अभी चंद रोज पहले मशहूर शायर निदा फाजली की जयंती थी। वे एक ऐसे शायर/ कवि थे जो हिंदुस्तानी में लिखते थे। यदि उनके दोहे , ग़ज़ल या नज्म को देवनागरी लिपि में लिख दिया जाय तो वे हिन्दी हो जाते थे और यदि उन्ही को उर्दू में लिख दिया जाय तो उर्दू के हो जाते थे।
- – उनके लोकप्रिय दोहे–👇*
सीधा सादा डाकिया जादू करे महान।
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान।।
—– सारे दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर।
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फकीर।।
—– बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान।
अल्लाह तुझ एक को इतना बड़ा मकान।।
निदा फाज़ली की इन 5 ग़ज़लों से समझिए हिंदुस्तानी तहजीब*
निदा फा़ज़ली को आम आदमी का शायर कहा जाता है, उनकी शायरी में सीधे और सरल शब्दों में बड़ी गहरी बात कही गई है। फा़ज़ली के शब्दों में कोई जटिलता नहीं है। उनकी ग़ज़लें उर्दू की हैं या हिंदी की इसमें अंतर नहीं किया जा सकता इसलिए उन्हें हिंदुस्तान में आम आदमी का शायर कहा जाता है।
हिंदुस्तानी तहजीब का परिचय देता है…
उनका पूरा साहित्य हिंदुस्तानी तहजीब का परिचय देता है। यहां निदा फा़ज़ली की पांच ऐसी ग़ज़लें पेश की जा रही हैं, जिसमें आंखों से लेकर इश्क़, अमन चैन आपसी प्रेम और जिंदगी की मोहक छटा बिखर रही है । और इन सब से मिलकर ही हिंदुस्तान की तहजीब बनती है।
नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है,
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है ।
मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं,
जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है
मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे,
सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है ।
चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं,
जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है ।
हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।
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अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये,
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये।
जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं,
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये।
बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं,
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये।
ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में,
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये।
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये।
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दिल में ना हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती,
ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती।
कुछ लोग यूँ ही शहर में हमसे भी ख़फा हैं,
हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती।
देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद,
वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती।
हँसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत,
रोने को यहाँ वैसे भी फुरसत नहीं मिलती।
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क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो…
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो,
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो।
वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में,
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो।
पत्थरों में भी ज़ुबाँ होती है दिल होते हैं,
अपने घर की दर-ओ-दीवार सजा कर देखो।
फ़ासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है,
वो मिले या न मिले हाथ बढा़ कर देखो।
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ज़िन्दगी क्या है मुहब्बत की ज़बां से सुनिए…
चांद से फूल से या मेरी ज़ुबाँ से सुनिए,
हर तरफ आपका क़िस्सा हैं जहाँ से सुनिए।
सबको आता नहीं दुनिया को सता कर जीना,
ज़िन्दगी क्या है मुहब्बत की ज़बां से सुनिए।
क्या ज़रूरी है कि हर पर्दा उठाया जाए,
मेरे हालात भी अपने ही मकाँ से सुनिए।
मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का,
मैं हूँ ख़ामोश जहाँ, मुझको वहाँ से सुनिए।
कौन पढ़ सकता हैं पानी पे लिखी तहरीरें,
किसने क्या लिक्ख़ा हैं ये आब-ए-रवाँ से सुनिए।
चांद में कैसे हुई क़ैद किसी घर की ख़ुशी,
ये कहानी किसी मस्ज़िद की अज़ाँ से सुनिए।