विद्या भूषण रावत
इन दिनों बाबा साहब डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं को लेकर बहुत हंगामा हो रहा है। गत 5 अक्टूबर, 2022 को दिल्ली सरकार में मंत्री रहे राजेंद्र पाल गौतम द्वारा बौद्ध धम्म दीक्षा कार्यक्रम में उपस्थिति और उनके द्वारा प्रतिज्ञाएं लिये जाने के मामले ने इतना तूल पकड़ा कि उन्हें मंत्री पर से इस्तीफा देना पड़ा।
14 अक्टूबर, 1956 को अशोक विजयादशमी के मौके पर नागपुर में डॉ. आंबेडकर के साथ उनके लाखों समर्थकों ने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली। धम्म दीक्षा का यह कार्यक्रम केवल नागपुर तक ही सीमित नहीं रहा था। डॉ. आंबेडकर ने अगले दिन चंद्रपुर में भी बड़ी संख्या मे लोगों को दीक्षा दिलाई। उसके बाद से ही नागपुर के उस मैदान को लोग दीक्षाभूमि के नाम से जानने लगे और प्रतिवर्ष अशोक विजयादशमी के दिन (जिसे धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस भी कहा जाता है) बड़ी संख्या में लोग वहा आते हैं और डॉ. आंबेडकर के रास्ते पर चलने का संकल्प दोहराते हैं। बहुसंख्यक लोगों के लिए तो यह वर्ष का सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम होता है।
असल में नागपुर में दशहरे के अवसर पर दो कार्यक्रम होते हैं, जिनके ऊपर देश की नजर होती है। एक कार्यक्रम मीडिया में छाया रहता है और दूसरे मे जनता बिना मीडिया में प्रसार के बिना ही आती है। दोनों कार्यक्रमों में अंतर यह है कि एक में केवल मीडिया की उपस्थिति रहती है और लोग नदारद रहते हैं। जबकि दूसरे कार्यक्रम मे लाखों की संख्या में लोग कई दिनों पहले से आते रहते हैं। ये दो कार्यक्रम हैं– आरएसएस के द्वारा विजयादशमी का आयोजन व दीक्षा भूमि में अशोक विजयादशमी के मौके पर बौद्ध धम्म दीक्षा का आयोजन।
नागपुर में अशोक विजयदशमी असल में आरएसएस द्वारा आयोजित कार्यक्रम की तुलना में बहुत बड़ा होता है। लेकिन अखबार व चैनल संघी कार्यक्रम को प्रमुखता से कवर करते हैं। अब तो सरकारी चैनल दूरदर्शन भी उसका सीधा प्रसारण करता है। लेकिन यही मनुवादी मीडिया दीक्षाभूमि में नजर नहीं आता। जबकि भाजपा और संघ के बड़े बड़े नेता भी अब दीक्षाभूमि जाकर बुद्ध और डॉ. आंबेडकर को नमन करने जाते हैं।
दीक्षाभूमि और संघ के कार्यक्रम में एक और बड़ा अंतर है, जिसे समझने की आवश्यकता है। संघ के कार्यक्रम में शस्त्र पूजा की जाती है। जबकि दीक्षाभूमि का विद्रोह पूरी तरह से अहिंसक है। डॉ. आंबेडकर की धम्म दीक्षा का असर महाराष्ट्र और देश के अन्य हिस्सों मे भी सामान्यतः इतना बढ़ रहा है कि सत्ताधारियों के पास इसकी कोई काट नहीं है। यह कहना अतिरेक नहीं कि डॉ. आंबेडकर भारत मे अहिंसक क्रांति के सबसे बड़े नायक हैं। यदि वे चाहते ते दलितों को भी शस्त्र पूजा करने के लिए कह सकते थे, उन्हें हिंसा का जवाब हिंसा से देने के लिए कह सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे अहिंसा का महत्व जानते थे। आज जो लोग शस्त्र पूजन कर रहे हैं, उनके पास अब अपने जातिवादी अतीत को छिपाने का कोई रास्ता नहीं है। वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं।
देश भर मे होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस आदि त्यौहर मनाए जाते हैं। इन त्यौहरों के मौकों पर तमाम तरह के सामान बिकते हैं। लेकिन धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस के मौके पर साहित्य बिकता है। दीक्षा भूमि में देश भर के बहुजन प्रकाशक अपनी-अपनी पुस्तकें और पेंटिंग्स आदि बेचते हैं। यह इसलिए भी कि डॉ. आंबेडकर ने तर्कवादी और मानववादी समाज की बुनियाद रखी। आज एक ऐसी पीढ़ी है जो डॉ. आंबेडकर के मूल्यों के आधार पर सोचती है। यहां गांधी और डॉ. आंबेडकर की अहिंसा का अंतर उल्लेखित करना अवश्यक है। गांधी की अहिंसा यथास्थितिवादी और डॉ. आंबेडकर की अहिंसा बदलाव की वाहक।
यह भी हकीकत है कि डॉ. आंबेडकर अपनी प्रतिज्ञाओं का उद्देश्य लोगों को मानववादी और अंधविश्वासमुक्त सोच की ओर लाना था। वे जानते थे कि उनका समाज अभी भी बहुत उत्पीड़ित है और धार्मिक कुरीतियों के कारण उनकी बची-खुची कमाई भी खत्म हो जाती है। ब्राह्मणों-पुरोहितों ने उनका मानसिक रूप से शोषण किया है, इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार करने और प्रतिज्ञाएं लेने के लिए आह्वान किया। यदि दलित समाज तब विकसित अथवा पढ़ा-लिखा होता तो शायद उन्हें यह सब लिखने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि उनकी प्रतिज्ञायें बौद्ध धम्म के ग्रंथ में शामिल नहीं हैं। उनका उद्देश्य था कि पहले लोग अपनी पुरानी पाखंडवादी परम्पराओं को छोड़ने की कसम खाएं और फिर दीक्षा लें।
सनद रहे कि डॉ. आंबेडकर की प्रतिज्ञाओं में अपमानजनक भाषा नहीं इस्तेमाल की गई है। सिर्फ यह कहा गया है कि अब ये मेरे देवता या परंपरा नहीं है। डॉ. आंबेडकर की प्राथमिकता भारत को प्रबुद्ध भारत बनाना था।
अपनी किताब ‘बुद्ध और उनका धम्म’ में डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि आखिर धर्म का दर्शन क्या होना चाहिए। अधिकांश धर्म दर्शन भगवान और दैवीय शक्तियों को खुश करने और उनके इर्दगिर्द घूमते हैं। लेकिन बुद्ध कहते है कि धम्म का दर्शन वह, जिसकी धुरी मे मानव और मानवकल्याण हो। बाबा साहब आंबेडकर ने जिस बुद्ध दर्शन से लोगों को परिचित कराया, वह धर्म नहीं, पूरी तरह मानववादी मूल्यों पर आधारित है और इसलिए अंधविश्वास से दूर और धर्मग्रंथों को सवाल करना भी उसी परंपरा का हिस्सा है, जिसके बल पर आज दुनिया इतने आगे बढ़ी है।
डॉ. आंबेडकर ने दलितों की मुक्ति के लिए आंदोलन किए, राजनीति का हिस्सा बने, संविधान सभा में भी आए, लेकिन अंत मे उन्हें महसूस हुआ कि मुक्ति का रास्ता सांस्कृतिक है और बिना इसके बदलाव के मानसिक गुलामी राजनीतिक सफलताओं या आजादी को खत्म कर देगी। संविधान सभा मे उनकी चेतावनी थी कि राजनीति मे ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ का सिद्धांत तो मिल गया लेकिन अगर सामाजिक जीवन मे यह उपलब्ध नहीं होगा तो हमारी राजनैतिक और आजादी के कोई मायने नहीं है।
आज देश भर मे दलित, पिछड़े वर्ग के लोगों में मे बौद्ध धर्म को लेकर व्याप्त बदलाव की बाते सामने आ रही हैं। नागपुर में दीक्षाभूमि में हर वर्ष भदंत नागार्जुन सुराई ससई पिछड़े वर्ग के लाखों लोगों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दे रहे है। पिछड़ी जातियों की समझ में भी आ रहा है कि सांस्कृतिक तौर पर दलितों की धम्म क्रांति ने उनके जीवन मे सकारात्मक बदलाव लाए है और उन्हें भी इसकी आवश्यकता है। कुशीनगर जैसे जगह पर अब बहुत बड़ी संख्या में कुशवाहा, यादव, मौर्या आदि बहुजन जातियों के लोग भी बौद्ध धम्म की ओर बदलाव का रास्ता देख रहे हैं।