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लोहिया ने आजाद भारत में सत्ता से सवाल पूछना सिखाया 

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हिम्मत सेठ

राम मनोहर लोहिया ने आजाद भारत में सत्ता से सवाल पूछना सिखाया और सत्ता के खिलाफ रहकर भारतीय राजनीति के साथ भारतीयों के मन-कर्म पर गहरा प्रभाव छोड़ा. वह हमेशा समाज और सरकार को एक साथ, एक रास्ते पर और एक समान बनाने के लिए काम करते रहे. उनका समाजवाद दुनिया के इतिहास से सीखते हुए भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति और भारतीय मानवतावाद से प्रभावित था, जिसमें सकल विश्व (दुनिया का अस्तित्व) समाहित था.

उनके इस विशाल काम की नीव में गांधी का मार्गदर्शन, कार्ल मार्क्स का दर्शन, लेव टॉलस्टॉय की सूझ, प्लेटो के अनुभव, नेहरू का साथ, सरकारों का विरोध और दुनियाभर का इतिहास था. इन सब से मिलकर, जो उत्कृष्ट आंदोलन बनता है, उसे समाज राममनोहर लोहिया के रूप में याद करता है. लोहिया का जीवन समाज, प्रयोग और सृजनात्मकता है, जो गांधी के अंतिम व्यक्ति और आज की दुनिया के पहले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है. लोहिया का समाजवाद सर्वोदय, फैबियन समाजवाद और मार्क्सवाद से प्रेरित था, जिसने एकात्म मानववाद और अंत्योदय के विचारों को काफी हद तक स्पष्टता प्रदान कराई. इस यात्रा में उनके सबसे बड़े साथी बने महात्मा गांधी.

गांधी के पूरे जीवन को देखें, तो हम पाते हैं कि गांधी ने हमेशा अपनी लकीर अलग खींची है, जिसमें अलग-अलग प्रकार के लोग, अलग-अलग प्रकार के विचार और अलग-अलग प्रकार के काम शामिल रहते थे. इन्हीं से मिलकर गांधी एक लकीर खींचते थे, जो ‘विविधता और एकता’ की पर्याय होती थी, जिस लकीर को लोहिया ने ताउम्र लंबा करने के लिए प्रयास किया.

उनकी इस यात्रा में पंडित नेहरू कभी उनके साथ रहे, तो कभी उनके पीछे तटस्थता से खड़े दिखाई दिए, तो कभी न चाहते हुए उनसे अलग खड़े होने का आभास कराया. यही सत्ता और आंदोलन में अंतर है, यही सत्ता और आंदोलन का कर्म है. इसी से लोकतंत्र बनता है. इसी से लोकतंत्र चलता है. इसके पीछे की वास्तविक वजह अगर हमें समझनी है, तो उस समय के इतिहास को देखिए, जिसमें आसानी से परिस्थितियों और संघर्षों में समानता दिखाई देगी.

आजाद भारत में चीजें उतनी आसानी से नहीं बनीं, जितनी कि हमने मान ली, या जितनी हमें बताई जाती है. यह वही देश था जिसने हजारों सालों तक राजा-महाराजा यानी मालिक-प्रजा की व्यवस्था को अपनाया. इसके बाद अगर हम आजाद होते, तो अलग बात थी. इसके बाद दो सौ साल तक हमें परतंत्र रहकर, उनके हिसाब से चलना पड़ा. तब जाकर हमें आजादी मिली थी. इस आजादी के मिलने भर से ही काम नहीं चलने वाला था, जिसे राममनोहर लोहिया अच्छे से समझते थे इसलिए उन्होंने सबसे पहले गांधी की शरण ली और नेहरू के साथ मिलकर आजादी की आवाज को बुलंद किया.

जब गांधी नहीं रहे तो उन्होंने पंडित नेहरू से अपने को अलग करते हुए, साथी की तरह समाज उत्थान का काम किया. इस संपूर्ण यात्रा में उन्हें अंबेडकर, कृपलानी, विनोबा और जयप्रकाश का साथ भी मिला जिसे पंडित नेहरू ने खुले दिल से स्वीकार किया और ताउम्र सहयोग भी प्रदान किया. नेहरू और लोहिया ने ही पक्ष और विपक्ष को एक बिंदु पर लाने का प्रयास किया, जिसमें दोनों सफल भी रहे. दोनों ने भविष्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने पक्ष-विपक्ष का आदर्श उदाहरण पेश किया, लेकिन हालिया परिस्थितियों को देखते हुए लगता नहीं कि हमने उनके मानकों को सही से समझा है, या उस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास किया है.

इसके लिए हमें यह भी देखना चाहिए कि तब में और अब में, ऐसा क्या बदल गया ? जो नई-नई आजादी में था और नए-नए लोकतंत्र में था, जबकि तब तो हम, न तो आज के जितने अनुभवी थे और न ही आज की तरह व्यवस्थित. इसका जवाब यह है कि उस समय सरकार का प्रतिनिधित्व पंडित जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे, जो गांधी के प्रिय शिष्य थे. वह गांधी की अंतिम सांस तक और उसके बाद भी उनके ही बताए रास्ते पर चलने के लिए प्रतिबद्ध रहे.

नेहरू फैबियन समाजवाद के पक्षधर थे, जिसमें आर्थिक गतिविधियों में एक प्रभावी निष्पक्ष प्रशासित राज्य की नियमित सहभागिता की वकालत थी, तो दूसरी ओर विपक्ष के सबसे बड़े नेता के रूप में राममनोहर लोहिया थे, जो गांधी के अंतिम दिनों तक, उनके साथ नौआखली में दंगे शांत कर रहे थे. जिन्होंने भारतीय समाजवाद को परिभाषित किया था जिसके अनुसार- ‘समता और संपन्नता’ ही समाजवाद है. दोनों की इसी समानता और संघर्षों ने आदर्श विपक्ष की उपमा दिलाई और लोकतंत्र मजबूत हुआ लेकिन हमें देखना होगा कि आज के हुक्मरान इस कसौटी पर कहां खड़े हैं. 

उनकी स्मृतियों को सादर नमन…..

हिम्मत सेठ,उदयपुर

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