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भारत में जम्मूकश्मीर के विलय की असल वजह

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*कश्मीर समस्या के पीछे का सच -भाग 4*

*अजय असुर

देश के विभाजन के समय हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिक ताकतें काफी मजबूत और सक्रिय थीं। भारत और पाकिस्तानी शासकों की सत्ता के लिए बेपनाह भूख ने संप्रदायवादियों को अपना सांप्रदायिक खेल खेलने का और भी अधिक अवसर प्रदान किया। आम आदमी के हितों की राजनीति के बजाए सांप्रदायिक राजनीति के वर्चस्व के कारण भी धर्म के आधार पर देश का विभाजन की बात रखी गयी। यह प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक राजनीति की एक बड़ी जीत थी। उस वक्त सम्पूर्ण भारत सांप्रदायिक ताकतों की प्रयोगशाला बना हुआ था। सांप्रदायिक राजनीति के खून के छींटों से कश्मीर घाटी का दामन भी बेदाग नहीं रहा। जब कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत या पाकिस्तान के साथ कश्मीर राज्य का विलय करने से इंकार कर दिया (जनता के दबाव के कारण), और महाराजा के इस फैसले का हिन्दू नेताओं ने इस आधार पर समर्थन किया कि कश्मीर जैसे हिन्दू राज्य (महाराजा हिन्दू था इसलिये उनको लगता था कि कश्मीर हिन्दू राज्य है और वैसे भी जम्मू हिन्दू बाहुल्य छेत्र भी था) का भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य में विलय नहीं होना चाहिए। तत्कालीन अखिल जम्मू एवं कश्मीर हिन्दू राज्य सभा, जिसे आर. एस. एस. का समर्थन प्राप्त था, ने महाराजा हरि सिंह के फैसले का समर्थन किया। उस समय इन्हीं हिन्दू कट्टरपंथियों ने कश्मीर राज्य के भारत में विलय का समर्थन करने वालों को देशद्रोही करार दिया था। हालांकि विलय के बाद अपना पाला बदल विलय का समर्थन करने लगे थे।

धार्मिक आधार पर भारत पाकिस्तान बंटवारे के उपरान्त पंजाब में सांप्रदायिक हिंसा का दौर चलने का असर जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में भी पड़ा। इस क्षेत्र में मुसलमानों पर आक्रमण और उनकी हत्याएँ हुई थीं यह माना जाता है कि लगभग 5 लाख मुसलमान जम्मू से चले गये। पुंछ जागीर में लोग महाराजा के खिलाफ उठ खड़े हुए। हालांकि इस विद्रोह की शुरूआत कुछ स्थानीय मुद्दों को लेकर हुई थी जैसे कि इस क्षेत्र के साठ हजार कार्यमुक्त ब्रिटिश सिपाहियों के पुनर्वासन की मांग और महाराजा हरि सिंह द्वारा क्षेत्र में किसान पर दंडात्मक कर लगाना था परंतु उस वक्त के कश्मीर राज्य की डोगरा शासन की सेना ने विद्रोह का वहशीपन तरीके से दमन करने का प्रयास किया और पाकिस्तान ने इस मौके का फायदा भी उठाया। 22 अक्टूबर 1947 को उत्तर-पश्चिम की सीमान्त जनजातियों की बहुत बड़ी संख्या पुंछ के विद्रोहियों की सहायता से जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवेश कर गयी। इन कबालियों की पाकिस्तान द्वारा हर प्रकार से मदद की गयी। महाराज के सैनिकों ने इस आक्रमण को रोकने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तान समर्थक विद्रोह आधुनिक हथियारों से लैस थे और सेना के सिपाहियों ने विद्रोहियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया, जिनसे उनका क्षेत्रीय, जातीय और धार्मिक संबंध था। इन सिपाहियों ने सेना छोड़कर सशस्त्र बगावत शुरू कर दी और विद्रोहियों के साथ मिल गये। उन्होंने 24 अक्टूबर 1947 को लगभग पूरे पुंछ जिले पर नियंत्रण हासिल कर लिया था। आक्रमणकारियों ने मुजफ्फराबाद और बारामूला के शहरों पर कब्जा कर लिया और राज्य की राजधानी श्रीनगर से उत्तर-पश्चिम में बीस मील दूर तक पहुँच गए। 

इन कबायली आक्रमणकारियों ने चारों तरफ हत्याएँ, लूटपाट और आगजनी की। विद्रोह की व्यापकता और कबायली आक्रमणकारियों की हर प्रकार की पाकिस्तानी मदद के कारण महाराजा की सेना के लिए यह संभव नहीं था कि वह अपनी बची हुई सेना के बल पर विद्रोह का दमन कर सके। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के लिये समस्या बढ़ती जा रही थी और कश्मीर के जनविद्रोह को देखते हुए पाकिस्तान, कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के खिलाफ उठ खड़े होने वाले विद्रोह का फायदा उठाकर कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल कर हड़पने की नीयत से उसने पठान कबीलायी हमलावरों की हर प्रकार से मदद करनी शुरू कर दिया।

ऐसे हालात में जब कश्मीर का अस्तित्व ही खतरे में था और उनके हाथ से कश्मीर निकलता देख महाराजा पाकिस्तान के साथ बात कर एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध को मजबूत बनाने का प्रयास किया। कश्मीर के शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान को यह आश्वासन दिया कि वे पुंछ के मुस्लिम गाँवों में सेना द्वारा की गयी गोलीबारी की निष्पक्ष जाँच करायेंगे। पाकिस्तान ने कश्मीर के प्रधानमंत्री को आगे की रणनीति के लिए कराची आमंत्रित किया। हालांकि अभी भी महाराजा हरि सिंह स्वतंत्र रहने के ही इच्छुक थे और चाहते थे कि उनके भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के साथ सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण हो पर महाराजा हरिसिंह पाकिस्तान की नियत को नहीं समझ पाये। पाकिस्तानी सरकार ने कराची में इस उम्मीद के साथ बात-चीत के लिये कश्मीर के प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया था कि इस औपचारिक बैठक में कश्मीर पाकिस्तान में विलय के लिये संबंधी दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर देगा और इसीलिये पाकिस्तान ने अपने विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव को कराची भेजा था पर इस बैठक में कोई बात नहीं बनी और बैठक बेनतीजा निकला।

*शेष अगले भाग में…*

*अजय असुर*

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