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दिग्विजयसिंह ही कांग्रेस अध्यक्ष पद के सबसे उपयुक्त उम्मीदवार हो सकते थे

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प्रवीण मल्होत्रा

मैं दिग्विजयसिंह की राजनीति और उनके राजनीतिक षडयंत्रों का कटु आलोचक हूं, लेकिन अशोक गहलोत के रणछोड़दास बनने के बाद दिग्विजयसिंह ही कांग्रेस अध्यक्ष पद के सबसे उपयुक्त उम्मीदवार हो सकते थे। क्योंकि वे भी अपनी विरोधी पार्टी के चाणक्य अमित शाह की तरह ही राजनीति में साम, दाम, दण्ड, भेद का भरपूर इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करते हैं और बीजेपी को उसी की भाषा में जवाब दे सकते हैं। कांग्रेस की कमजोरी हिन्दी बेल्ट में है। हिन्दी बेल्ट में ही कांग्रेस की मुख्य लड़ाई बीजेपी के साथ है और वहां बीजेपी बहुत अधिक मजबूत है। इसलिये यदि अशोक गहलोत या दिग्विजयसिंह कांग्रेस के अध्यक्ष बनते तो वे हिन्दी बेल्ट में कांग्रेस के पुनर्स्थापन में मददगार हो सकते थे।

लेकिन अब यह निश्चित हो गया है कि सोनिया गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम पर अपनी सहमति दे दी है और उन्होंने अध्यक्ष पद के लिये नामांकन भी कर दिया है। उनके नामांकन के बाद दिग्विजयसिंह चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो गए हैं। अब मुख्य मुकाबला हाई कमान के प्रत्याशी खड़गे साहब और G-23 के सदस्य रहे तिरुवनंतपुरम के तीसरी बार के सांसद और प्रखर  बुद्धिजीवी शशि थरूर के बीच रह गया है। यद्यपि एक अन्य उम्मीदवार भी मैदान में हैं। खड़गे साहब कर्नाटक के वरिष्ठ नेता हैं। वे नौ बार लगातार विधायक और 2009 से 2019 तक दो बार लोकसभा के सदस्य तथा लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता भी रह चुके हैं। 2019 में वे बहुत कम वोटों से पराजित हो गए थे। इसके बाद उन्हें राज्यसभा में लाकर विपक्ष का नेता बनाया गया। 

खड़गे जी कन्नड़ और अंग्रेजी के अलावा हिंदी भी अच्छी तरह बोल लेते हैं। उनकी एक अन्य विशिष्टता यह है कि वे दलित समुदाय से आते हैं। आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनाव में उनके दलित नेता होने का लाभ कांग्रेस पार्टी को मिल सकता है। यदि वे अध्यक्ष बनते हैं तो यह एक अच्छा संदेश होगा। लेकिन उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे कांग्रेस हाई कमान के बहुत विश्वासपात्र हैं और यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है। वे शायद ही एक स्वतंत्र अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस पार्टी का कायाकल्प कर सकेंगे। वे एक कठपुतली की तरह कांग्रेस पार्टी के हाई कमान के इशारों पर कार्य करेंगे और उनकी डोर हमेशा गांधी परिवार के हाथों में ही रहेगी। 

लेकिन देश की सत्ताधारी पार्टी जो विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है, क्या उसके अध्यक्ष जेपी नड्डा एक स्वतंत्र और अधिकारसंपन्न अध्यक्ष हैं? क्या वे बीजेपी के हाई कमान – प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह – के हाथों की कठपुतली नहीं हैं? कांग्रेस के अध्यक्ष का चुनाव कम से कम लोकतांत्रिक तरीके से तो हो रहा है। 1980 में अपनी स्थापना के समय से भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष का कभी चुनाव नहीं हुआ और उसके अध्यक्ष संघ परिवार यानी आरएसएस की सहमति से ही मनोनीत होते रहे हैं और हटाये भी गये हैं। याद कीजिये कि किस तरह लालकृष्ण आडवाणी को संघ की नाराजगी के बाद अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा था। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के अन्य नेता कांग्रेस के परिवारवाद की आलोचना करते समय भाजपा के परिवारवाद को भूल जाते हैं। भाजपा में तो आरएसएस की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता है। क्या वह परिवारवाद नहीं है? कांग्रेस के शीर्ष परिवार ने तो सत्ता से कभी अपना मोह प्रदर्शित नहीं किया बल्कि जब भी अवसर आया उन्होंने सत्ता का त्याग कर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी अन्य को ही बैठने का अवसर प्रदान किया। कांग्रेस में कम से कम चुनाव तो हो रहे हैं और इसके लिये कांग्रेस के शीर्ष नेता और पदयात्री राहुल गांधी अवश्य बधाई के पात्र हैं। इसलिये कांग्रेस में लोकतांत्रिक तरीके से कोई भी अध्यक्ष बने उनका स्वागत ही किया जाना चाहिये।

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