अग्नि आलोक
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कहानी : चौथा आयाम

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 (मेरे साधनाकालीन जीवन का अनुभूत घटनाक्रम )

         ~ डॉ. विकास मानव

      _प्रायः लोगों के मुख से मानसरोवर की चर्चा सुनने को मिलती रहती है। पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में भी कभी-कभी इस दिव्य स्थान का विवरण देखने-पढ़ने को मिल जाता है। मानसरोवर का नाम सुनते ही सबसे पहले जो ध्यान में आता है, वह है–वहाँ निवास करने वाले हंस।_

         मानसरोवर इतना विशाल है कि जिसकी कल्पना सपने में भी नहीं की जा सकती। लगभग 86 किलो मीटर की परिधि जिसमें ‘तपतो’ और ‘सरिमा’ नामक दो  वर्फ के द्वीप हैं।

       कैलाश मानसरोवर देख कर शायद स्वर्ग की कल्पना करने वाले गलत नहीं हो सकते। मानसरोवर और कैलाश में मनुष्य की अहमीयत नहीं रह जाती। वह एकाकार हो जाता है प्रकृति से।

      _गौरीकुण्ड पहुँचने पर जब मैं मन-ही-मन सोच रहा था कि इस बियाबान निर्जन बर्फीले इलाके में कब, कैसे और कहाँ भेंट होगी उस बौद्ध भिक्षुणी से।  यह मैं सोच ही रहा था कि तभी कुछ फासले पर मुझे धुंध-सा दिखाई दिया।_

    हलके बादलों जैसा था वह धुंध और धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा था अपने स्थान पर साथ-ही-साथ घना भी होता जा रहा था।

     _यहाँ मैं जिस अद्भुत दृश्य का वर्णन करने जा रहा हूँ, वह इतना अलौकिक था कि उस पर सहसा किसी को विश्वास नहीं होगा। मगर सत्य सत्य है और उस सत्य की साक्षी है मेरी आत्मा या परमात्मा या कैलाशपति।_

    मैंने देखा–उस घने धवल कोहरे के भीतर धीरे-धीरे एक विशाल मठ का आकार उभर रहा है। निश्चय ही वह विशाल और अपने आप में रहस्यमय मठ या कोई सिद्ध योगाश्रम था–इसमें कोई संदेह नहीं।

      संगमरमर के पत्थरों से बना था वह योगाश्रम लेकिन उसमें न दरवाजे थे और न खिड़कियां ही थीं। बस एक छोटा-सा प्रवेश द्वार था जिसमें से होकर विचित्र रूप-रंग और आकार-प्रकार के बहुत सारे बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियां आ-जा रही थीं।

       उन्हीं में से एक बौद्ध सन्यासी धीरे-धीरे चल कर मेरे समीप आया। कोहडे जैसा उसका बेडौल सिर घुटा हुआ था। उसकी आँखों में तेज था। चेहरे पर साधना की आभा थी और व्यक्तित्व में योगियों जैसा आकर्षण था।

      उस सन्यासी ने कुछ विचित्र ढंग से संकेत किया जिसका मतलब था– मेरे साथ चलो। उसके पीछे-पीछे चल कर मैंने उस रहस्यमय मठ में प्रवेश किया और प्रवेश करते ही एक विचित्र-सा अनुभव हुआ मुझे। मठ के वातावरण में सर्वत्र परम शान्ति व्याप्त थी।   

       सैकड़ों की संख्या में भिक्षुओं की उपस्थिति में भी इतनी गहरी शान्ति का होना आश्चर्यजनक बात थी। कोई किसी से बोल नहीं रहा था। नेत्रों की भाषा में ही बातें हो रही थीं।

      मठ के चारों ओर रुपहला प्रकाश फ़ैल रहा था। बड़ा ही मनोरम और सुखद लग रहा था वह दिव्य प्रकाश। उसका मूल स्रोत कहाँ था–यह समझ में नहीं आया मुझे।

      निश्चय ही वह कोई दिव्य प्रकाश-पुञ्ज था। उसका रंग क्षण-प्रति-क्षण बदल रहा था वह दिव्य प्रकाश-पुञ्ज अपने स्थान पर तीव्र गति से चक्कर काट रहा था।

     सहसा वह दिव्य प्रकाश-पुञ्ज एक मनुष्य की आकृति में परिवर्तित होने लगा।

   _अब मेरे सामने प्रकाश पुञ्ज के स्थान पर एक दिव्य महात्मा का तेजोमय शरीर था। ‘महात्मा’ शब्द से आपके मन में जो कल्पना उभर रही होगी, वैसे नहीं थे वे महात्मा। उनका आकार-प्रकार, रूप -रंग दस-बारह वर्ष के बालक के समान था। रंग ताम्बिया था और सारे शरीर से दिव्य आभा प्रस्फुटित हो रही थी।_

        शरीर पर भोज-पत्र की कौपीन ( लंघोटि) मात्र थी। सुखासन की मुद्रा में बैठे थे महात्मा, नेत्र मूंदे हुए थे। होठ थोड़े-से खुले हुए थे। सिर पर पीले रंग के बालों की जटा थी जो वेदी पर चारों ओर बिखरी हुई थी। दाढ़ी-मूंछ सफाचट। खुले हुए होठों पर सौम्य मुस्कान थी।

       जब मैं उस महान योगात्मा को आश्चर्य और कौतूहल के भाव से निहार रहा था तो उसी समय जिस सन्यासी के साथ आया था मैं, उसने मेरे कान में धीरे से कहा–ये योगात्मा योगी-समाज के अमर विभूति हैं। ये अजर-अमर हैं। देवगण भी इनकी प्रशंसा करते हैं।

      आयु कितनी होगी ?–मैंने धीरे से पूछा।

       इस सम्बन्ध में कुछ भी बतलाना कठिन है, बस आप समझ लें–ये अमरत्व को उपलब्ध हैं और इनकी आत्मा जिस शरीर में है, वह वैन्दव् शरीर है। वैन्दव् शरीर को ही विशुद्ध आत्मशरीर कहते हैं। वैन्दव् शरीर जब कभी पार्थिव शरीर में प्रकट होता है तो प्रकाश-पुञ्ज के रूप में दिखाई पड़ता है और इच्छानुसार प्रकाश-पुञ्ज कुछ समय के लिए पार्थिव काया में बदल जाता है। इस समय ऐसा ही हुआ है बौद्ध-भिक्षुणी #पद्मगंधा के लिए।

      _तभी मैंने देखा–न जाने किधर से धीरे-धीरे चलकर उस महान दिव्य योगात्मा के सामने खड़ी हो गई पद्मगंधा।_

       योगिनी की घनी केशराशि खुलकर पीठ पर बिखर गयी थी। चेहरे पर कोई किसी प्रकार का भाव नहीं था। ऐसा लग रहा था मानो वह पाषाण-प्रतिमा हो।

       महात्मा के नेत्र धीरे-धीरे खुले और पद्मगंधा पर स्थिर हो गए। पद्मगंधा ने उन्हें सिर झुका कर प्रणाम किया। फिर एक अभूतपूर्व व चमत्कारी घटना घटी।

      _महात्मा के नेत्र बंद हो गए और दोनों भौंहों के मध्य से एक प्रखर ज्योति अचानक प्रस्फुटित हुई। उसका रंग गहरा नीला था और प्रकाश-रेखा की तरह आगे बढ़ कर पद्मगंधा के पार्थिव शरीर के चारों ओर वर्तुलाकार रूप में चक्कर काटने लगी और दो-तीन क्षणों बाद अचानक लुप्त हो गई वह और उसी के साथ पद्मगंधा की पार्थिव काया भी न जाने कहाँ विलीन  हो गई।_

      इसके थोड़ी देर बाद वह महान योगी भी पुनः प्रकाश- पुञ्ज में परिवर्तित होकर निसर्ग में विलीन हो गए।

*यथार्थ सूक्ष्म~लोक का*

 प्रायः लोग रहस्यमयी मायावी दुनियां के चित्र-विचित्र रहस्यात्मक पहलुओं की चर्चा समाज में करते रहते हैं जिससे सुनने-पढ़ने वाले लोग न सिर्फ रोमांचित हो जाते हैं वल्कि उनमें से पचास प्रतिशत लोग तो आगे और जानने-पढ़ने के लिए जिज्ञासु भी हो जाते हैं।

      शेष पचास प्रतिशत लोग इन सारी बातों को अविश्वसनीय कह कर उपेक्षित कर देते हैं। इसका कारण तंत्र-मन्त्र-यंत्र के नाम पर तथाकथित पथ-भ्रष्ट तांत्रिकों की कालीविद्या रही है।

       इन कालीविद्याओं ने जादू-टोना का रूप ग्रहण कर लिया जिससे अज्ञानी, निर्दोष, बिना पढ़े-लिखे लोगों को सैकड़ों वर्षों से आजतक छला जाता रहा है। परिणाम यह हुआ कि तंत्र-मन्त्र-यंत्र पर से प्रायः लोगों का विश्वास समाप्त हो गया है।

       योग और तंत्र भारत की प्राचीनतम विद्याएँ रही हैं जिनके प्रकाश ने हज़ारों-हज़ार वर्षों तक समस्त विश्व को प्रकाशित और चमत्कृत रखा। उनके नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे-न-करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है।       

      _सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां होती हैं और यह सब कहीं-न-कहीं चतुर्थ आयाम से सम्बंधित होती हैं।_

       मनुष्य को जब कोई बात समझ नहीं आती है तो वह पहले उसको कपोल-कल्पना कह कर उसका उपहास उडाता है। मैं इस बात के लिए उसे  दोषी नहीं मानता हूँ क्योंकि मानव स्वभाव ही ऐसा होता है कि पहले वह किसी वस्तु पर विश्वास नहीं करता, फिर उसकी बुद्धि उसे ही स्वीकार करने को मजबूर हो जाती है।

      सूक्ष्मलोक के सम्बन्ध में मैं सारी बातें कल्पना और अध्ययन के आधार पर नहीं कर रहा हूँ वल्कि सब कुछ देख-सुन कर कह रहा हूँ। यही कारण है कि धर्मग्रंथों में इस सम्बन्ध में वर्णित विषयों पर मेरी आस्था नहीं रह गयी है। अल्प अवधि में ही सूक्ष्म जगत के जिन सत्यों से मैं परिचित हुआ, वे आप सबको वास्तव में अविश्वसनीय और मनगढन्त प्रतीत होंगे।

       मैं अपने आप में लीन और अपने आप में मग्न एक स्थान पर पहुँच गया जहाँ वक्राकार रूप में एक पहाड़ी नदी बहती थी। नदी बाढ़ पर थी और उसके दोनों किनारों के बीच लाखों हिलोरें क्रुद्ध सर्पिणियों की तरह भागी जा रही थीं।

      सुरमई साँझ की काली स्याही अब धीरे-धीरे रात्रि के अंधकार में बदलती जा रही थी। उस सुनसान निर्जन स्थान में नदी का कानों को कंपा देने वाली आवाज़ें भयानक लग रहीं थीं। थोड़े खुले स्थान में एक बड़ा-सा पेड़ था–ऊँचा और घनी पत्तियों से लदा हुआ। न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर  मैं उसी पेड़ के नीचे बैठ गया चुपचाप।

      रात बढ़ती गयी और साथ ही उसका अंधकार भी प्रगाढ़ होता गया। चाँद छिप चुका था। क्या रात्रि थी वह ? निर्जन प्रकृति का वह रौद्र सौंदर्य जिसे मनुष्य ने अबतक खंडित नहीं किया था। आज जब उस रात्रि की छवि मानस-पटल पर उभरती है तो मन करता है कि काश ! उस स्थान पर फिर पहुँच जाता।

      थोड़ी देर सन्नाटा रहा। अचानक एक भालू उस पेड़ से नीचे आया और इधर-उधर चक्कर लगाने लगा। वह गुर्राता रहा। इसके बाद मैंने जो देखा उस पर आज भी विश्वास नहीं होता। एक भीमकाय व्यक्ति वहां आया। उसका कद लगभग सात फुट ऊँचा होगा। बिलकुल दैत्य-सा लग रहा था। आते ही उसने तीव्र घोष किया। उसी घोष के साथ ही वहां दो आकृतियां उस पेड़ के नीचे प्रकट हो गयीं।

          दोनों ने न जाने किस भाषा में उस भीमकाय पुरुष के उस हुंकार का जवाब दिया। वाणी से लगा कि वे दोनों स्त्रियां थीं। वे नग्न थीं या कुछ पहने थी–मैं देख न सका।

      आते ही दोनों स्त्रियां उस भीमकाय पुरुष के दोनों ओर खड़ी हो गयीं। वह भालू भी उस पेड़ के बजाय  उन तीनों के आस-पास घूमने लगा। वे तीनों स्त्री-पुरुष पेड़ के नीचे बैठ कर काफी देर तक बातें करते रहे।

       उनकी भाषा मेरी समझ में नहीं आई लेकिन इतना अनुमान मैंने लगा लिया कि वे तीनों उस पेड़ के बारे में ही कुछ कह रहे थे। अचानक वह भालू जो अभी उन तीनों का चक्कर लगा रहा था, आदमी के रूप में बदल गया। वह भालू से बना आदमी भी भीमकाय था।

       फिर दोनों व्यक्तियों के बीच में भयंकर द्वन्द्वयुद्ध होने लगा। द्वन्द्वयुद्ध समाप्त होते ही दोनों व्यक्ति हुंकार भरते हुए नदी की ओर तेजी से भागे और धड़ाम से उस नदी में कूद गए। वे स्त्रियां हंस-हंस कर तालियां बजाने लगीं। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। 

      उन स्त्रियों और मनुष्यों की गतिविधियाँ, हँसना, तालियां बजाना आदि पृथ्वी लोक के ही समान था पर वे सभी प्राणी पृथ्वी लोक के नहीं थे–यह निर्विवाद सत्य है।

      थोड़े क्षणों के लिए वे स्त्रियां आवेश में बातें करती हुई कहीं विलीन हो गयीं पर कुछ समय बाद पुनः प्रकट हो गयीं। उनकी आवाज़ें सुनाई देने लगीं। वे उस पेड़ के पास आ कर बैठ गयीं।

      सहसा दूर एक अट्टहास गूंजा और उसके उत्तर में उन दोनों स्त्रियों ने भी गला फाड़ कर आवाज़ें लगाईं। फिर वे ताली पीट-पीट कर नाचने लगीं। फिर  मैंने देखा कि नदी में कूदने वाले वे दोनों पुरुष पेड़ के पास चले आ रहे थे जहाँ मैं बैठा था।

      शायद उन्हें मेरे होने का आभास नहीं था। दोनों ने अपने कन्धों पर से उन स्त्रियों की सहायता से कुछ धीरे से नीचे उतारा। एक स्त्री ने आग जलाई जिसकी हलकी रौशनी में मैने जो कुछ देखा, उस पर सहसा विश्वास नहीं हुआ। बस साँस रोके देखता रहा।

       दो लाशें वहां पड़ी हुई थीं। एक स्त्री की थी और दूसरी थी पुरष की। दोनों पानी से भीगी हुई थीं।

*आँखों देखा एक़ यथार्थ सूक्ष्म~लोक का :*

 प्रायः लोग रहस्यमयी मायावी दुनियां के चित्र-विचित्र रहस्यात्मक पहलुओं की चर्चा समाज में करते रहते हैं जिससे सुनने-पढ़ने वाले लोग न सिर्फ रोमांचित हो जाते हैं वल्कि उनमें से पचास प्रतिशत लोग तो आगे और जानने-पढ़ने के लिए जिज्ञासु भी हो जाते हैं।

      शेष पचास प्रतिशत लोग इन सारी बातों को अविश्वसनीय कह कर उपेक्षित कर देते हैं। इसका कारण तंत्र-मन्त्र-यंत्र के नाम पर तथाकथित पथ-भ्रष्ट तांत्रिकों की कालीविद्या रही है।

       इन कालीविद्याओं ने जादू-टोना का रूप ग्रहण कर लिया जिससे अज्ञानी, निर्दोष, बिना पढ़े-लिखे लोगों को सैकड़ों वर्षों से आजतक छला जाता रहा है। परिणाम यह हुआ कि तंत्र-मन्त्र-यंत्र पर से प्रायः लोगों का विश्वास समाप्त हो गया है।

       योग और तंत्र भारत की प्राचीनतम विद्याएँ रही हैं जिनके प्रकाश ने हज़ारों-हज़ार वर्षों तक समस्त विश्व को प्रकाशित और चमत्कृत रखा। उनके नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे-न-करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है।       

      _सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां होती हैं और यह सब कहीं-न-कहीं चतुर्थ आयाम से सम्बंधित होती हैं।_

       मनुष्य को जब कोई बात समझ नहीं आती है तो वह पहले उसको कपोल-कल्पना कह कर उसका उपहास उडाता है। मैं इस बात के लिए उसे  दोषी नहीं मानता हूँ क्योंकि मानव स्वभाव ही ऐसा होता है कि पहले वह किसी वस्तु पर विश्वास नहीं करता, फिर उसकी बुद्धि उसे ही स्वीकार करने को मजबूर हो जाती है।

      सूक्ष्मलोक के सम्बन्ध में मैं सारी बातें कल्पना और अध्ययन के आधार पर नहीं कर रहा हूँ वल्कि सब कुछ देख-सुन कर कह रहा हूँ। यही कारण है कि धर्मग्रंथों में इस सम्बन्ध में वर्णित विषयों पर मेरी आस्था नहीं रह गयी है। अल्प अवधि में ही सूक्ष्म जगत के जिन सत्यों से मैं परिचित हुआ, वे आप सबको वास्तव में अविश्वसनीय और मनगढन्त प्रतीत होंगे।

       मैं अपने आप में लीन और अपने आप में मग्न एक स्थान पर पहुँच गया जहाँ वक्राकार रूप में एक पहाड़ी नदी बहती थी। नदी बाढ़ पर थी और उसके दोनों किनारों के बीच लाखों हिलोरें क्रुद्ध सर्पिणियों की तरह भागी जा रही थीं।

      सुरमई साँझ की काली स्याही अब धीरे-धीरे रात्रि के अंधकार में बदलती जा रही थी। उस सुनसान निर्जन स्थान में नदी का कानों को कंपा देने वाली आवाज़ें भयानक लग रहीं थीं। थोड़े खुले स्थान में एक बड़ा-सा पेड़ था–ऊँचा और घनी पत्तियों से लदा हुआ। न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर  मैं उसी पेड़ के नीचे बैठ गया चुपचाप।

      रात बढ़ती गयी और साथ ही उसका अंधकार भी प्रगाढ़ होता गया। चाँद छिप चुका था। क्या रात्रि थी वह ? निर्जन प्रकृति का वह रौद्र सौंदर्य जिसे मनुष्य ने अबतक खंडित नहीं किया था। आज जब उस रात्रि की छवि मानस-पटल पर उभरती है तो मन करता है कि काश ! उस स्थान पर फिर पहुँच जाता।

      थोड़ी देर सन्नाटा रहा। अचानक एक भालू उस पेड़ से नीचे आया और इधर-उधर चक्कर लगाने लगा। वह गुर्राता रहा। इसके बाद मैंने जो देखा उस पर आज भी विश्वास नहीं होता। एक भीमकाय व्यक्ति वहां आया। उसका कद लगभग सात फुट ऊँचा होगा। बिलकुल दैत्य-सा लग रहा था। आते ही उसने तीव्र घोष किया। उसी घोष के साथ ही वहां दो आकृतियां उस पेड़ के नीचे प्रकट हो गयीं।

          दोनों ने न जाने किस भाषा में उस भीमकाय पुरुष के उस हुंकार का जवाब दिया। वाणी से लगा कि वे दोनों स्त्रियां थीं। वे नग्न थीं या कुछ पहने थी–मैं देख न सका।

      आते ही दोनों स्त्रियां उस भीमकाय पुरुष के दोनों ओर खड़ी हो गयीं। वह भालू भी उस पेड़ के बजाय  उन तीनों के आस-पास घूमने लगा। वे तीनों स्त्री-पुरुष पेड़ के नीचे बैठ कर काफी देर तक बातें करते रहे।

       उनकी भाषा मेरी समझ में नहीं आई लेकिन इतना अनुमान मैंने लगा लिया कि वे तीनों उस पेड़ के बारे में ही कुछ कह रहे थे। अचानक वह भालू जो अभी उन तीनों का चक्कर लगा रहा था, आदमी के रूप में बदल गया। वह भालू से बना आदमी भी भीमकाय था।

       फिर दोनों व्यक्तियों के बीच में भयंकर द्वन्द्वयुद्ध होने लगा। द्वन्द्वयुद्ध समाप्त होते ही दोनों व्यक्ति हुंकार भरते हुए नदी की ओर तेजी से भागे और धड़ाम से उस नदी में कूद गए। वे स्त्रियां हंस-हंस कर तालियां बजाने लगीं। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। 

      उन स्त्रियों और मनुष्यों की गतिविधियाँ, हँसना, तालियां बजाना आदि पृथ्वी लोक के ही समान था पर वे सभी प्राणी पृथ्वी लोक के नहीं थे–यह निर्विवाद सत्य है।

      थोड़े क्षणों के लिए वे स्त्रियां आवेश में बातें करती हुई कहीं विलीन हो गयीं पर कुछ समय बाद पुनः प्रकट हो गयीं। उनकी आवाज़ें सुनाई देने लगीं। वे उस पेड़ के पास आ कर बैठ गयीं।

      सहसा दूर एक अट्टहास गूंजा और उसके उत्तर में उन दोनों स्त्रियों ने भी गला फाड़ कर आवाज़ें लगाईं। फिर वे ताली पीट-पीट कर नाचने लगीं। फिर  मैंने देखा कि नदी में कूदने वाले वे दोनों पुरुष पेड़ के पास चले आ रहे थे जहाँ मैं बैठा था।

      शायद उन्हें मेरे होने का आभास नहीं था। दोनों ने अपने कन्धों पर से उन स्त्रियों की सहायता से कुछ धीरे से नीचे उतारा। एक स्त्री ने आग जलाई जिसकी हलकी रौशनी में मैने जो कुछ देखा, उस पर सहसा विश्वास नहीं हुआ। बस साँस रोके देखता रहा।

       दो लाशें वहां पड़ी हुई थीं। एक स्त्री की थी और दूसरी थी पुरष की। दोनों पानी से भीगी हुई थीं।

       दोनों शव दानव जैसे उन आदमियों ने अपने कन्धों से नीचे उतारे। अब चारों व्यक्ति अपने अपने कार्य में बड़ी तेजी से लग गए। एक स्त्री ने लकड़ियाँ एकत्र कर तेज आग जला दी। प्रकाश पहले से अधिक तेज हो गया। फिर चारों ने मिलकर उन दोनों शवों के भीतर भरे पानी को बाहर निकाला।

       जब पानी निकल गया तो एक आदमी ने दोनों शवों पर कोई मन्त्र पढ़ते हुए फूँक मारी, फिर गम्भीर स्वर में  किलकारियाँ भरते हुए उन शवों के चारों ओर घूम घूम कर नाचने लगा। उसी समय पेड़ पर दुबका हुआ एक चीता पेड़ से नीचे उतरा और पलक झपकते एक सुन्दर पुरुष के रूप में परिवर्तित हो गया।

      उसका चेहरा भावहीन और निर्विकार था। अपनी बड़ी बड़ी आँखें चारों ओर घुमा कर ध्यान से उसने देखा और फिर कोई संकेत किया जिसके फलस्वरूप वे चारों व्यक्ति दोनों शवों के चारों तरफ एक दूसरे का हाथ पकड़ कर गोलाकार रूप में नृत्य करने लगे। नृत्य की गति धीरे धीरे बढ़ने लगी।

      अन्त में वह नृत्य ताण्डव नृत्य में बदल गया। उस रौशनी में वह विकराल ताण्डव ऐसा भयानक लग रहा था कि स्वयं मृत्यु भी सहम जाय।

       काफी देर तक यह नृत्य का क्रम चलता रहा और वह चीते से बना सुन्दर व्यक्ति बड़ी तल्लीनता से देखता रहा। नृत्य के बीच से ही एक स्त्री तेजी से नदी की ओर दौड़ी और जब वह लौट कर आई तो उसके हाथ में कुछ जंगली पौधे थे जिनका रस दोनों शवों के मुखों में निचोड़ना शुरू किया उसने। यह क्रिया समाप्त होते ही दोनों पुरुषों ने फिर दोनों शवों को अपने अपने कन्धों पर उठा लिया और फिर नाचने लगे।

       धीरे धीरे नृत्य की गति और स्पंदन इतना तीव्र हो गया कि चारों तरफ वे दोनों पुरुष ही दिखलायी देने लगे। नृत्य की लय और प्रचंड आवेग ने दोनों को इतना विशाल बना दिया कि ज़मीन से आसमान तक केवल उनकी ही व्याप्ति, उनके ही अंग-प्रत्यंगों का विस्तार नज़र आ रहा था।

       दोनों स्त्रियां एकटक देखती रहीं दोनों पुरुषों की भाव भंगिमाओं को। वे बिलकुल निश्चल बैठी हुई थीं कि मानो वे स्वयं शव हों। काफी देरतक यह स्थिति रही। आखिर एक चीख सुनाई पड़ी।

       उसके बाद फिर एक और चीख सुनाई पड़ी। दोनों चीखों को सुनकर ऐसा लग रहा था मानो किसी कातर कंठ से निकली हों। अब उन दोनों पुरुषों ने उन शवों को ज़मीन पर लिटा दिया। सहसा दोनों शवों के मुखों से कराहने की आवाजें आने लगीं। अब वे अपने अपने स्थान पर जोर जोर से हिलने लगे। पहले वाला भीमकाय पुरुष बारी बारी से उन शवों के मुखों में  कोई मन्त्र पढ़ कर फूँक मारने लगा। मंत्रोच्चार तीव्र होता जा रहा था और उस ध्वनि से मुझे लगा कि मेरे ही नहीं, समस्त जड़-चेतन के ह्रदय कम्पायमान थे। रात्रि का अंधकार अब धीरे धीरे कम होने लगा था।

        अंधकार की काली चादर अब धीरे धीरे पारदर्शी होती जा रही थी। अब वे दोनों शव कभी अपने अपने अंग ज़मीन पर पटकने लगते तो कभी ज़ोर ज़ोर से हिलाने लगते थे। उस भीमकाय व्यक्ति ने आसमान की ओर देखा और विचलित भाव से दोनों स्त्रियों की ओर संकेत किया। चारों उठ खड़े हुए और पुनर्जीवित व्यक्तियों के पास आकर खड़े हो गए।

कुछ समय बाद वह चीते से बना सुन्दर पुरुष भी उन पुनर्जीवित व्यक्तियों के पास आ गया। अचानक वे दोनों पुनर्जीवित व्यक्ति अपने स्थान से उठे और जंगल की ओर भागने लगे। उनके पीछे पीछे वे दोनों स्त्रियां और साथ ही वे दोनों पुरुष भी उसी दिशा में चले गए। मैं अपलक दृष्टि से उन सबको जाते हुए देखता रहा चुपचाप। जब आँख से ओझल हो गए वे तो सोचने लगा मैं– कौन थे वे लोग? कहाँ से  आये थे और फिर कहाँ चले गए?  जो कुछ मैंने देखा था उसका क्या उद्देश्य था उनका?

      अभी मैं इन सारी बातों पर विचार कर ही रहा था कि सहसा मुझे भीषण ताप का अनुभव हुआ और उसीके साथ मेरी बाह्य चेतना वापस लौट आई। आँख खुली तो देखा-सबेरा हो रहा था। बाबा चबूतरे पर टहल रहे थे। कहने की आवश्यकता नहीं, पूरे तीस घण्टे उसी अवस्था में, उसी मुद्रा में, उसी अंतर्चेतना की अवस्था में रहा था मैं।

      इतने वर्षों बाद आज भी जब उस कालरात्रि का स्मरण हो आता है तो मेरा रोम रोम कांप उठता है। पूरा एक महीना हो गया था मुझे कर्णप्रयाग आये हुए। ठंडक बढ़ गयी थी। पद्मगंधा का व्यक्तित्व मेरे लिए रहस्यमय बना हुआ था। भोजन वह कभी करती नहीं दिखती थी। घंटों ध्यानस्थ बैठी रहती थी एकांत में वे। जब भी बोलती थी, अध्यात्म पर ही बोलती थी।

      धर्मशाला की एक कोठरी में पद्मगंधा का आसन था और उनके बगल वाली कोठरी में मैं ठहरा हुआ था। आधी रात के समय न जाने कैसे अचानक मेरी नींद खुल गयी। चौंक कर उठ बैठा मैं। बाहर पूर्व की तरह हिमवर्षा हो रही थी। फिर न जाने किस प्रेरणा से पद्मगंधा की कोठरी की ओर बढ़ चले मेंरे कदम।

      कोठरी के भीतर झांक कर देखा  तो चकित रह गया। भीतर अंधकार नहीं था। नीले रंग का हल्का सा प्रकाश हो रहा था वहां। ध्यान से देखा –पद्मगंधा पद्मासन की मुद्रा में अपने आसन पर बैठी हुई थी। उनके शरीर से ही नीले रंग का प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था जो पूरी कोठरी में फ़ैल रहा था। पद्मगंधा के पारदर्शी प्रकाशमय शरीर की ओर स्तब्ध सा निहारता रहा मैं अपलक।

       देखते ही देखते पद्मगंधा का वह देदीप्यमान शरीर छोटा होने लगा और अंत में लुप्त हो गया। दूसरे ही पल वह पूरी कोठरी अंधकार में डूब गयी।

  धर्म-ग्रंथों में ऋषियों और देवताओं के अंतर्ध्यान होने की कथाएं तो मैंने बहुत सारी पढ़ी थीं लेकिन प्रत्यक्ष रूप से कभी किसी को अंतर्ध्यान होते हुए देखूंगा–इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी मैंने।

काफी पहले मैंने विख्यात विज्ञान लेखक एच. जी.वेल्स का एक उपन्यास पढ़ा था जिसका नाम था : द इनविजिबल मैन’।

       उस उपन्यास में एक ऐसे आदमी की कहानी कही गई थी जो अदृश्य होने में सफल हो जाता था। वेल्स ने अदृश्यता के गुण को समर्थन देने के लिए दिकपरिवर्तित अभिसूचकांकों का भी उल्लेख किया था।

       उदहारण के रूप में यहाँ ऐसी दो घटनाओं का वर्णन कर रहा हूँ यह स्पष्ट करने के लिए कि लोग आजकल भी अदृश्य हो जाते हैं। दोनों घटनाएं प्रामाणिक हैं और अनेक गण्यमान्य व्यक्तियों और वैज्ञानिकों ने उनकी जाँच करके इन्हें सत्य पाया था-

      पहली घटना सन् 1880 की है। अमेरिका के टेनेसी राज्य के गालाटिन नामक स्थान के डेविड लेंग नामक एक धनी किसान से सम्बंधित है। 23 सितम्बर 1880 की सुबह लेंग अपने नये बन रहे घर की ओर रवाना हुआ। जाने से पहले उसने अपनी पत्नी से कहा–मैं पांच-दस मिनट में वापस लौट आऊंगा।

      ज्यादा समय नहीं लगेगा। पर अभागा लेंग कभी वापस नहीं लौटा। पांच-छः कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सबके देखते-देखते अन्तर्ध्यान हो गया। जिस स्थान पर लेंग गायब हुआ था, उसके आसपास कोई ऐसी वस्तु–पेड़, झाडी, गड्ढा आदि भी न था कि उसमें छिप गया हो।

      इसलिए यह आश्चर्य की ही बात थी कि लेंग कहाँ, कैसे गायब हो गया। उसकी खोज लगातार कई दिनों तक होती रही लेकिन कहीं उसका पता नहीं चला। चूँकि लेंग सम्माननीय व्यक्ति था इसलिए सरकार को विधिवत् जाँच करानी पड़ी। जाँच रिपोर्ट में कहा गया था कि लेंग किसी अज्ञात रहस्यमय ढंग से सचमुच कहीं अन्तर्ध्यान हो गया है और वापस आने की सम्भावना न के बराबर है।

      दूसरी घटना क्लोजा नामक बारह साल के लडके की है। मनीला की प्रसिद्ध समाचार एजेंसी यू.पी.आई.ने बाकायदा खोज करके एक ऐसे लडके की कहानी प्रकाशित की थी जो बार-बार अदृश्य हो जाता था।

     1951 में क्लोजा नामक एक बारह साल के लड़के के अदृश्य होने का सिलसिला शुरू हुआ। एक दिन अपनी क्लास में बैठे बैठे उसे लगा कि कोई अदृश्य परी उसे अपने पास खेलने के लिए बुला रही है। जैसे ही उस लडके ने उस परी के पास जाने की इच्छा की, उसे लगा कि वह हल्का हो गया।

        हल्का होते ही वह गायब हो गया क्लास से और उस परी के पास खेलने पहुँच गया। फिर तो यह उसका रोज़ का क्रम बन गया। वह क्लास में बैठे-बैठे गायब हो जाता और एक बार तो वह लगातार दो दिन तक गायब रहा। अंत में एक पादरी के प्रार्थना करने पर यह क्रम समाप्त हुआ।

     *चतुर्थ आयाम के क्षेत्र का अविश्वसनीय घटनाक्रम :*

       एक नीली रौशनी के प्रभाव से छः फुट ऊँचे मेरे साथी भुवन बाबू नवजात शिशु के रूप में बदल गए।

       _अब मैं अन्तर्ध्यान के इस प्रसंग द्वारा एक ऐसी विलक्षण कथा सुनाने जा रहा हूँ जो अपने आप में अति महत्वपूर्ण है।_

       स्थूल से सूक्ष्म जगत में प्रवेश कर रहे विज्ञान के क्षेत्र में इससे अभूतपूर्व क्रांति मच सकती है। महत्व का कारण एक ऐसा तथ्य है जिससे परमाणु जगत में जूझ रहे वैज्ञानकों को एक सही दिशा मिल सकती है।

      मेरे एक मित्र थे भुवन मोहन शर्मा। खगोल विज्ञान, पदार्थ विज्ञान और रसायन विज्ञान में उन्होंने बहुत सारी खोज की थी। पातंजल योग का अच्छा-खासा उन्होंने अभ्यास किया हुआ था। फलस्वरूप कई सिद्धियां भी प्राप्त थी उन्हें।

       भुवन बाबू इधर काफी अरसे से परमाणुओं को रसायन विज्ञान के आधार पर विघटित करने की दिशा में शोध-कार्य कर रहे थे। पदार्थ विज्ञान और रसायन विज्ञान दोनों एक प्रकार से योग विज्ञान के ही अंग हैं।

 योग रसायन में पारद अर्थात् पारा को शुद्ध करके उसके द्वारा परमाणुओं को विघटित करने की कला प्राचीन काल में लोग जानते थे। इस सम्बन्ध में भुवन बाबू को मैंने एक बहुत प्राचीन पुस्तक दी थी जो शोध की दिशा में उनके लिए अमूल्य सिद्ध हुई।

      उनका शोध किस सीमा तक पहुंचा यह बताने के लिए मुझे उन्होंने अपने यहाँ बुलाया। उसके बाद फिर आजतक उनसे मेरी भेंट नहीं हुई। भुवन बाबू कहाँ चले गए ? -यह बात आजतक किसी को भी नहीं पता।  

        उनके समस्त शोध-कार्य से केवल मैं ही परिचित था। उनके सम्बन्ध में बहुत से लोगों ने मुझसे पूछताछ की लेकिन मैंने  किसी को कुछ भी नहीं बताया उनके गायब होने के रहस्य के बारे में। लेकिन अब इस लेख के माध्यम से यह सनसनीखेज रहस्य प्रकट करना आवश्यक लगा।

     मैं तब स्नातक का छात्र था. 18 जुलाई, 1997 को सवेरे जब मैं भुवन बाबू के घर पहुंचा तो बाहर कहीं जाने के लिए वह वरामदे में तैयार मिले।    

       मुझे देखते ही बोल उठे : आओ विकास, आओ. कब से तुम्हारी राह देख रहा था। आज एक अद्भुत और विलक्षण दृश्य मैं तुमको दिखाने वाला हूँ।

       मैंने कौतूहलवश उनकी ओर देखा पर बोला कुछ नहीं। उस समय काफी तेज वर्षा हो रही थी। भुवन बाबू ने अपनी कार निकाली और मुझे लेकर चल पड़े। करीब तीन घण्टे बाद हम लोग एक सुनसान जंगली इलाके में पहुंचे। कार से उतर कर मैं भुवन बाबू के पीछे पीछे चल पड़ा।

    भुवन बाबू ने कहा– तुम पहली बार आये हो। मैं पिछली 5-6 पूर्णिमा से बराबर यहाँ आ रहा हूँ। इसके आलावा मैं अमावस्या की अँधेरी रात में भी आया हूँ।

      मैं तुम्हें यह बतलाने के लिए यहाँ लाया हूँ कि इस बंजर ज़मीन पर रात 11 बजे के बाद तुम्हें एक अद्भुत और विलक्षण दृश्य दिखाई देगा जिसे देख कर तुम थर्रा उठोगे।

      ऐसा कौन-सा दृश्य होगा ? कल्पना करने लगा मैं। तभी भुवन बाबू ने मुझे झकझोरा और कहा–उधर देखो, शर्मा उधर। स्निग्ध चांदनी में बंजर ज़मीन पर उस समय मैंने जो दृश्य देखा , मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं कैसे किन शब्दों में समझाऊँ ? कोई दृश्य आपको मोहक लगता है तो कोई भयावह।

       शेर आपको भयावह लगता है और बिल्ली का बच्चा मोहक। और जो मोहक भी हो और भयावह भी हो–ऐसे किसी दृश्य की कल्पना क्या आप कर सकते हैं ?

      जिस वस्तु से मिलती- जुलती कोई चीज़ आपने कभी देखी-सुनी ही न हो, उसके वर्णन को सुनकर आपकी समझ में कुछ नहीं आ सकता। भुवन बाबू जिस ओर ऊँगली उठाये हुए थे, उस तरफ जब मैंने देखा तो मुझे डर-सा लगा। डर क्यों लगा ?

      यह भी मैं ठीक से नहीं बता सकता। थोड़ी देर अजीब-सी हलचल होती रही उसके बाद बिजली जैसा झटका लगा मुझे और एकबारगी मैं घबरा गया। मगर दूसरे ही क्षण मैंने संभाल लिया अपने को और उसके बाद पंद्रह-बीस फुट लम्बी चौड़ी बंजर ज़मीन के दायरे में मैंने एक विशेष प्रकार का चमकीला प्रकाश देखा।

        थोड़ी देर तक उस प्रकाश की ओर देखता रहा। उसके बाद एक विशेष प्रकार की सरसराहट की अनुभूति हुई मुझे। उस चमकीले प्रकाश के भीतर एक ऐसी विचित्र वस्तु थी जो हर पल अपना रंग-रूप-आकार बदल रही थी।

      एक पल के लिए उस विचित्र वस्तु के निकट जाने का दुर्निवार लोभ भी मन में पैदा हुआ मगर साहस नहीं हुआ। असह्य भय और सुखदायी मोह दोनों मेरे मन को मथने लगे।

उस विचित्र वस्तु को निकट से जाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई। उस समय मुझे जो गन्ध प्रतीत हुई, उसका वर्णन करना भी बहुत कठिन है। जूही के फूलों जैसी खुशबू और घाणेरी के फूलों जैसी बदबू लिए एक साथ मेरी नाक में घुस रही थी।

      वह अत्यंत खुशगवार और असहनीय भी थी। विरोधी अहसासों के झूले पर हिचकोले खाता  हुआ मैं अपलक दृष्टि से उस तरफ देखता रहा।

  एकाएक वह छटपटाहट और हलचल थम-सी गयी। वे भिन्न-भिन्न आकार भी अदृश्य हो गए। केवल प्रकाश की कोमल छटा रह गयी। 

      रात आधी गुजर चुकी थी। रुपहला चाँद ऊपर चढ़ आया था। चारों तरफ एक विचित्र-सी नीरवता छायी हुई थी। धीरे-धीरे प्रकाश का वह दायरा बढ़ने लगा और साथ ही घनीभूत भी होने लग गया।

      दायरे के चारों ओर से कोहरे जैसा सफ़ेद हल्का पारदर्शी धुआं निकल-निकल कर वातावरण में छाने लगा और फिर खम्बा जैसा आकार बनाता हुआ आकाश की ओर उठने लगा। कुछ ही पलों में वह काफी ऊपर तक चला गया। सहसा एक विचित्र दृश्य देखने को मिला।

      आकाश की ओर से उस खम्बे के सहारे पुराने ढंग के वायुयान के आकार-प्रकार का एक वायुयान नीचे उतरता हुआ मुझे दिखाई दिया। पूरा यान पारदर्शी धातु का बना हुआ था। लेकिन उसमें पंख नहीं थे। आगे और पीछे की ओर दो चक्र थे जो काफी तेजी से अपनी-अपनी जगह घूम रहे थे और घूमने के कारण उनमें से ‘भन-भन’ की हल्की आवाज़  निकल रही थी।

       जब वह रहस्यमय यान बिलकुल नीचे आ गया तो मैंने देखा कि भीतर काफी जगह थी और कई गद्देदार कुर्सियां उसमें लगी हुई थीं जिन पर विचित्र रूप-रंग के चार-पांच प्राणी बैठे हुए थे। उनके सिर शरीर के अनुपात में काफी बड़े और कोहडे जैसे बेडौल थे। शरीर की लंबाई सात फ़ीट से अधिक ही रही होगी।

       ज़मीन का स्पर्श करते ही उस यान से बड़ी तीव्र गति से विभिन्न रंगों की चिंगारियां निकलने लगीं और ‘भन-भन’ की आवाज़ भी तेज हो गयी। कुछ देर बाद वह आवाज़ इतनी तेज हो गयी कि उसे सहन न कर सका और मैं अचेत होकर एक ओर लुढक गया।

      होश आया तो भुवन बाबू ने बताया कि उस यान में बैठे हुए विचित्र प्राणी तीन आयाम वाली दुनियां के बाहर के हैं। संभव हो कि चार और इससे भी अधिक आयाम वाले हों।

      मैं समझा नहीं।

      भुवन बाबू ने समझाने की कोशिश की। बोले–हमारा यह संसार तीन आयाम का है। यहाँ की हर वस्तु लम्बी, चौड़ी और मोटी होती है। इस संसार का प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वस्तु के तीन आयाम हैं-लंबाई ,चौड़ाई और मोटाई।

       तीन आयाम की वस्तुओं को ही हम देख-सुन सकते हैं और अपनी इन्द्रियों से अनुभव भी कर सकते हैं। इस तीन आयाम वाले जगत में बहुत से ऐसे स्थान भी हैं जो चौथे आयाम की सीमा से मिलते हैं। इस सुनसान जंगल को ऐसा ही स्थान सनझना चाहिए। यहाँ तीन और चार आयाम का सन्धि-स्थल है।

        इसलिए चौथे आयाम वाले प्राणियों के आवागमन के केंद्र बन जाते हैं। चार आयाम वाले प्राणी तीन आयाम वाले प्राणियों को देख-सुन सकते हैं लेकिन तीन आयाम वाले चार आयाम वालों को नहीं।

      लेकिन हम लोगों ने उन चार आयाम वाले प्राणियों को देखा  है ?–मैंने भुवन बाबू से पूछा।

      इसका रहस्य मैं आगे बतलाऊंगा। दूसरी आश्चर्य की बात यह है कि तीन आयाम का प्राणी यदि किसी प्रकार चौथे आयाम में चला जाय तो उस स्थान पर रहते हुए भी वह न तो दिखाई पड़ सकता है और न कभी तीन आयाम वाले जगत में वापस आ सकता है।

      अब मैं तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान करूँगा। इतना कह कर भुवन बाबू ने एक कागज़ पर आदमी का एक चेहरा बनाया और मेरे सामने रखते हुए बोले–

     _इस आकृति के दो ही आयाम हैं–लम्बाई और चौड़ाई। अब कल्पना करो कि यह आदमी जीवित है। किस दिशा में देख रहा है यह ?  पूर्व की तरफ न ? यह पश्चिम की तरफ नहीं देख सकता क्योंकि इसके दो ही आयाम हैं।_

       यह सिर इधर- उधर नहीं घुमा सकता। चित्र का चेहरा दूसरी और करके भुवन बाबू ने कहा –अब यह हमें नहीं देख सकता, क्योकि हम कागज की सतह से बाहर हैं। इसी के साथ उन्होंने अपनी एक उंगली चित्र के चहरे की आँखों के सामने रख दी। फिर बोले–अब मेरी उंगली इसे दिखाई देती होगी।

       यही मेरा सिद्धांत है। इसी पर मेरा शोध-कार्य चल रहा है। हमनें जो कुछ भी देखा उसका कारण बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे नेत्र तीन आयाम वाले हैं।

       उनके द्वारा कभी भी चार आयाम वाली वस्तु नहीं दिखाई पड़ेगी। पर अपनी दुनियां और उनकी दुनियां के बीच के झीने से आवरण में जिस पल परमाणुओं के नीरव विस्फोट के फलस्वरूप एक छेद-सा हो जाता है, उसी पल चौथे आयाम की थोड़ी-सी हल्की झलक दिखाई पड़ जाती है। पर इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि तीसरे और चौथे आयाम की सीमा पर  होने वाला परमाणु विस्फोट निश्चित समय पर ही होता है और वातावरण में उसका प्रभाव कुछ ही समय तक रहता है।

      यदि उस प्रभाव के दौरान कोई भी प्राणी या चीज़ उस प्रभावी क्षेत्र में चली जाय तो वह हमेशा के लिए अदृश्य हो जायेगी। तुमने तो अटलांटिक महासागर के #वरमुडा #त्रिकोण के बारे में सुना होगा ?

      वहां अबतक कितने हवाई जहाज़, पानी के जहाज़ तथा अन्य लोग गायब हो चुके हैं जिनका आजतक कोई पता न चल सका।

      तो हम लोगों को कैसे यह सब दिखाई पड़ा ? –मैंने बेचैनी से पूछा। भुवन बाबू ने समझाते हुए कहा–हम लोग उस दृश्य को पूरा-पूरा नहीं देख पा रहे हैं। उसका आंशिक भाग ही दिखाई दे रहा है। पूरा यान कैसा होगा ?

     उसमें बैठे चार आयाम वाले प्राणियों का आकार-प्रकार कैसा होगा ?–इस विषय में स्पष्ट नहीं बताया जा सकता। अब मैं उन चौथे आयाम वाले प्राणियों से मिलूंगा। मुझे पूरा विश्वास है कि हमे नक्षत्र लोकों की बहुत सारी जानकारी मिलेगी। सौरमंडल के गर्भ में छिपी हुई सभ्यताओं पर भी प्रकाश पड़ेगा।

      तभी एक तेज प्रकाश दिखाई दिखाई दिया जिसका वर्णन नहीं कर सकता। वह आग की तरह दाहक था और चांदनी की तरह स्निग्ध भी। जब प्रकाश गायब हो गया तो कब भुवन बाबू उस अनिर्वचनीय क्षेत्र की सीमा में पहुँच गए, मुझे जरा-सा भी इसका आभास न लगा।

      एकाएक वह प्रकाश अपनी सीमा में चारों ओर फ़ैल गया। फिर मैंने देखा उन प्राणियों को। उनका शरीर काफी पतला था, रंग तांविया था। चेहरा मंगोल जाति के लोगों जैसा था।

       सिर पर बाल बिलकुल नहीं थे। नीचे से ऊपर तक एक लबादा पहने हुए थे तथा काफी बड़ी-बड़ी टमाटर जैसी आँखों से लाल- पीली चिंगारियां निकाल रहे थे। सबके चेहरे निर्भाव थे–सपाट ,निर्विकार।

      मैंने देखा भुवन बाबू को वे सब चारों और से घेरे खड़े हैं और आपस में न जाने क्या बात कर रहे हैं। लगता था कि वे सब काफी प्रसन्न हैं भुवन बाबू को पाकर। लेकिन इसके ठीक विपरीत भुवन बाबू के चहरे पर विषाद की रेखाएं हैं। चेहरा पीला पड़ता जा रहा है।

      कुछ देर बाद यान का मुख्य दरवाजा अपने आप खुला। दरवाजा पारदर्शी था। मैं कुछ ऐसे कोण पर खड़ा था कि मुझे यान का भीतर का काफी हिस्सा साफ-साफ दिखाई पड रहा था। मैंने देखा कि ड्राइवर के सामने वाले हिस्से पर बेशुमार यंत्र लगे हुए थे।

      बीच में एक टेलीविज़न जैसा लंबा-चौड़ा यंत्र लगा हुआ है जिसमें मैंने देखा  कि पृथ्वी के रंग-रूप आकार का एक गोल ग्रहपिंड तेजी से अपनी जगह घूम रहा है। शायद वह पृथ्वी रही होगी।

       दरवाजा खुलने के बाद मैंने एक युवती को बाहर उतरते हुए देखा। मेरे ‘युवती’ कहने से जो आपके मन में कल्पना उभरेगी, वैसी नहीं थी वह। उन व्यक्तियों की तरह वह भी विचित्र थी। वह काफी लंबी-चौड़ी कद-काठी की थी।

       उसका सिर काफी बड़ा था और उस पर घने बाल थे जिनका रंग लाल था। शरीर का भी रंग हल्का गुलाबी था। कमर के नीचे वह सिर्फ एक घाघरा पहने थी। ऊपर का हिस्सा बिलकुल बेपर्दा था। उसके गले में एक कैमरे जैसा डिब्बा लटका हुआ था जिसमें से काफी तीव्र नीले रंग की रौशनी निकल रही थी।

        युवती ने यान के बाहर निकल कर एक बार चारों और अपना सिर घुमाया। फिर भुवन बाबू की ओर आश्चर्य और कौतूहल से देखने लगी। उसके बाद उसने कैमरे जैसा वह डिब्बा उनकी ओर कर दिया। भुवन बाबू के पूरे शरीर पर वह तीव्र रौशनी पड़ने लगी।

      कुछ ही मिनट बाद मैंने जो दृश्य देखा उससे मेरा मन भय और आश्चर्य से भर गया। सारा शरीर रोमांचित हो उठा।

       उस नीली रौशनी के प्रभाव से भुवन बाबू का छः फुटा शरीर धीरे-धीरे जन्मजात शिशु के रूप में बदल गया। अर्थात् वे तत्काल पैदा हुए शिशु जैसे हो गए। फिर उस युवती ने मुस्कराते हुए उन्हें अपनी गोद में उठा कर एक पारदर्शी जार में रख कर बंद कर दिया और अपने साथियों के साथ अपने यान के अंदर चली गई।

      मुझे सारी बात समझते देर न लगी। निश्चय ही वह युवती भुवन बाबू को अपने लोक में ले जा कर किसी तरीके से बड़ा कर लेगी। फिर…आगे क्या होगा..?

       जब मैं इस विषय में विचार कर रहा था तो उस बंजर, बीरान जमीन  के दायरे में फैला हुआ वह रुपहला प्रकाश एकबारगी घने कोहरे की शक्ल में बदल गया, बाद में वह भी धीरे-धीरे गायब हो गया। अब वहां कुछ भी न था। न वे विचित्र प्राणी थे, न उनका यान था और न भुवन बाबू का ही कोई अस्तित्व था।

       उस समय मेरी हालत का आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। यह गनीमत समझें कि मैं पागल नहीं हुआ। कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकला। मुझे इस बात का पूर्ण विश्वास था कि वे लोग निश्चित ही किसी अन्य ग्रह-नक्षत्र के प्राणी थे। अब भुवन बाबू का इस धरती पर लौटना मुश्किल ही नहीं, ना-मुमकिन था।

       जबसे भुवन बाबू अदृश्य हुए, उसी दिन से उनकी खोज होने लगी। लोगों ने मुझसे पूछा लेकिन मैंने साफ इनकार कर दिया कि मैं इस सम्बन्ध में कुछ जानता हूँ। मगर भुवन बाबू के बड़े भाई को मुझे सब कुछ बता देना पड़ा क्योंकि उनको मुझ पर शक हो रहा था कि कहीं मैंने ही तो भुवन बाबू का अनिष्ट नहीं किया है। उनके भाई शरद बाबू  बड़े ध्यान से मेरी बात सुन रहे थे मगर मुझे साफ लग रहा था कि उन्हें मेरी बातों पर रत्तीभर विश्वास नहीं हो रहा था।

       मेरी बातों पर यकीन करने के लिए आश्विन की शरद पूर्णिमा की रात में शरद बाबू स्वयं अकेले उस स्थान पर गए। मगर वे भी आजतक नहीं लौटे। निश्चय ही शरद बाबू को भी अंतरिक्ष के वे विचित्र प्राणी ही उठा ले गए होंगे और अब उनका भी लौटना मेरे ख्याल से असंभव ही है।

       कितनी आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय घटना है यह ! हे भगवान ! किसके सामने प्रकट करूँ दोनों भाइयों के गायब होने का रहस्य ? भला कौन विश्वास करेगा मेरी बातों पर ? क्या करुं ?

      आखिर इसी उलझन में फंसा हुआ मैं चार आयाम से सम्बंधित साहित्य की खोज में लग गया। काफी तलाश करने पर मुझे भुवन बाबू की एक अलमारी के अंदर ही चमड़े की जिल्द में बंधी हुई एक अति प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक मिली। उसे ध्यानपूर्वक पढ़ा। कई महत्वपूर्ण बातों की जानकारी मुझे प्राप्त हुई।

       अपने इस तीन आयाम वाले संसार में हर चीज़ देश, काल, टाइम, स्पेस और निमित्त से बन्धी हुई है। संसार का ‘स्पेस’ वक्र अर्थात् ‘कर्न्ड’ है। उस मूल्यवान पुस्तक में पंक्तियाँ पढ़ने के बाद एकाएक मेरे मस्तिष्क में कुछ कोंध-सा गया।

      _योग विज्ञान में इस तथ्य की विस्तृत विवेचना है। हमारी आँखों के दोनों मूल बिन्दु नाक के सिरे पर मिलते हैं और एक त्रिकोण का निर्माण करते हैं। त्रिकोण के अर्धबिन्दु से जहाँ 90 अंश का कोण बनता है, वह ‘स्पेस’ ‘कर्न्ड’ ही हैै। अब इसी सिद्धान्त को लेकर वैज्ञानिक गणितीय रीति से सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने जा रहे हैं।_

        योग में इसके लिए ‘जवासिद्धि’ है। मैंने इस सिद्धि का कई दिनों अभ्यास किया और अंत में मुझे सफलता मिली। बाद में थोड़े से प्रयास से ही मैं ‘वक्रताहीन स्पेस’ में पहुँच गया जहाँ केवल वर्तमान ही वर्तमान है।  न भूत काल है और न भविष्य काल। उस वर्तमान में मुझे केवल शून्यता का गहन अनुभव हुआ। वह शून्य अथाह और अंतहीन था।

        उसमें काल की गति अत्यंत क्षीण थी। निश्चय ही योगीगण इसी अवस्था में पहुँच कर ‘कालंजयी’ हो जाते हैं। देश, काल का प्रभाव उन पर नहीं पड़ता है। मैं उस ‘परमशून्य’ की स्थिति में कबतक रहा–किसे ज्ञात है ? समय का अभाव नहीं था वहां यदि मन बिलकुल शांत व एकाग्र हो तो मनुष्य को समय का आभास बिलकुल नहीं लग सकता।

       यही स्थिति मेरी थी और जब मैं उस स्थिति से बाहर निकला तो मालूम हुआ कि छः दिन का समय बीत चूका है।

        तभी से मैं बराबर उस ‘परम शून्य’ की स्थिति में अधिक से अधिक रहने का अभ्यास कर रहा हूँ। मगर डर है कि कहीं मेरा भी अस्तित्व हमेशा हमेशा के लिए लुप्त न हो जाये और भुवन बाबू की तरह मुझे भी रहस्यमय लोक के रहस्यमय प्राणी अपने साथ न ले जाएँ।

  *अन्तर्ध्यान विज्ञान की कसौटी पर :*

       वैज्ञानिकों ने स्थान के तीन आयामों 

(लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई) के आलावा ‘काल ‘को चौथे आयाम के रूप में स्वीकार किया है।

      _आईन्स्टीन के ‘सापेक्षवाद’ के सिद्धान्त के अनुसार भौतिक जगत एक ‘संयुक्त चतुरविस्तारीय दिक्-काल जगत’ है जिसमें घटनाओं के बीच केवल एक ही अपरिवर्तनीय अंतर होता है और देश तथा काल में जो अलग- अलग अंतर दिखाई पड़ते हैं, वे वास्तव में  इसी अंतर के प्रक्षेप मात्र हैं। ‘देश-अक्ष’ और ‘काल-अक्ष’ पर, दूसरे शब्दों में उनका मान निर्भर करता है उस विशेष ‘निर्देशांक पद्धति’ पर जिसके द्वारा उन्हें देखा जाय।_

        देश और काल की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती और उसके परिणाम के बारे में बनने वाली धारणाएं देखने वाले की गति और स्थिति पर निर्भर करती है।

       इस सन्दर्भ में  आप उन अभागे व्यक्तियों के मामलों को समझने की कोशिश कीजिये जो देश और काल (space and time) के गड्ढों में पड़कर अदृश्य हो जाते हैं या फिर ऐसे किसी आयाम में पहुँच जाते हैं जहाँ का जीवन हमारे जीवन से सर्वथा भिन्न है।

       1957 में कैलिफोर्निया के डॉक्टर रॉबर्ट सिरगी और उनके सहयोगियों ने एक ऐसे कंप्यूटर का निर्माण करने का संकल्प किया था जो चौथे आयाम के स्वभाव और स्वरुप को समझाने में सहायक हो सके।

     उस अवसर पर डा. सिरगी ने कहा था :

      हमारे बाहर जो जगत है, यहाँ गतियां उन दिशाओं में भी हो सकती हैं जिन्हें हम देख नहीं सकते। पर जिन्हें काल-परिवर्तन के रूप में ही हम जान सकते हैं। आदमी के सारे वैज्ञानिक नियम हमारे चारों ओर के  वास्तविक जगत की त्रिआयामी छाया मात्र है। इन खण्ड और एकांगी नियमों के बल पर इस वास्तविक जगत के कार्य-कलापों को समझना कठिन है।

        आप रोज धूप को देखते हैं पर वैज्ञानिकों से पूछिये तो वे कहेंगे कि धूप को कोई कभी भी नहीं देख सकता। उनकी भाषा में धूप सारे सौरमंडल की वर्णक्रम

(सोलर स्पेक्ट्रम) है जो वास्तव में सूर्य द्वारा अंतरिक्ष में की गयी तरंगों और स्फुरणों की बौछार की विस्तृत पट्टी है।

        यदि इस विस्तृत पट्टी को एक सप्तक मान लिया जाय तो इस पट्टी के जो रंग हमें आँखों से दिखाई देते हैं–लाल से लेकर बैगनी तक, उन्हें सप्तक के अंतर के बीच का एक स्वरानुक्रम माना जा सकता है। अर्थात् धूप में ऐसे रंग भी मौजूद हैं जो हमे आँखों से कभी दिखाई नहीं देते।

      ऐसे रंगों की संख्या10 अरब के करीब है। हम तो केवल सात रंग ही देख पाते हैं धूप के।

        धूप में ‘इंफ्रा-रेड तरंगें’ भी होती हैं जिन्हें हम देख तो नहीं सकते पर अनुभव तो कर सकते हैं। धूप की जलन हमें इन्हीं तरंगों के कारण अनुभव होती है। अब विशेष फोटोग्राफिक फिल्मों की मदद से इंफ्रा-रेड के संसार की झांकी ली जा सकती है।

     उस दुनियां में आकाश ,जल काले और घास तथा पत्तियां एकदम सफ़ेद दिखाई देती हैं।

       चूँकि इंफ्रा-रेड तरंगें दूरी के धुन्धलेपन को आसानी से काट सकती हैं, इसलिए उनका प्रयोग हवाई फोटोग्राफी में किया जाता है। पर जब इंफ्रा-रेड तरंगों की मदद से आकाश से क्यूबा में रखे प्रक्षेपास्त्रों के फोटो खींचे गए तो सिगरेटों के जलते हुए सिरों के फोटो भी आये।

        वे सिगरेटें जो प्रक्षेपास्त्रों के इंजीनियरों ने पिछली रात को पी थीं।

       हमारी आंखें वर्णक्रम की बहुत थोड़ी मात्रा ही देख पाती हैं।

 अनुवीक्षण यंत्र की मदद से हम अदृश्य जीवाणुओं की दुनियां की गतिविधि स्पष्ट देख सकते हैं। दुरबीन की मदद से हम अत्यंत दुरी पर स्थित नीहारिकाओं के दर्शन कर सकते हैं। इंफ्रा-रेड और ‘अल्ट्रा-वायलेट’ फोटोग्राफी की मदद से हम एक ऐसे अदृश्य जगत में पहुँच जाते हैं जो देश और काल की कक्षा से बाहर स्थित है।

         इस अदृश्य जगत की और अधिक जानकारी अनेक रहस्यों को जिनमें अदृश्यता का रहस्य भी है, समझाने में सहायक होगी।

       सैद्धांतिक रूप से धूप की अदृश्य तरंगें हमारे शरीर, हमारे जीवन और यहांतक कि हमारी नियति को भी प्रभावित करती है ।

         ‘प्रोपेगेशन ऑफ़ शार्ट रेडियो वेव्ज़’ नामक अपने शोध प्रबंध में हर्बर्ट गोल्ड स्टीन ने लिखा है कि वायुमंडल में जो दुनियां है वह अदृश्य प्राणियों की दुनियां है। वे प्राणी जो हमें नंगी आँखों से तथा सूक्ष्माति सूक्ष्म अनुवीक्षण यंत्रों की सहायता से भी नहीं दिखाई देते। उनकी वैज्ञानिक व्याख्या के लिए शोध होना आवश्यक है।

       हम और आप इस विवरण को पढ़ कर आसानीसे यह अनुमान लगा सकते हैं कि वह परम तत्व परमात्मा कितना सूक्ष्म और कितना विस्तृत और कितना शक्तिशाली होगा जिसके अस्तित्व के भीतर ऐसे न जाने कितने ब्रह्याण्ड और उनके रहस्य विद्यमान हैं। मनुष्य जो ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ कृति है, उसके सामने मक्खी-मच्छर के बराबर भी नहीं है।

       10 अरब रंगो की तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता जो सूर्य की रश्मियों में से प्रकट होते हैं, गणना तो असंभव ही है। इन सब बातों को पढ़ कर लिखने वाले को झूठा कहते और उसकी बातों को यूँ ही हवा में उड़ाते देर नहीं लगेगी।

      गीता में भगवान श्रीकृष्ण के विराट रूप के दर्शन को विश्व का बहुसंख्य वर्ग आज भी कपोल कल्पना या अतिशयोक्ति मानता है। स्वयं स्वामी दयानंद भी केवल कल्पना मानते हैं पर सोचने- विचारने की बात है कि हमारे आसपास के वातावरण में करोड़ों प्रकार के ऐसे जीव मौजूद हैं जिन्हें हम किसी प्रकार से नहीं देख सकते तो उस परमात्मा को इन नंगी आँखों या किसी यंत्र से कैसे देख सकते हैं ?

         धन्य है वह अर्जुन और उसका सामर्थ्य, वंदनीय है वह कि जिसने भगवान के उस विराट स्वरुप को देखा और विराटता तथा तेज को वह सहन कर गया! 🌀

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