सुधा सिंह
_सुकरात के शिष्य प्लेटो ने कहा था, “दार्शनिक विमर्श आम जनता के लिए नही होता”. ओशो ने कहा : “हमारा धर्म दरिद्रो के लिए नहीं.” क्या ये अभिमान में कहा गया था ?_
एक तड़के सुबह पोडियम में प्लेटो और 2 – 4 दार्शनिक बैठे थे और सैकड़ों मोमबत्तियों का मोम पिघला हुआ था.. वहां एक सफाई कर्मी झाड़ू लगा रहा था. उसने प्लेटो से पूछा कि, “इतनी मोमबत्तियां क्यों जलाई गई?.”
प्लेटो ने कहा कि, “यहां कल रात बहुत बड़े वैचारिक लोग आए थे, और हम किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे जिसका कंक्लूजन नही निकल रहा था.”
सफाई कर्मी ने उत्सुकता वश पूछा कि, ‘समस्या क्या थी?’
प्लेटो ने पहले तो बात को टाला कि, ‘तुम्हारे लेबल की बात नही है. ‘
लेकिन उस कर्मी ने ज्यादा पूछा तो बताया कि, “हम इस बात पे चर्चा कर रहे थे कि एक आदर्श घोड़े के कितने दांत होते हैं.”
सफाई कर्मी हंसा और बोला.. “महाराज.. नीचे अस्तबल में घोड़े बंधे हैं. जाकर गिन लेते उसमे इतना मोम बर्बाद करने की क्या जरूरत थी.”
एक कहानी तो यहीं खत्म हो जाती है, निष्कर्ष निकला की कुछ समस्याएं आम आदमी बड़ी आसानी से हल कर देता है। उसके लिए फालतू दार्शनिक बनके ज्यादा दिमाग चलाने की जरूरत नही. आप चाहो तो पढ़ना रोक सकते हो, लेकिन दूसरी कहानी अभी बाकी है.
प्लेटो ने कहा :”जिस घोड़े के दांत तुम गिन कर आओगे वो बच्चा हुआ तो ? या बूढ़ा हुआ तो ? दांत कम आयेंगे। वो बीमार हुआ या कोई दांत का रोग हुआ तो..? वो घोड़ा देशी है या बेहतरीन नस्ल का अफगानी है, अरबी है या स्पेनिश है ..? क्या सब नस्लों में दंत विन्यास बराबर रहेगा ? और इन सब में आदर्श घोड़ा कौन सा है ? और आदर्श घोड़ा डिसाइड कैसे करेंगे ?”
ये सुन के सफाई कर्मचारी चकरा गया. उसने कहा “लेकिन महाराज इतनी माथा पच्ची की आखिर जरूरत ही क्या है ? घोड़े पे बैठ के कहीं जाना ही तो है. उसके लिए आदर्श घोड़ा ? पल्ले नही पड़ा..”
तो प्लेटो ने आगे कहा : “तुम्हें घोड़ा के दांत या नस्ल देखने की जरूरत नही क्योंकि तुम्हें सिर्फ उसपर बैठ कर कहीं जाना मात्र है. लेकिन ये दर्शनिक जो आदर्श (मतलब सबसे अच्छे) घोडे का कॉन्सेप्ट देंगे. राजा वैसे ही घोड़े खरीदेगा.. वो युद्ध में बेहतर काम करेगें, जल्दी जीतेंगे. कम लोग मारे जायेंगे. मदद संदेश तेजी से पहुंचे. देश की जनता इनकी रिसर्च का लाभ उठा के मुद्रा बचाएगी. इसी लिए कहता हूं, दार्शनिक विमर्श आम जनता के लिए नही होता.”