हिमांशु कुमार,
गांधीवादी विचारक
भारत में बहुत सी गलतफहमियां मौजूद हैं. आज इनमें से दो पर बात करेंगे. पहली है कि गोश्त मुसलमानों का खाना है. और दूसरी ग़लतफहमी यह है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है. तो जो पहली गलत फहमी है कि गोश्त मुसलमानों का खाना है उस पर बात करते हैं.
हमारा परिवार ब्राह्मणों का परिवार था. हमारे पड़दादा महर्षी दयानंद के उत्तर प्रदेश में पहले शिष्य थे. जब हम लोग बच्चे थे तो हम अक्सर अपने रिश्तेदारों से सुनते थे कि मुसलमान गोश्त खाते हैं इसलिए वो बड़े जालिम होते हैं और हम हिन्दू लोग शाकाहारी होते हैं इसलिए बड़े दयालू होते हैं. हम बच्चे लोग इन बातों को सही मानते थे.
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो एक रोज मैंने यह बात अपने पिताजी के सामने बोला. मेरे पिताजी गांधीजी के साथ उनके आश्रम में रह चुके थे और उन दिनों आचार्य विनोबा के भूदान आन्दोलन में गांव-गांव जाकर गरीबों के लिए जमीन का दान मांगते थे. पिताजी मेरी बात सुन कर चिंतित हो गये. आज मैं समझ सकता हूं कि उन्हें चिंता इस बात की हुई होगी कि उनका बेटा साम्प्रदायिक बन रहा है.
पिताजी ने मुझे अपने पास बिठाया और बोले तुम्हारी बड़ी बुआ हैं ना. उनके बेटों ने दंगों में अपने घर की छत पर चढ़ कर बंदूक से गली में जान बचा कर भागते मुसलमानों पर गोली चला कर उनकी हत्या की थी. पिताजी की बात सुन कर मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई. हिन्दुओं के दयालू होने का भ्रम एक झटके में टूट गया.
पिताजी ने कहा – ‘तुमसे किसने कहा कि मुसलमान जालिम होते हैं ?’ मैंने कहा – ‘सब कहते हैं स्कूल में टीचर कहते हैं सब बच्चे कहते हैं.’ पिताजी ने कहा – ‘सामने रशीद ताउजी रहते हैं, बराबर में गनी ताउजी रहते हैं. तुम दिन भर इनके घर में खेलते हो क्या ये खराब हैं ?’ मैंने कहा – ‘नहीं, मुझे उनके बच्चे प्यार करते हैं और ताई जी खाने को देती हैं.’ उस के बाद इस झूठे प्रचार के खिलाफ मैं अपने दोस्तों से बहस करने लगा. चिढ़ कर मेरे दोस्त मुझे गांधी कह कर चिढाने लगे.
जब मैं बड़ा हुआ और मेरी शादी हुई तो मैने देखा कि मेरे ससुराल वाले पंजाबी हैं और रोज मांस खाते हैं. मेरा एक साला तो कहता है कि वेजेटेरियन खाना खाकर मेरा पेट खराब हो जाता है. नवरात्रों में मेरे दोनों साले मांस नहीं खाते लेकिन बड़े वाला साला तो बिना मीट के खाना नहीं खा सकता. वो नवरात्र शुरू होते ही विदेश यात्रा पर निकल जाता है. उसका मानना है कि ‘देवी सिर्फ़ भारत में होती है इसलिए भारत में नान वेज खाने से पाप लगेगा.’ वह हवाई जहाज के टेक आफ करते ही धर्म के बंधन से आजाद हो जाता है.
इसी तरह मेरी छोटी बहन के ससुराल वाले मुस्लिम हैं. जब मेरी बहन वहां जाती है तो वहां मेरी बहन के लिए शाकाहारी खाना अलग से बनाया जाता है. मुझे आश्चर्य तब हुआ कुछ साल बाद देवर की शादी हुई. मेरी बहन ने बताया की नई आई देवरानी जो मुसलमान है वो भी शाकाहारी है. मुझे यह भी पता चला कि देवरानी के मायके का पूरा मुस्लिम परिवार ही शाकाहारी है.
मेरी बहन के मुस्लिम ससुर ने मुझे बताया कि उनके चचेरे भाई भी शाकाहारी बन गये हैं. मैंने पूछा किस वजह से ? तो उन्होंने बताया कि वो कलाम साहब से प्रभावित थे और उन्होंने उनके प्रभाव में गोश्त खाना छोड़ दिया.
मुझे मेरे पिताजी ने यह भी बताया कि गांधीजी के आश्रम में जब खान अब्दुल गफ्फार आते थे तो उनके लिए गोश्त पकता था. खान साहब के प्रभाव से लाखों पठान अहिंसक हो गये थे और हंसते हंसते लाठियां और गोलियां अपने सीने पर झेली. तो यह जो झूठा प्रचार है कि मुसलमान गोश्त खाते हैं इसलिए कट्टर होते हैं बिलकुल झूठा और आधारहीन है.
अपनी शादी के बीस दिन के बाद मैं और मेरी पत्नी बस्तर चले गये थे और हम वहां आदिवासियों के गांव में अट्ठारह साल रहे. बस्तर में रहने के दौरान मैंने देखा कि आदिवासी गाय समेत सभी पशु पक्षियों का मांस खाते हैं लेकिन वे आदिवासी बहुत दयालू, मिलनसार और ईमानदार होते हैं. इसके विपरीत आदिवासियों को लूटने वाले बेईमान दुकानदार बड़े शाकाहारी और धार्मिक थे. तो धीरे-धीरे मांसाहारियों के बारे में मेरी पहले से बनी हुई धारणाएं अपने अनुभव से साफ़ होती गई.
इसके अलावा अभी आंकड़े आये हैं कि भारत में सत्तर प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं और सिर्फ तीस प्रतिशत लोग शाकाहारी हैं. भारत की आबादी में मुसलमान सिर्फ तेरह प्रतिशत हैं, ईसाई सवा दो प्रतिशत हैं, सिख दो प्रतिशत से भी कम हैं, बौद्ध आधा प्रतिशत से भी कम हैं. यानी हिन्दुओं के अलावा मांस खाने वाले धार्मिक समूह सत्रह प्रतिशत ही हैं. यानी भारत की तिरासी प्रतिशत हिन्दू आबादी में से सत्तर प्रतिशत हिन्दू मांसाहारी हैं. इसीलिये भारत में मांस की बिक्री सिर्फ नवरात्रों में गिरती है क्योंकि उन दिनों हिन्दू मांस नहीं खाते. यानी मांस के मुख्य खरीदार हिन्दू है.
मैं यह नहीं कह रहा कि मांस खाना कोई बुरी बात है. मैंने यह साबित कर दिया है कि मुसलमानों को मांस खाने की वजह से कट्टर और क्रूर कह कर बदनाम करना बिलकुल बदमाशी की बात है और पूरी तरह झूठ है.
इसी तरह दूसरी गलत फहमी यह फैलाई जाती है कि उर्दू मुसलमानों की जुबान है और हिन्दी हिन्दुओं की जुबान है. मेरे पड़दादा पंडित बिहारी लाल शर्मा जो महर्षी दयानद के पहले शिष्य थे. वो सिवाय उर्दू और फारसी के कोई जबान नहीं जानते थे. मेरे पिताजी सुनाते थे कि वो शिक्षा विभाग में थे. उनकी तरक्की इसलिए रुक गई थी क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती थी.
तो मेरे पड़दादा रात को अंग्रेज़ी की किताब जिसे क़ायदा कहा जाता था, लेकर आये और पूरी रात उसे पढ़ा और सबेरे अंग्रेज अफसर को अंग्रेज़ी में दरख्वास्त लिख कर उसके पास पहुंच गए और उनकी तरक्की हो गई.
मेरे दादा भी हिन्दी लिखना पढ़ना नहीं जानते थे सिर्फ उर्दू जानते थे. मेरी पत्नी के दादा जी भी सिर्फ उर्दू का अखबार पढ़ पाते थे जो कि पंजाबी खत्री थे. मेरे ताऊ पंडित ब्रह्म प्रकाश शर्मा बहुत साफ़ उर्दू बोलते थे उनकी जुबान से जो भाषा निकलती थी उसमें ज्यादातर अल्फ़ाज उर्दू के होते थे. अपने ताउजी के साथ रहकर ही हमें उर्दू समझनी आई. उदाहरण के लिए रंगों के नाम वो सिर्फ उर्दु में ही बोल सकते थे. जैसे पीले को जर्द, हरे को सब्ज, काले को स्याह, सफ़ेद को सुफैद, लाल रंग को सुर्ख.
मेरे पिताजी भी उर्दू लिख पढ़ लेते थे. इसके अलावा उर्दू के बहुत सारे शायर और लेखक हिन्दू हैं और हिन्दी के बहुत सारे लेखक और कवि मुसलमान हैं. कृष्ण की भक्ति में लिखा गया काव्य बहुत सारे मुसलमानों ने लिखा है. और संत विनोबा भावे जो एक कोंकणस्थ ब्राह्मण थे उन्होंने अरबी सीखी, कुरआन को सात बार पढ़ा और कुरआन पर भाष्य लिखा जिसका शीर्षक ‘कुरआन सार’ है.
तो भारत में राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए जो गलतफहमियां झूठ और नफरत फैलाई जा रही है, उसके बारे में अपना दिमाग़ खुला रखने और सच्चाई जानने की जरूरत है. भारत के युवा को खुद को मूर्ख बनने से इनकार करना चाहिए और दुनिया के युवा की तरह समझदार बन कर सारी दुनिया के युवा के साथ कदम मिला कर आगे बढ़ना चाहिए वरना दुनिया का युवा आगे बढ़ जाएगा और भारत का युवा मूर्खता के कीचड में लिथडता रहेगा.