जाता है, इसी बंगचंद्र की ज़िंदगी से शरत बाबू को अपना मशहूर उपन्यास ‘चरित्रहीन’ लिखने की प्रेरणा मिली थी. लेकिन ऐसा बताते हैं कि यह उपन्यास न तो लिखा आसानी से गया और न छपने में ही इसको आसानी हुई कोई.

शरत बाबू को दो बार लिखना पड़ा यह उपन्यास. पहली बार लिखा तो बर्मा के उनके घर में आग लग गई. उसमें लिखे-लिखाए 500 पन्ने ख़ाक हो गए. इसके बाद उन्होंने फिर लिखा इसे. इसके बाद इसे छपवाने की कोशिशें शुरू कीं तो उसमें भी मुश्क़िलात आईं. बंगाल में, उस दौर में ‘भारतवर्ष’ नाम की पत्रिका छपा करती थी. अदबी मिज़ाज की थी. द्विजेंद्रलाल राय ने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी सालों में इसे शुरू किया था. वही इसके संपादक हुआ करते थे. यह बात शायद 1911-12 के आस-पास की होगी, क्योंकि मई 1913 में राय साहब का इंतिक़ाल ही हो गया था. तो जनाब, जब शरत बाबू अपना उपन्यास लेकर राय साहब के पास पहुंचे तो उन्होंने इसे छापने से साफ़ इंकार कर दिया. कहा, ‘यह रचना सामाजिक सदाचार के ख़िलाफ़ है’. हालांकि, फिर भी शरत बाबू निराश नहीं हुए. वे कोशिश करते रहे. आख़िर 1918 में यह उपन्यास छप सका.

लांकि इससे क़रीब 10-12 बरस पहले एक वाक़ि’आ हुआ. शरत बाबू एक बार बर्मा से कलकत्ते आए थे. वहां वे अपनी कुछ रचनाएं भूल से किसी दोस्त के पास छोड़ गए. उस दोस्त ने शरत बाबू को बिना बताए उनमें से एक रचना (बड़ी दीदी) को सिलसिलेवार कहानियों की शक़्ल छपवाने का इंतज़ाम कर लिया. यह बात है, 1907 की. कहते हैं, इसकी दो किस्तें ही छपी थीं कि पढ़ने वाले चौंकने लगे. कहने लगे, ‘कहीं गुरुदेव रबींद्रनाथ ही तो नाम बदलकर नहीं लिख रहे हैं!’ अलबत्ता, धीरे-धीरे एहसास हुआ उन्हें कि वाक़ई एक नए उभरते लेखक शरत चंद्र की रचना है ये. तो इस तरह शरत बाबू की मशहूरियत का सिलसिला शुरू हुआ. हालांकि उनको ख़ुद इसकी भनक चार-पांच बरस के बाद लगी. मुमकिन है तभी लगी हो, जब वे ‘चरित्रहीन’ उपन्यास छपवाने के लिए राय साहब के पास पहुंचे हों. मगर राय साहब पर उनकी मशहूरियत का असर हुआ नहीं.

लेकिन जनाब, परिवार, कुल, खानदान पर उनकी मशहूरियत का असर हुआ. पर उल्टा. कहा जाता है कि ‘चरित्रहीन’ उपन्यास के छपने से पहले ही उनकी जो रचनाएं प्रकाशित हुईं, उनकी लिखाई ने शरत बाबू के कुल-ख़ानदान वालों को नाराज़ कर दिया था. यहां तक कि उन्हें ‘कुल-मर्यादा डुबोने वाला’ बता दिया गया. ‘आवारा’ समझ लिया गया. उन्हें ‘अपने से अलग’ मान लिया उन लोगों ने. लेकिन शरत बाबू फिर भी लिखते जाते थे. नए रिश्ते, नाते जोड़ते जाते थे. वे बर्मा की तंग गलियों में कुलियों, मज़दूरों के बीच ‘डॉक्टर बाबू’ के नाम से मशहूर हो रहे थे. क्योंकि इस क़िस्म के निचले तबके से जुड़े लोगों का दर्द अपने लफ़्ज़ों के जरिए उभारकर सामने लाया करते थे. वे कलकत्ता में ठोकरे खाते लोगों को भी दिखा रहे थे. रंगून में गुज़रे ज़माने में हुईं ज़्यादतियों को समझा रहे थे. इसलिए यह एक कमज़ोर तबका तो उन्हें अब अपना ‘मसीहा’ मानने लगा था.

इस बीच, साल 1914 में उनका एक उपन्यास आया ‘परिणीता’. यूं तो यह अपने किरदारों- ललिता और शेखर की प्रेम-कहानी कहता है. लेकिन साथ ही साथ उस वक्त के समाज, ख़ास तौर पर ‘ब्रह्मो समाज’ की रुढ़ेवादिता पर सख़्त टिप्पणियां भी करता है. आम बांग्ला समाज और ब्रह्मो समाजियों के बीच किस तरह का झगड़ा था, उसे उभारकर सामने लाता है. इसी तरह दूसरे बहुचर्चित उपान्यास ‘देवदास’ (1917) में वे एक युवक की कहानी कहते हैं, जो समाजिक प्रतिष्ठा के चलते अपनी प्रेमिका को नहीं अपना पाता. लेकिन फिर इसी गम में, शराब में डूबकर ज़िंदगी बर्बाद कर देता है. इस तरह की लेखनी से शरत बाबू ने ‘समाज के ठेकेदारों’ को भी नाराज़ कर दिया. अब वे उन्हें ताने देते. उनके ख़िलाफ़ मोर्चे निकालते. आरोप लगाते कि, ‘इसने हमारी संस्कृति को पथभ्रष्ट करने का बीड़ा उठाया है’. ऐसे ‘समाजी लोग’ भी उन्हें ख़ुद से अलग ही मानने लगे.

तिस पर, कुल-ख़ानदान और ‘समाज के ठेकेदार’ ही नहीं, शरत बाबू ने अंग्रेज सरकार को भी नाराज़ किया. मिसाल के तौर पर 1926 में उनका एक उपन्यास आया ‘पाथेर दाबी’ यानी ‘पथ के दावेदार’. यह उपन्यास ‘बंगाल क्रांति’ को आधार बनाकर लिखा गया. पहले-पहल यह ‘बंगवाणी’ नाम की पत्रिका में सिलसिलेवार छपा. फिर जब किताब की शक्ल में छापा गया तो कहते हैं, तीन महीने में ही इसकी क़रीब तीन हजार कॉपियां बिक गईं. घबराकर अंग्रेज सरकार ने उपन्यास ज़ब्त कर लिया. उस पर रोक लगा दी. इस उपन्यास में तीन किरदार हैं. ‘सब्यसाची’, एक खतरनाक क्रांतिकारी. उसने अंग्रेज सरकार के नाक में दम किया हुआ है. भारती, एक ईसाई लड़की. है जिसकी शिक्षा-दीक्षा मिशनरी स्कूल में हुई है. लेकिन उसे अपने मुल्क से मोहब्बत भी है. और तीसरा ‘अपूर्व’ अंग्रेजियत में डूबे पिता और परंपराओं में जकड़ी ब्राह्मण मां का तीसरा लड़का.

इन तीन किरदारों के जरिए शरत बाबू ने सिर्फ़ अंग्रेज सरकार की नहीं, समाज की रुढ़िवादिता की भी बख़िया उधेड़ी. क्रांतिकारियों का जीवन दिखाया. साथ ही, अपनी ऐसी लेखनी से ख़ुद को ‘साहित्यिक क्रांतिकारी’ की हैसियत पर भी ला खड़ा किया. वह हैसियत जो अस्ल ‘पाथेर दाबी’ हुई. सम्मान के पथ की दावेदार. तभी तो आज, इतने बरस बाद भी शरत बाबू को याद किया जाता है. कहा जाता है कि उन्होंने अपनी ‘लिखन’ से औरत के मन की गांठों को जिस अंदाज़ में खोला, औरत को जिस तरह मुख़्तलिफ़ सूरतों में पेश किया, वैसी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं मिलती. लोग यूं भी कहा करते हैं कि शरत बाबू ने महात्मा गांधी की कहन, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’, को लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ अपनी ‘लिखन’ में उतारा. इसीलिए तो वे अक्सर ही औरत के गिरने की कहानी कहते-कहते उसका उदात्त, उज्ज्वल चरित्र सामने लाकर खड़ा कर देते हैं.

ऐसा बहुत कुछ कर देते हैं, शरत बाबू. इसीलिए लोग कभी उन्हें उनकी बेफ़िक्री के लिए याद करते हैं. कभी साफ़गोई के लिए. कभी उनकी चंद्रमुखी को याद करते हैं, कभी देवदास या ‘श्रीकांत’ को. कभी उनकी ‘विधवा दीदी’ को याद करते हैं, जो सारे मोहल्ले के लिए प्राण प्रण से लगी रहती है. लेकिन अंत समय में उसके पास शरत के अलावा कोई नहीं होता. सब मुंह मोड़ लेते हैं उससे. उसी तरह जैसे, शरत बाबू से समाज के ‘बड़े तबके’ ने मुंह मोड़ रखा था. इसीलिए तो जब विष्णु प्रभाकर उनके बारे में जानने को भटक रहे थे, तो लोग कहा करते, ‘छोड़िए महाराज, ऐसा भी क्या था उसके जीवन में जो किसी को बताए बिना आपको चैन नहीं?’ कुछ लोग तो यह भी कह देते, ‘दो चार गुंडे-बदमाशों की ज़िंदगी नज़दीक से देख लीजिए. शरतचंद्र की जीवनी तैयार हो जाएगी’. हालांकि यही जीवनी (आवारा मसीहा) जब सामने आई तो फिर हमेशा के लिए कहा जाने लगा, ‘बांग्ला साहित्य में टैगोर के अलावा कोई महान कथाकार हुआ, तो शरतचंद्र चट्टोपाध्याय’.

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