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झारखंड के आदिवासियों के लिए यादगार महीना है नवंबर का महीना

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विशद कुमार

वर्ष 2000 के बाद हर 15 नवंबर को धरती आबा बिरसा मुंडा की जयंती और झारखंड का स्थापना दिवस एक साथ मनाया जाता है। इसके अलावा नवंबर माह का विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि 11 नवंबर, 1908 को छोटानागपुर टीनैंसी एक्ट लागू हुआ था। यह कानून आदिवासियों के अदम्य साहस और सतत विरोध का परिणाम था

हालांकि इतिहास को लेकर कई मतभेद भी रहे हैं। मसलन, उपलब्ध इतिहास के मुताबिक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को उलिहातू में हुआ। हालांकि इसे लेकर कई सवाल पूर्व में भी उठते रहे हैं। इस संबंध में जनजातीय परामर्शदातृ परिषद (टीएसी) झारखंड के पूर्व सदस्य रतन तिर्की भी मानते हैं कि बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को उलीहातू में नहीं, चलकद के बांहबा गांव में हुआ था। इस मामले में आदिवासी मामलों के जानकार ग्लैडसन डुंगडुंग का मानना है कि बिरसा मुंडा का जन्म जून महीने में हुआ था न कि नवंबर में। उनके मुताबिक बिरसा मुंडा की शहादत भी जून में ही हुई थी। वे आरोप लगाते हैं कि गैर-आदिवासी इतिहासकारों ने बिरसा का जन्म नवंबर माह में बताया है। वे सवाल उठाते हैं कि जिन इतिहासकारों को जब बिरसा के जन्म के बारे में ही सही जानकारी नहीं थी, तो उन्होंने कितना सही इतिहास लिखा होगा, सहज कल्पना की जा सकती है।

ध्यातव्य है कि झारखंड के इतिहास के लिहाज से नवंबर महीने का एक और खास महत्व है। 11 नवंबर, 1908 को सीएनटी एक्ट (छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम) भी अस्तित्व में आया था। जंगल पर अधिकारों को लेकर इस कानून की अवधारणा फादर कांस्टेंट लीवंस और फादर हॉफमॅन की रही थी। जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सर्विसेज के पूर्व निदेशक फादर एलेक्स एक्का ने अपने एक आलेख में लिखा है कि 18वीं सदी से ही आदिवासियों ने अपनी जमीन को बचाने के लिए विद्रोह करना शुरू कर दिया था। फलतः 1782 – 98 में तमाड़ विद्रोह, 1798 – 99 में मानभूम में भूमिज विद्रोह, 1820 में कोल विद्रोह हुए।

बिरसा मुंडा (15 नवंबर, 1875 – 9 जून, 1900)

इन विद्रोहों को जमींदारों के सहयोग से अंग्रेजों ने दबाने की भरसक कोशिशें की, लेकिन इन विद्रोहों का सिलसिला नहीं रुका। इन विद्रोहों की कड़ी में 1821 – 32 तक का द्वितीय कोल विद्रोह, सिंहभूम का भूमिज विद्रोह, 1855 – 56 का संथाल विद्रोह, 1871 का खरवार आंदोलन, 1881-82 का पलामू में कोरवा विद्रोह, 1881 से 95 तक सरदारी लड़ाई और फिर 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का आंदोलन हुआ। अंग्रेज हुक्मरान विद्रोहों को रोकने में नाकाम रहे। लेकिन छोटानागपुर क्षेत्र के मिशनरियों को धीरे-धीरे समझ में आ गया था कि यहां का आदिवासी समुदाय अपनी जमीन, अपने स्वशासन और पारंपरिक व्यवस्था पर कोई हस्तक्षेप कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता है। फादर लीवंस ने कानूनी सलाह देकर कचहरियों में आदिवासियों की जमीन वापसी की कोशिश शुरू की। वहीं फादर हॉफमैन ने आदिवासियों की जमीन को बचाने के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) का ड्राफ्ट तैयार किया, जिसे अंग्रेजी हुकूमत ने 1908 में कानूनी जामा पहनाया और यहां के आदिवासियों की जमीन की रक्षा के लिए विशेष भूमि अधिकार कानून बना, जिसे छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम कहा जाता है। इस कानून का उद्देश्य जमीन पर आदिवासियों को सामुदायिक स्वामित्व प्रदान करना और उनकी जमीन गैर आदिवासियों के पास हस्तांतरण को रोकना था।

सन् 1874 में जब इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया ने भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की राज को खत्म कर शासन को अपने हाथों में ले ली। उसके बाद भी मुंडा बहुल इलाकों में पुनः मुंडा समुदाय के लोगों ने अपनी जमीन की वापसी और मालिकाना हक, अपनी स्वशासन व्यवस्था पर बाहरी हस्तक्षेप के खिलाफ लंबी लड़ाई छेड़ दी। इस लड़ाई को मुंडा सरदारों ने बड़े पैमाने पर शुरु किया था। जिसे सरदारी विद्रोह भी कहा जाता है। जो तीन चरणों में चला। पहला चरण 1858-1881 दूसरा चरण 1881-1890 तीसरा चरण 1890-1895 तक चलता रहा।

इन्ही मुंडा विद्रोहों और मुंडा आदिवासियों के जनविक्षोभ को समेटकर बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उलगुलान शुरू किया। इन्हीं विद्रोहों के कारण अंततः बाध्य होकर ब्रिटिश हुकूमत को सीएनटी एक्ट को बनाना पड़ा। आजाद भारत की सरकार ने भी इस कानून को रहने दिया।

हालांकि जमीन की सुरक्षा के लिए विशिष्ट कानूनी प्रावधान सीएनटी एक्ट रहने के बावजूद आज भी आदिवासी जमीनें अधिग्रहित की जा रही है।

इस बावत आदिवासी अधिकार रक्षा मंच के समन्वयक लक्ष्मीनारायण मुंडा कहते हैं कि सीएनटी एक्ट द्वारा संरक्षित जमीन की लूटने  के लिए ही अभी तक विकास और आदिवासियों के हितों के नाम पर 26 बार इस कानून का संशोधन किया जा चुका है। एक स्वतंत्र और गणतांत्रिक राष्ट्र बनने के बाद भी सभी सरकारों ने, चाहे केंद्र हो या राज्य सरकारें हो या किसी भी पार्टी की सरकारें रही हो, विकास के नाम पर आदिवासियों की लाखों एकड़ जमीन लूट ली गई। कल-कारखाना, खान-खदान, रेल लाइन, विद्युतीकरण, सड़क, नहर, चेक डैम और विभिन्न सरकारी संस्थानों के नाम पर अधिग्रहण करके विभिन्न सरकारों द्वारा ही आदिवासियों की जमीन अधिग्रहित की जा चुकी है। आज भी लाखों विस्थापित परिवारों को ढंग से न मुआवजा दिया गया, न नौकरी-रोजगार उपलब्ध कराया गया और न ही विस्थापित आदिवासियों का जीवन स्तर उठाने के लिए विशेष योजना चलायी गयी। जिस कारण आज भी लाखों आदिवासी अपने समुदाय अपनी आस्था-विश्वास विरासत, सरना-मसना, जाहेरथान, खेत-खलिहान को छोड़कर विस्थापन, पलायन को मजबूर हुए।

बहरहाल नवंबर का महीना बिरसा की जयंती के साथ-साथ 11 नवंबर, 1908 को बने सीएनटी एक्ट के लिए भी प्रासंगिक है। यह इसलिए भी खास है क्योंकि इस कानून की बुनियाद में आदिवासियों का सतत विरोध और शहादतें शामिल हैं। 

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