अग्नि आलोक
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भारत : जीवन~मूल्यों का स्खलन

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 डॉ. प्रिया

      _भारतीय साहित्य की विचारधारा इतनी साम्यवृत्ति पर आधारित है कि कभी-कभी तो ऐसा भ्रम होने लगता है कि कहीं यह एक ही सृजनकर्ता की विभिन्न शैलियाँ या प्रयोग तो नहीं; क्यों है ऐसी एकरूपता? ऐसा क्या है जो मानव को अंततः एक काल्पनिक पर निश्चित उद्देश्य की ओर ले जाता है?_

       भाषा जहाँ विरोधी नहीं होती, वहाँ प्रांतीयता का ह्रास होता भी जान पड़ता है मानो सार्वभौमिकता का एक साकार रूप प्रकट हो रहा हो।

            भारतीय साहित्य ही क्यों, देखा जाए तो विश्व का कोई भी उदात्त साहित्य एक ही उद्देश्य निर्दिष्ट जान पड़ता है, और वह परम-उद्देश्य है— मानव कल्याण, मानवोत्सर्ग एवं सुन्दर मानवीय जीवन की प्रतिष्ठा एवं स्थापना। इसी उद्देश्य के लिए रचनाकारों ने विभिन्न शैलियों में विभिन्न अभिव्यक्ति माध्यमों का प्रश्रय लिया।

      ये लेखकीय अभिव्यक्ति के नाना साधन मानो एक ही धुरी के गिर्द घूम कर अंततः फिर वहीं आन खड़े होते हैं। इनमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जाने-अनजाने सृष्टि में परोपकारिता के ही साधन मात्र दिखाई देते हैं या कह सकते हैं कि ये कुछ काल्पनिक मानदंड हैं, जो अनकही लेकिन सर्वसम्मत नियमावली से स्वीकृत हुए जान पड़ते हैं और जिनका परमलक्ष्य कल्याण की भावना पर टिका होता है; मात्र मानव कल्याण पर।

          कहने का ढंग चाहे ‘किरत कर वंड के छक’ (कमाई करो और मिल कर खाओ) हो या ‘संघं शरणम् गच्छमि’ या फिर कोई और ऐसा ही परोपकारी उपदेश। वैसे भी अधिकतर सभी जाने-माने धर्माचार्यों ने विश्व-व्याप्त विदरूपताओं के गरल पीए, भ्रमण करके विश्व-कल्याण में देश-प्रांत की सीमाएँ पाट दी एवं सलीब पर टंगे हुए भी यही कहते गए, ‘ऐ ख़ुदा! इन्हें माफ़ करना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं!”

…और यह ‘न जानना’ ही हमारी मूल अज्ञानता है। हम जब स्वयं नहीं जानते कि हमारा मूल उद्देश्य क्या है? हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है? इस शरीर का पालन-पोषण ही केवल कहीं हम अपना जीवन लक्ष्य तो नहीं समझ बैठे? और यह पालन-पोषण भी कैसी विपरीत दिशा में हो रहा है कि बाहरी चमक-दमक के भीतर दुर्गन्ध भरा विस्फोटक अंधेरा गहराता ही जा रहा है।

     यह अंधेरा प्रतिक्षण भीतर-बाहर फैल रहा है। और…मानव मानो खोखला, मात्र मुखौटा पहने रामलीला मैदान में खड़ा दस सिर का काग़ज़ी रावण तो नहीं बनता जा रहा? जो केवल एक आतिश की चमक से स्वाह होने को ही खड़ा है। उसके चारों और की साज-सज्जा, मैदान में लगे मेले की मानिंद क्षणिक तो नहीं हैं क्या? जो रावण के जलते ही इस भरे-पूरे मैदान को वीरान कर चलती बनेंगी फिर रह जाएगा मात्र एक काली राख का ढेर।

     काग़ज़ी रावण के लाल,पीले, हरे रंगीन गुड्डी-काग़ज़ सब राख के ढेर में बदलते कितनी देर? तो फिर जीवन में नुमायश और साज-सज्जा के लिए इतनी मार-धाड़ क्यों?

भारतीय संस्कृति की सहजवृत्ति संतोष,त्याग,सद्भावना कहाँ चली गई? यह भागदौड़, यह बेमतलब की प्रतिस्पर्धा, स्थूल वस्तुओं के संग्रह की बेइंतहा ललक इतनी क्यों बढ़ती जा रही है? ‘वंड के छक’ का सार्थक उपदेश कब ‘अंधे की रेवड़ी’ बन गया पता ही न चला!

        स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में विकास के अथक प्रयास किए गए; सफलताएं भी आशा से कहीं बेहतर और ज़्याद मिली। नि:संदेह विज्ञान व तकनीकी से विकास के अछूते क्षितिज छू लिए।

        भारत हर क्षेत्र में न केवल आत्मनिर्भर ही बना अपितु कई देशों की सहायता करने में भी सक्षम हुआ। यहाँ के वैज्ञानिकों में सम्भावनाओं को निश्चित उपलब्धियों में बदलने की भरपूर क्षमता है। हमने व्योम में राकेट भेजे, धारा के गर्भ से रत्नों को खोज निकाला एवं हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा से असंभावनाओं को सम्भव बनाया है। यदि हम पीछे झांक के देखें तो हमें आश्चर्य होगा कि कितनी तेज़ी से आगे बढ़े हैं हम और बढ़ते जा रहे हैं!

परन्तु ये सभी उपलब्धियाँ भौतिक हैं। आविष्कार करना मानव की मूल प्रवृत्ति है, ये उसकी स्वाभाविकता है। अन्तर केवल यही है कि पहले हमारे मनीषी सूक्ष्म तत्व की उपलब्धि से मानव कल्याण में प्रयत्नशील थे, अब भौतिक उपलब्धियों में लगे हुए हैं। इसका प्रभाव सुख-सुविधाओं और अधिकार सत्ता पाने के मोह में फँसकर कहीं-न-कहीं व्यक्ति को ज़्यादा ऐश्वर्यकांक्षी बनाता जा रहा है।

        इससे वह सर्वहित को भुला केवल अपने सुख-ऐश्वर्य के साधनों को अंधाधुंद जुटाने की होड़ में सामान्य-जन को व उपेक्षित लोगों की मुश्किलों को देख कर भी देख नहीं पाता। सुखी व संतुष्ट जीवन के मूल-मंत्र त्याग और परोपकार को भूल कर केवल लोभ-लाभ की नीति पर चलते हुए आध्यात्मिकता के वास्तविक सुख से वंचित, नैतिक पतन की ओर उन्मुख है।

       ऐसा व्यक्ति येन-केन प्रकारेण सुख साधनों को बटोरने में नीति-अनीति का ध्यान ही नहीं कर रहा। हाँ, ये तो सही है की ‘भूखे पेट न भजहिं गोपाल’ पर यहाँ तो पेट पर वर्षों की रोटियाँ बांधे घूमते हैं हम। किसी गरीब को पेटभर अन्न देने से पहले अपना लाभ कमाना कहा भूलते हैं। फिर ये सोच अलग कि कहीं अपने भंडार में कमी न पड़ जाए। भूखे लोग तो मारेंगे ही, क्या करे अपने कर्मभोग हैं।

बस हमें जीना चाहिए। पर किस लिए? फ़ैशन,दिखावे, और पैसे बटोरने के लिए! जबकि वे नहीं जानते पैसा क्या है? इसका सही उपयोग क्या है? इसकी मूल्य धारणाएँ हम दिन-प्रति-दिन गिराते जा रहे हैं। रुपया-पैसा तो मात्र वस्तुओं की उत्तमता मानकता का एक मापदंड है और वस्तु की कमी-अधिकता भी इसकी कसौटी है।

      _लेकिन अब तो यूँ प्रतीत होता है कि रुपए-पैसे के अवमूल्यन के साथ मनुष्य की नैतिक गिरावट भी बराबर चल रही है।_

       एक समय था जब भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के समय में भारत में अन्न संकट आया और विदेशों से अनाज मंगवाने  पर भारतीयों को हेय दृष्टि का सामना करना पड़ा तो तब प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी के आवाहन पर भारतीयों ने सप्ताह में एक दिन सोमवार व्रत रखने के संकल्प से एक-एक दिन में मानों-टनों अनाज बचाया।

        लोगों ने सब्ज़ियों फलों के उपयोग को बढ़ा कर बड़े संयम से न केवल उस समस्या का समाधान किया, अपितु जय जवान और किसान के मूलमंत्र से भारत को खाद्यान्न और देश सुरक्षा में आत्मनिर्भर भी बनाया।

उस राष्ट्र-व्यापी आवाहन के परिणाम-स्वरूप यह भी देखने में आया कि अपने घर में कुछ खाने से पहले यह जानना ज़रूरी समझा जाता था कि पड़ौसी ने कुछ खाया कि नहीं।

       वैसे भी देखने में आता है कि अपने देश में लकीर पीटने वाले अंध पुजारी बहुतायत में मिल जाएँगे। लेकिन कोई सही लकीर खींचे तो सही, तब न! कोई सही राह दिखाए तो चल लेंगे, मगर राह दिखाने वाला कबीर की भाँति ‘घर फूँक’ चले तब न! जब अगुआ में ही अपने घर भरने की ललक कूट-कूट कर भरी पड़ी हो तो जनता बेचारी क्या करे, किसका मुँह ताके? जनता तो भेड़ों-सी, बस अंधानुकरण करना या मुंडना जानती है, सदा से यही करती आई है आगे भी करती रहेगी। अब बुद्ध, कबीर, नानक,जवाहर, लालबहादुर शास्त्री जैसे वैरागी पुरुषों की ज़रूरत है।

 आज़ादी के बाद हम ज़मीन-आसमान की हर गहराई और बुलंदियों को छू सकने में सक्षम हुए हैं, विभिन्न ग्रहों की तलाश में अभियान चला ब्रह्मांड के रहस्यों की खोज में जुटे हैं, और कौन नहीं जानता; इसमें वांछित उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं और अभी भी खोज के अभियान जारी हैं।

 ;;;  अधिकांश भारतीयों को शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत सुविधाओं से सम्पृक्त कर सकते हैं; तो यदि चाहें तो कोशिश करने पर असंतुष्ट, लोलुप एवं भौतिकोन्मुख जन-मानस को सात्विकता की ओर भी उन्मुख कर ही सकते हैं।

      इसके लिए पहला कदम हमें ही चलना चाहिए संयम से, त्याग से, सद्भावना से जो सर्वजन हिताय हो और निश्च्य ही वह स्वमन सुखाय भी होगा ही।′

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