पुष्पा गुप्ता
_आर्थिक मसलों को समझना कुछ आसान भी है, पर वित्तीय मामले धूर्तों की वज़ह से इतना उलझे होते हैं कि उसमें शरीफ़ों को पड़ना ही नहीं चाहिए. अमेरिकी डॉलर की कहानी को ही देखिये._
एक दिन राष्ट्रपति निक्सन ऑफ़्टरनून में अपने आधिकारिक रिज़ॉर्ट पर कुछ लगुए-भगुए के साथ बैठ कर तय कर देते हैं कि अब से डॉलर का हिसाब गोल्ड स्टैंडर्ड से नहीं होगा यानी कोई देश अपने डॉलर को सोने के बदले भंजा नहीं सकता. इसका एक मतलब यह भी हुआ कि अमेरिका जितना चाहे, डॉलर छाप सकता है.
ऐसे कुछ और फ़ैसलों की घोषणा उन्होंने रविवार, 15 अगस्त, 1971 को कर दी. इसे आर्थिक इतिहास में ‘निक्सन शॉक’ के नाम से जाना जाता है. यह करेंसी फ़ेडरल रिज़र्व छापता है जो कि एक कॉरपोरेट बॉडी है. तब से किसी को नहीं पता है कि कितने डॉलर के नोट दुनिया के मार्केट में उड़ रहे हैं.
भारतीय रुपया वैसे तो बाजार के तय दर से ख़रीदा-बेचा जा सकता है, पर भारतीय रिज़र्व बैंक डॉलर के हिसाब से ही चलता है. इस कारण रुपये की सेहत डॉलर के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करती है. साल 2006 में मनमोहन सरकार ने एक्सचेंज/कंवर्टिबिलिटी को लेकर कुछ कमिटी बनायी थी, पता नहीं उस बाबत क्या हुआ या हो रहा है.
एक मज़े की बात यह भी है कि भले ही रुपया छापने का मामला सोना से जुड़ा हुआ है, पर रिज़र्व बैंक का नोट उसके बदले सिक्के देने की गारंटी देता है, सोना-चाँदी नहीं.
डॉलर के साथ अमेरिकी राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक ताक़त भी है, सो डॉलर अमेरिका से निकलकर दुनिया घूमकर वहीं चला जाता है. ना किसी को हिसाब देना है, ना किसी की ताक़त है, जो हिसाब ले ले. नतीज़ा यह है कि अमेरिकी मामूली सूद देकर क़र्ज़ लेते रहते हैं, मज़ा करते रहते हैं.
यह और बात है कि पूरा अमेरिका अपने दम से कई गुना फ़ेडरल रिज़र्व के पास गिरवी रखा हुआ है. वह दुनिया का सबसे बड़ा क़र्ज़दार देश है.
भारत की बड़ी आबादी ग़रीब ज़रूर है, पर उसे चैन होना चाहिए कि वह बैंकिंग सिस्टम की वैसी बंधक नहीं है. हालांकि वज़ीरे-बटुआ अरुण जेटली ने पूरी कोशिश कर दी थी और कामयाब भी रहे.
एक बात और. भले ‘रुपया’ संज्ञा की उत्पत्ति संस्कृत से हुई हो, पर इसे आधिकारिक मुद्रा बनाने का काम पहली दफ़ा सासाराम के शेरशाह सूरी ने किया था.