[मेरे साधनाकालीन जीवन पर आधारित घटनाक्रम]
~ डॉ. विकास मानव
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पूर्वकथन : आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी.अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है. मेरा स्पष्ट उद्घोष है : “बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें.“
लोग रहस्यमय दुनिया के चित्र-विचित्र पहलुओं की चर्चा करते हैं. पचास प्रतिशत लोग तो और जिज्ञासु भी हो जाते हैं। शेष ऐसे विषय को अविश्वसनीय मान लेते हैं. वजह तंत्र के नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः तंत्र विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। सुक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है — निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में. जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर परिचय देकर अपॉइंटमेंट लेने के बाद हमसे संपर्क कर सकते हैं.
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भाव, विचार और मन की अपनी विद्युत चुम्बकीय तरंगें होती हैं। साधना के प्रभाव से उन्हें मैं अब पहचानने लगा था, समझने लगा था और उनके रहस्यमय चमत्कारों से भी परिचित होने लग गया था। जब किसी देवी-देवता के सामने जाता तो मस्तिष्क से विकीर्ण होने वाली तरंगें उनकी प्रतिमा में समाने लग जाती थीं। उस समय सजीव- सी हो उठती थी वह प्रतिमा।
इसी प्रकार जब किसी देवी-देवता के मन्त्र का जप करता तो उस अवस्था में मन्त्र की अधिष्ठात्री देवी या देवता का स्वरूप स्पष्टरूप से मेरे मानस-पटल पर उभर आता। यही स्थिति होती मेरी पूजा-पाठ आदि करते समय भी।
नवरात्र का समय था। मैं रोज रात्रि के समय मध्यम चरित्र का पाठ करता था। दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र का अपना अत्यन्त महत्व है। तो जब मैं पाठ करता, उस समय श्लोक के अर्थ के अनुसार देवी का चरित्र उभरने लगता था मेरे मानस-पटल पर। भगवती का आविर्भाव, उनके द्वारा असुरों का वध और देवताओं द्वारा देवी की स्तुति आदि को चलचित्र की भांति देखता था मैं। देवी माँ के बड़े-बड़े नेत्रों में दया, करुणा और अनुकम्पा के मिले-जुले भाव की झलक दिखाई दे जाती थी। उनके होठों पर बिखरी हुई मुस्कराहट क्या कभी भूल सकूँगा मैं ?
एक दिन सायंकाल के समय टहलते हुए श्मशान की ओर चला गया मैं। कई शव जल रहे थे वहां। मेरा मन और अधिक विरक्त हो उठा। घाट के ऊपर एक पत्थर का चबूतरा था उसी पर बैठ गया मैं। बड़ी शांति मिली। लेकिन कुछ देर बाद मस्तिष्क से विकीर्ण होने वाली ऊर्जा-तरंगें श्मशान की ओर आकृष्ट होने लगीं और वहां से सीधे ऊपर की ओर उठकर आकाश में समाने लगीं।
विस्मय हुआ मुझे। समझते देर न लगी मुझे–भाव-ऊर्जा की तरंगें थीँ वे। एकाएक मेरे सिर में दर्द होने लगा।
शायद सावन-भादों का समय चल रहा था। आसमान में काले-भूरे बादल घिरे हुए थे। लगता था बारिश होने वाली है। लेकिन मैं जहाँ बैठा था, वहां छाया थी, इसलिए भीगने का कोई डर नहीं था। सामने जलती हुई चिता की लाल-पीली लपटों को देखता हुआ न जाने कब ध्यानस्थ हो गया मैं।
ध्यान की उसी अवस्था में अपने सामने एक युवती को देखा मैंने। आयु अधिक नहीं थी। काला रंग, गोल चेहरा, चौड़ा मस्तक, उस पर लाल सिन्दूर का बड़ा-सा टीका। झील जैसी बड़ी-बड़ी गहरी आंखें, नितम्ब तक झूलते हुए घने काले बाल, कमर में लाल रंग का घाघरा–बस यही था स्वरूप उस रहस्यमयी युवती का।
कुल मिलाकर एक सम्मोहन भरा आकर्षण था उसके व्यक्तित्व में। मेरे मस्तिष्क की उर्जा-तरंगों के जाल में फंस कर आ गयी थी मेरे निकट–इसमें संदेह नहीं।
कौन हो तुम ?
विकास! पहचाना नहीं मुझे ? श्मशान भैरवी हूँ मैं। पूरे तीन सौ वर्षों से भटक रही हूं मैं इस महाश्मशान में समझे न ? मेरे सामने इस जगह कितनी लाशें आयीं, कितनी लाशें धू-धू कर जल गयीं और फिर अन्त में मुठ्ठीभर राख में बदलकर अपना अस्तित्व खो बैठीं।
तुम युवक हो। कितना सुंदर है तुम्हारा रूप ! कोई अतृप्त आत्मा लग गयी तुम्हारे पीछे तो फिर पिण्ड छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा तुम्हारे लिए।
(2)
थोड़ा आश्चर्य हुआ। श्मशान भैरवी आगे बोली–अच्छा, अब मैं चलूँ, एक अच्छी आत्मा की लाश आने वाली है। जरा देख-भाल करना होगा न। फिर मिलूँगी। तुम भी यहां से जाओ।
घर वापस चला आया मैं थोड़ी देर और बैठकर। मन न जाने कैसा हो गया मेरा उस समय। गोपाल ब्रह्मचारी की कुटिया अभी तक खाली ही पड़ी थी। मेरी जो मानसिक और वैचारिक स्थिति थी, उसके विपरीत था घर-परिवार का वातावरण।
मुझे पूर्ण एकान्त और शांत वातावरण की आवश्यकता थी। इसीलिये गोपाल ब्रह्मचारी की कुटिया पर जमा लिया अधिकार दूसरे ही दिन।
रात्रि का समय था। बादलों से अटकर काला पड़ गया था आसमान। कभी-कभी बिजली चमकती और बादल गरज जाते एक-दो पल के लिए और वातावरण की नीरवता भँग हो जाती।
*स्थूलशरीर में प्रकट हुई युवती*
अन्धकार में डूबी हुई कुटिया के शांत वातावरण में अचानक एक काली छाया प्रकट हुई। समझते देर न लगी मुझे। श्मशान भैरवी थी वह, लेकिन भावशरीर को स्थूलशरीर में कैसे परिवर्तित कर लिया उसने। आश्चर्य हुआ मुझे उस समय। रोशनी करो–श्मशान भैरवी कोमल स्वर में बोली।
न जाने कब की एक लेम्प रखी थी। तेल था भी नहीं उसमें लेकिन फिर भी जला दिया मैंने उसे। हल्का पीला प्रकाश फैल गया कुटिया में और उस प्रकाश में मैंने भरपूर दृष्टि से देखा श्मशान भैरवी के अपरूप को। जैसा भाव शरीर था, वैसा ही था पार्थिव शरीर भी उसका। लेकिन कैसे सम्भव हुआ यह ? शायद मेरे मनोभाव को समझ गयी श्मशान भैरवी।
हँसकर बोली– मानव! तुम्हारे अन्दर एक ऐसी चीज है जिसे तुम अभी समझ नहीं पा रहे हो। कभी समझ जाओगे। मैं उसी चीज से आकर्षित होकर आयी हूँ यहां। रही शरीर परिवर्तन की बात, वह तो मेरे लिए कोई भारी समस्या नहीं है। कुछ समय के लिए पंचतत्वों को एकत्र कर अपने स्थूलशरीर की रचना करने की शक्ति तो मेरे गुरुदेव ने ही दी थी मुझे।
सुनकर अवाक् रह गया मैं। पाषाणवत देखता रहा कुछ पल तक उस कृष्णवर्णा को। अब मेरे लिए अत्यंत रहस्यमयी हो गयी थी वह। सच-सच बतलाओ–कौन हो तुम ? कौन हैं तुम्हारे गुरुदेव ? श्मशान भैरवी के रूप में क्यों भटक रही हो तुम यहाँ ?
इस प्रकार भावावेश में कई प्रश्न कर बैठा मैं। कुछ बोली नहीं श्मशान भैरवी। मौन साधे अपलक निहारती रही मेरी ओर वह। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें सहज नहीं थीं उस समय। इस प्रकार से अपनी ओर उसका देखना बड़ा रहस्यमय लगा मुझे। कुछ भय भी लगा लेकिन संयमित रखे रहा अपने को।
एकाएक कुटिया की नीरवता भँग हुई। गम्भीर किन्तु सहज स्वर में श्मशान भैरवी बोली–मैं कौन हूँ, क्यों भटक रही हूं श्मशान में ?–सब कुछ बतलाउंगी तुम्हे। सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा तुम्हारे सामने। इसी दिन की तो में तीन सौ वर्षों से प्रतीक्षा कर रही थी।
इतना कहकर कुछ क्षण के लिए रुकी वह रहस्यमयी और फिर पूर्ववत् गम्भीर स्वर में बोली–पहले तुमको यह जान लेना आवश्यक है कि जिस मार्ग पर तुम चल रहे हो, उसकी धूल पर शताब्दियों बाद किसी भूले-भटके व्यक्ति के पद-चिन्ह अंकित होते हैं। तुम्हारी आत्मा जन्म-जन्मान्तर से जिस वस्तु को ढोती हई तुम्हारे इस शरीर में प्रकट हुई है, वह एक प्रबल आध्यात्मिक तत्व है जिसके प्रभाव से इस अवस्था को स्वतः प्राप्त हुए हो तुम।
सम्भव है कभी भी किसी समय तुम्हारे मस्तिष्क से विकीर्ण होने वाली ऊर्जा-तरंगें पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की सीमा लांघकर ब्रह्माण्डीय ऊर्जा-तरंगों (कॉस्मिक वेब्स) से मिल सकती हैं और मिलकर कभी भी उनकी सहायता से लोक-लोकान्तरों में प्रवेश कर् सकती हैं। वहां के प्राणियों से संपर्क स्थापित कर सकती हैं। तुम तो जानते ही हो मानव मस्तिष्क ब्रह्मांड का लघु संस्करण है। जो ब्रह्मांड में है, वह तुम्हारे मस्तिष्क में है। कभी सोचा है–क्या स्थिति होगी तुम्हारी उस समय ?
जिज्ञासु हो उठा मैं। कुछ बोलना चाहा किन्तु शब्द नहीं निकले न जाने क्यों, लेकिन मेरे मन के भाव को समझ गई श्मशान भैरवी।
(3).
श्मशान भैरवी आगे बोली–तुम उन रहस्यमय सत्यों और तिमिराच्छन्न तथ्यों से धीरे-धीरे परिचित हो जाओगे जिनको न संसार जानता है, न समाज जानता है और न कोई धर्मगुरु ही जानता है। रही बात वेद, पुराण, शास्त्र उपनिषद की तो उनमें उन तथ्यों और सत्यों को खोजना अति कठिन कार्य है। साक्षात कृतधर्मा ही उन्हें उपलब्ध कर सकता है।
यदि तुम परिचित हो भी गए तो जीवन तुम्हारे लिए सार्थक हो जाएगा, लेकिन अन्य के लिए वही रहेगा निरर्थक। तुम सब कुछ जान जाओगे। जीवन-जगत् का सारा रहस्य हो जाएगा अनावृत तुम्हारे सामने। लेकिन कोई तुमको न जान सकेगा। सभी के लिए एक रहस्य बने रहोगे सदैव तुम।
अब मैं तुमको कुछ ऐसी बातें बतलाउंगी जिनको अपनाने से इस कंटकाकीर्ण संसार में जीने की कला जान जाओगे और तुमको अपने मार्ग पर अग्रसर होने में कोई भी बाधा नहीं आएगी।
व्यस्त रहना ही जीवन नहीं है। व्यर्थ की बातों में उलझने से समय नष्ट होता है। व्यर्थ वार्तालाप से समय का दुरुपयोग तो होता ही है, साथ ही साथ अपने आत्मविश्वास में भी कमी आती है। अनुकूल परिवेश न रहने से मानसिक तनाव रहता है। हमें यदि जीवन को जीना ही है तो सोच-विचार कर जीना चाहिए। जानते हो जीवन अति मूल्यवान है, जल्दी नहीं मिलता। अनेक समस्याओं को झेलें, अनेक बाधाओं में उलझें, अनेक कष्टों, दुःखों को सहें, लेकिन एक समय ऐसा भी मिलना चाहिए जब हम एकांतवास करें। उस समय न किसी से बात करें और न किसी विषय पर सोचें।
किसी को भी अपने पास न रहने दें। केवल स्वयम् को सोचें। स्वयम् पर विचार करें। स्वयम् पर आत्म-मंथन करें और स्वयम् की ही समीक्षा करें। यह सोचें कि हमारा जीवन जो चल रहा है, उसे क्या अपने मन के अनुकूल व्यतीत कर रहे हैं ? क्या हम जीवन से सन्तुष्ट हैं ? हमें जो चाहिए, क्या वह मिल रहा है ? क्या हम अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं ? हमें जितना चाहिए क्या उसके अनुसार हमारा प्रयास है ?
हम क्या पाना चाहते हैं ? क्या पा रहे हैं और क्या खो रहे हैं ? हम क्या बोल रहे हैं ? अन्यों के विषय में नहीं, अपने विषय की समीक्षा करें, अपनी गलतियों की, अपनी भूलों की।
आज हर व्यक्ति चिंतित है। क्यों और किससे–यह अच्छी तरह जानता है। यदि गम्भीर चिन्तन करके देखें तो लोग किसी-न-किसी को दोषी पाएंगे और कहेंगे–अमुक ने उसे दुःखी कर रखा है। अमुक से वह परेशान है लेकिन यह धारणा सत्य नहीं है। सत्य तो यह है कि हम स्वयम् के विचारों से, स्वयम् के मनोभावों से और स्वयम् की बुद्धि से ऐसी धारणा बना लेते हैं।
इस दिशा में जब हम सूक्ष्म अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि हमें स्वयम् ही किसी वस्तु से, किसी व्यक्ति से, किसी स्थान से लगाव था और था गहरा स्वार्थ। जब हमारे लिए वह वस्तु, व्यक्ति और स्थान अनुकूल और उपयुक्त नहीं रहा या रहता तभी हम दुःखी हो जाते हैं।
दुःखी क्यों ?
जब हमें कुछ भी नहीं चाहिए। सुख-दुख हमारी इच्छाओं से होता है उत्पन्न। हमारी आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा से हो या न हो, पर मानव जगत् में किसी-न- किसी आत्मा से तो होता है। यदि हम मात्र आत्म-सम्बन्ध ही बना लें और संतोष कर लें कि हमें इच्छित वस्तु नहीं मिली पर किसी को तो मिल गयी। फिर किस बात का दुःख ? फिर परेशानी क्यों ? हमें रोटी नहीं मिली, भूखे रह गए, पर किसी को तो रोटी मिल गयी, उसने उसे खा लिया, उसकी भूख तो मिटी। उसकी तृप्ति अपनी तृप्ति मान लें हम, फिर कष्ट किस बात का ?
यही आत्म-संतोष है और समस्त समस्याओं, समस्त दुःखो का समाधान है। यही आत्म-संतोष अपने-पराये का भेद नष्ट कर देता है। हम दुःखी नहीं रहते। हमारी चेतना का विस्तार होते देर नहीं लगती। हमें फिर कोई साधना-उपासना की आवश्यकता नहीं रह जाती। किसी प्रार्थना-पूजा की भी आवश्यकता नहीं रह जाती।
(4).
हमारा जीवन एक महायात्रा है। वह तब तक सफल नहीं होगा जब तक हम छोटी-छोटी वस्तुओं, इच्छाओं, कामनाओं आकांक्षाओं के अतिरिक्त क्षुद्र स्वार्थों के पीछे पागलों की तरह पड़े रहेंगे, उनसे अपने को अलग नहीं समझेंगे। इसके विपरीत समझ उत्पन्न होने पर अन्त में एक दिन ऐसा आएगा जब हम जीवन की सार्थकता को समझने लग जाएंगे। हम जो परिश्रम करेंगे, वह अपने लिए नहीं दूसरे के लिए करेंगे–भैरवी निरन्तर बोले जा रही थी–जीवन जियेंगे अवश्य, मगर दूसरे के लिए।
जीवन-यात्रा को पूर्ण करने और उसे सफल बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं। पहली है–एकान्त का अधिकाधिक सेवन, दूसरी है–अपने गुण-दोषों को निरन्तर परखते रहना और तीसरी है–बराबर आत्म-चिंतन करते रहना। यदि तुम यह करोगे तो निश्चय ही तुम आध्यात्मिक जीवन-यात्रा में सफल होगे। आध्यात्मिक जीवन जीने वाला वास्तव में सन्त होता है और आध्यात्मिक जीवन- यात्रा के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलने वाला होता है–महात्मा। ये दोनों परम उपलब्धियां प्रतीक्षा कर रही हैं तुम्हारी।
एकाग्र होकर सुन रहा था मैं उस रहस्यमयी श्मशान भैरवी की बातें। अन्त में वह बोली–जैसा मैंने कहा, वैसा ही तुम करोगे तो निश्चय ही तुम अपने आध्यात्मिक जीवन में और साथ ही साथ भौतिक जीवन में सफल रहोगे और दूसरों को भी सफल बनाने में सहयोगी सिद्ध होंगे। इतना ही नहीं, दूसरों का सुख-दुःख भी समझोगे, साथ ही उनके दुःख दूर करने की चेष्टा भी करोगे।
क्यों इतनी ज्ञान की बातें कर रही है यह ? क्यों दार्शनिक भाषा में उपदेश दे रही है और क्यों मेरे विषय में इतना कुछ बतला रही है मुझे श्मशान भैरवी ? आखिर क्यों और किसलिए ?
रात्रि का दूसरा प्रहर था शायद। आकाश में काले-भूरे बादल मंडरा रहे थे। एकाएक कड़कती हुई बिजली चमकी और क्षण भर के लिए फैल गया दूर-दूर तक धवल प्रकाश और उसी के साथ उमड़ कर बरसने लगे बादलों के समूह भी। पहले धीरे-धीरे पानी गिरा, फिर बरसने लगा झमाझम आसमान। स्याह रात्रि और अधिक गहरा गयी। अचानक हवा का एक तेज झोंका आया और बिखर गया कुटिया के भीतर चारों तरफ और उसी के साथ जलती हुई लैंप बुझ गयी।
गहन अन्धकार में डूब गई अब पूरी कुटिया। अभी भी श्मशान भैरवी का पार्थिव अस्तित्व था वहां जिसका आभास बराबर हो रहा था मुझे। अब वह बिल्कुल निकट आ गयी थी शायद। उसके भीतर से निकलने वाली नारी-गन्ध से भर रहा था मेरा नासापुट। उस गहन अन्धकार में भी मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसकी बड़ी-बड़ी आंखें घूर रही हैं मुझे। क्या चाहती है वह मुझसे ?
एकाएक याद आ गया श्मशान भैरवी का वह वाक्य जो उसने धीमे स्वर में कहा था–“इसी दिन की तो प्रतीक्षा कर रही थी मैं”…बड़ा ही रहस्यमय वाक्य था वह इसमें संदेह नहीं। फिर इस प्रकार दार्शनिक भाषा में मुझे उपदेश देने और समझाने का क्या प्रयोजन था उसका ?–मेरी समझ में नहीं आ रहा था। कुछ भयमिश्रित जिज्ञासा से भर उठा मेरा मन एकबारगी।
आखिर यह है कौन ?–उसका रहस्यमय व्यक्तित्व और गहरा होता चला गया मेरे मन में। असहनीय हो उठी अब नारी गन्ध मेरे लिए। कुछ पल बाद लगा जैसे स्पर्श कर रही है मेरे शरीर को वह श्मशान भैरवी। कैसा था वह मादक स्पर्श और कैसी थी वह विचित्र गन्ध ! कुछ सोचूं..कुछ समझूँ, उससे पहले ही चेतनाशून्य हो गया मैं।
इसके बाद का अनुभव अपने आप में विचित्र और अविश्वसनीय भी था। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो मेरे आध्यात्मिक जीवन का परम संक्रान्ति-काल था वह। मैं एक ऐसे तिमिराच्छन्न रहस्य के भीतर प्रवेश कर गया था जिसका न आदि है और न है अन्त ही।
(5).
निश्चय ही वह अज्ञात और अव्यक्त का था रहस्य–इसमें सन्देह नहीं। उस अवस्था में मैंने देखा–मेरा पार्थिव शरीर कुटिया के बाहर बैठा हुआ है उसी मुद्रा में जिस मुद्रा में चेतनाशून्य हुआ था मैं। अब मैं अपने भाव शरीर में था और उस भाव शरीर में केवल भाव था और वह भाव जिसके द्वारा ज्ञान की उपलब्धि होती है और होता है देवदर्शन। “भावेन लभते ज्ञानम् भावेन देवदर्शनम्।”
बस यही भाव था। न मन था और न तो था विचार, केवल “मैं” था और था मेरा भाव। शरीर का बोध नहीं था। जरा सोचिए–क्या और कैसी स्थिति थी मेरी ? उस अवर्णनीय स्थिति में पहली बार जो भाव उत्पन्न हुआ था, वह यह था–संसार का अर्थ है अशान्ति। जीवन की उत्पत्ति कब हुई और उसकी शान्ति का नाश कब हुआ ?–यह बताना सरल नहीं।
यह कल्पना की जा सकती है कि कदाचित किसी शांत, उदास द्रव्य की शांति की विषमता से जीव की उत्पत्ति हुई और जीव फिर उसी शांति को पाने की बराबर चेष्टा करता रहता है। बाह्य जगत् अर्थात् भौतिक जगत् शांति की स्थापना में बहुत बड़ा बाधक है। जब तक अशांति है, तब तक जीव है और है संसार भी।
जीव और संसार एक दूसरे के पर्याय हैं और हैं एक दूसरे पर आश्रित भी। जब तक शरीर है, तब तक शांति पूर्णतया उपलब्ध नहीं। संसार की सृष्टि ही अशांति के पलों में हुई है। संसार का सीधा अर्थ है–अशांति। शरीर और बाह्य संवेदनाएं संसार पर्यन्त हैं। जब तक शरीर है, तब तक पूर्ण शांति को उपलब्ध् होना संभव नहीं है और यही कारण है कि मनुष्य सदैव असाध्य को साध्य बनाने का प्रयास करता रहता है।
*भाव~राज्य में प्रवेश :*
भावशरीर द्वारा मैंने जिस क्षेत्र में प्रवेश किया वह था भावराज्य। भावना का ही सूक्ष्म प्रवाह था वहां। मैं एक विशेष् प्रकार की दिव्य अनुभूति कर रहा था वहां। उसी अनुभूति के साथ ही साथ मैं इस बात का भी बोध कर रहा था कि भावराज्य अन्यत्र कहीं नहीं, इसी भौतिक जगत् के अंतर्गत ही है।
भौतिक जगत् के निर्माण में जड़ तत्वों और जड़ पदार्थों का योगदान है, इसीलिये भौतिक जगत् को जड़जगत् भी कहते हैं। किन्तु उन तत्वों और पदार्थो में एक सीमा तक ‘चेतना’ का अंश भी विद्यमान है। यदि ऐसा न होता तो पेड़, फल, फूल, लता, गुल्म, अन्न आदि का उद्भव न् होता, विकास न होता और न तो होती गति ही। उसी अल्प चेतना के प्रभाव से मैं अपने अस्तित्व का बोध तो कर ही रहा था, इसके अतिरिक्त भौतिक जगत् का भाव रूप भी स्पष्ट देख रहा था और उनमें निवास करने वाले प्राणियों के भाव रूप को भी।
आश्चर्य की बात तो यह है मनुष्य के पार्थिव शरीर के ठीक विपरीत उसका भाव शरीर है। शरीर तो गोरा है, सुन्दर, आकर्षक व्यक्तित्व है लेकिन उसकी वृत्ति तमोगुणी है। इसलिए उसका भावशरीर काला है, व्यक्तित्व प्रभावहीन है लेकिन वृत्ति सत्वगुणी है। इसलिए उस व्यक्ति का भावशरीर उज्ज्वल है।
न जाने किस प्रेरणा से इधर-उधर भटकने के बाद मैं हरिश्चन्द घाट (वाराणसी) के महाश्मशान की ओर चला गया।
(6).
हरिश्चन्द्र घाट के महाश्मशान पर स्थूल शरीरधारी मनुष्यों की भीड़ तो थी, उससे कहीं अधिक तो भाव शरीरधारी अशरीरी प्राणियों की भीड़ थी। मेरे लिए सर्वाधिक आश्चर्य की बात यह थी कि उन भाव शरीरधारी लोगों की भीड़ में चक्कर काट रही थी श्मशान भैरवी। अचानक उसकी नज़र मेरे ऊपर पड़ी और देखकर खिलखिलाकर हंस पड़ी।
यहां क्या कर रही हो ?–मैंने सहज भाव से पूछा।
जो मरे हुए लोग हैं उनका मार्गदर्शन कराना मेरा कर्तव्य है और उसी कर्तव्य का पालन कर रही हूं मैं।
मैंने सिर हिलाया जैसे उसके कर्तव्य को समझ गया हूँ लेकिन सच पूछा जाय तो समझा-बूझा कुछ नहीं था। वह पहले ही रहस्यमयी थी मेरे लिये।
मेरे साथ चलोगे ?–मेरे निकट आकर बोली धीरे से श्मशान भैरवी।
कहाँ, कहाँ ले चलोगी मुझे तुम ?–पूछना मेरा स्वाभाविक था।
पहले चलो तो ! फिर सब मालूम हो जाएगा–यह कहकर लगभग खींचती हुई ले चली अपने साथ वह कृष्णवर्णा। बलि के बकरे की तरह चल पड़ा मैं उसके पीछे-पीछे। कुछ ही क्षणों बाद भावराज्य की सीमा पर था मैं। बड़ी विलक्षण अनुभूति हुई आत्मा को।
देखा–वहां भाव शरीरधारी उच्चकोटि के तन्त्र साधक, सिद् योगी और सन्त-महात्माओं की मंडलियाँ विद्यमान थीं। सभी अपने आप में लीन, निरपेक्ष और अपने आप में रत थे। श्मशान भैरवी ने बतलाया कि इन मण्डलियों के सभी लोग दिव्य पुरुष हैं। साधना-भूमि, साधना-मार्ग और साधना- लक्ष्य भले ही अलग-अलग हो लेकिन कुछ अवधि तक इस स्थान पर निवास करना सभी के लिए अनिवार्य है।
बाद में कुछ लोग अपनी इच्छा से धरती पर जन्म ले लेते हैं और अंतर्मुखी जीवन व्यतीत करते हुए अपनी साधना में बराबर अग्रसर होते रहते हैं। ऐसे लोगों को पहचानना बहुत कठिन है। वे ही पहचानने में समर्थ होते हैं जो उनके मार्ग के अनुगामी होते हैं या होते हैं परिचित। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भावशरीर को त्यागकर सूक्ष्मशरीर द्वारा सूक्ष्म जगत् में चले जाते हैं और कालान्तर में किसी अन्य लोक-लोकान्तर में प्रवेश कर पाते हैं। जो तंत्र-साधक हैं वे यहां से सीधे यक्षलोक में चले जाते हैं। यदि कभी उनकी इच्छा हुई तो अच्छे साधक के रूप में संसार में जन्म भी ले लिया करते हैं।
थोड़ा रुककर श्मशान भैरवी आगे बोली–चलो मैं तुम्हारा एक ऐसे तन्त्र-साधक से परिचय कराती हूँ जो कुछ काल बाद संसार में मानव शरीर स्वीकार करने वाले हैं।
(7)
*भाव शरीरधारी सिद्ध से साक्षात्कार :*
भैरवी की बात सुनकर अत्यधिक उत्सुक हो उठा मैं। स्थूल शरीर को उपलब्ध होने के लिए सूक्ष्मशरीर आवश्यक है, इसलिए जिस समय मैं उन तन्त्र साधक से मिलने गया तो भावशरीर से अलग होकर सूक्ष्मशरीर ग्रहण करने वाले थे और प्रवेश करने वाले थे उसके द्वारा सूक्ष्म जगत् में। भूलोक को छोड़कर अन्य किसी लोक में शरीर का कोई नाम् नहीं होता।
जागतिक नाम से ही उसे संबोधित किया जाता है। उन तन्त्र- साधक महाशय का नाम था–सन्त पूर्णागिरि। सन्त पूर्णागिरि तीन सौ वर्ष पूर्व काशी के हरिश्चन्द्र घाट के महाश्मशान में तीन वर्ष निवास कर श्मशानकाली को सिद्ध कर उनकी करुणा, दया, अनुकम्पा के सहज पात्र बने थे। श्मशानकाली के साधना-मार्ग के ही अन्तर्गत उन्होंने चिता-साधना, शव-साधना, श्मशान-साधना की थी जो अति आवश्यक है माँ महामाया के चरणों के समीप पहुंचने के लिए।
सन्त पूर्णागिरि अपने भौतिक शरीर में कैसे रहे होंगे, उसकी स्पष्ट झलक दिखलाई दे रही थी उनके भाव शरीर में अभी भी। सन्त पूर्णागिरि के साधना-व्यक्तित्व को देखकर मुग्ध हो उठा मैं एकबारगी। जिस साधना-मार्ग के पथिक थे पूर्णागिरि, उसमें महाभैरवी के रूप में नारी-शक्ति का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। बिना नारी-शक्ति के सहयोग के साधना में सफल नहीं हुआ जा सकता–इसमें सन्देह नहीं।
उन दिनों श्मशान में ही एक कुटिया बनाकर रह रहे थे पूर्णागिरि महाशय। उनकी वह कुटिया ही उनकी साधना- स्थली थी। उन दिनों काशी का हरिश्चन्द्र घाट का महाश्मशान आज के जैसा नहीं था। घाट के आसपास पीपल-पाकड़ आदि के दर्जनों पेड़ थे। अगल-बगल के सभी घाट प्रायः कच्चे थे। एक साथ दर्जनों चिताएँ जलती रहती थीं सदैव।
सन्त पूर्णागिरि महाशय के एक परम शिष्य थे–श्यामलेन्दु शेखर घोषाल। पश्चिम बंगाल के किसी राज परिवार के सदस्य थे महाशय। प्रत्येक दृष्टि से सम्पन्न होना स्वाभाविक था। अवस्था 60 के ऊपर ही थी। स्वभाव से मृदु और कोमल चित्त थे। काशीवास के लिए आये हुए थे अपना पूरा राजपरिवार छोड़-छाड़कर। घोषाल महाशय पूर्ण भक्त थे अपने गुरु के।
सन्त पूर्णागिरि के प्रति पूर्ण समर्पित भाव था उनके हृदय में। उनकी एक पौत्री थी, नाम् था उसका कालिन्दी। 10 वर्ष की आयु से ही रहने लगी थी अपने दादा के साथ काशी में। अपनी पौत्री को बहुत ही मानते थे घोषाल बाबू। पौत्री भी अपने दादा की खूब सेवा करती थी। अब वह किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकी थी। रंग तो सांवला था लेकिन सौन्दर्य का अभाव नहीं था उस किशोरी में। यौवन से प्रस्फुटित मादकता की भीनी-भीनी गन्ध बिखरने लगी थी अब उसके सौन्दर्य में।
पहले तो स्वयम् घोषाल बाबू ही भोजन लेकर जाते थे सन्त पूर्णागिर महाशय को। जब तक बाबा भोजन नहीं कर लेते, तब तक उनके तेजोमय मुखमण्डल की ओर देखती रहती टुकुर-टुकुर कालिन्दी। कौन-सी जिज्ञासा थी और कौन-सा कौतूहल था उसके अन्तराल में जिसका समाधान चाहती थी वह कालिन्दी–यह समझ के परे था।
(8)
*श्मशान भैरवी की गाथा :*
अमावस्या की काली रात, श्मशान में चारों ओर बिखरी हुई गहन निस्तब्धता, श्मशान के मरियल कुत्तों का परस्पर झगड़ना और हवा में तैरती हुई सियारों की समवेत स्वर में रोने की आवाज। कुछ देर पहले दो-तीन चिताएँ जलकर राख में बदल चुकी थीं।
स्याह आकाश में शुक्र तारा झिलमिला रहा था। अभी भोर होने में काफी देर थी। सन्त पूर्णागिरि अपनी कुटिया के तख्त पर बैठे हुए महामाया के ध्यान में मग्न थे। अचानक निस्तब्ध वातावरण को वेधती हुई पायल की मधुर रुनझुन की आवाज गूंज उठी। कौन थी वह ? किसके पायल की थी वह रुनझुन की मधुर ध्वनि ?
ध्यान में बाधा हुई। अंधेरे में ही उन्होंने आंख खोलकर चारों तरफ देखा–कुटिया के बाहर खड़ी कालिन्दी मुस्करा रही थी। उस समय उसके चेहरे पर अलौकिक तेज था। उसके बाल खुलकर पीठ पर बिखरे हुए थे सावन-भादों की घटा की तरह।
कैसे आना हुआ, कालिन्दी ! तुम्हारा इस निविड़ बेला में ?–सन्त पूर्णागिरि अचकचाकर बोले। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि इतनी रात गए श्मशान में आ सकती है कालिन्दी।
भीतर आ गयी कुटिया में कालिन्दी। भीतर अब तक जल रही लैम्प की पीली रोशनी में दप-दप करते कालिन्दी के चेहरे को देखकर असहज हो उठे सन्त पूर्णागिरि। कालिन्दी के इस अप्रतिम रूप को देखने की कल्पना नहीं थी उस महा तन्त्र-साधक को। निश्चय ही उन्होंने इसे माँ महामाया की कोई लीला समझी लेकिन कोई लीला नहीं थी वह। जो कुछ था, पूर्ण सत्य था और जिसका सम्बन्ध था अतीत की गहराइयों से। दूसरे ही क्षण वास्तविकता को समझ गए सन्त पूर्णागिरि।
20-25 वर्ष पूर्व नैहाटी बंगाल का महाश्मशान तान्त्रिक साधना स्थली थी सन्त पूर्णागिरि की और उस समय उनकी भौरवी थी काकुली। लगता था बंगाल का सारा सौन्दर्य समेट कर जन्म लिया हो नारी काया में काकुली ने। 10 वर्ष की आयु से उस महान् साधक की साधना में बराबर सहयोग दे रही थी काकुली लेकिन अन्त में जो होना था, वही हुआ। भारी विघ्न पड़ गया तान्त्रिक क्रियाओं में।
भैरवी साधना के अंतिम चरण में भैरव का आवाहन किया जाता है। वह महान् श्मशान पुरुष प्रत्यक्ष तो प्रकट होता नहीं लेकिन अपना महाभोग ग्रहण करने के लिए किसी मांसखोर पशु के रूप में आता जरूर है साधक के सामने।
साधक ने रख दिया श्मशान में महाभोग–मांस, मदिरा, खीर, पूड़ी और चावल एक पात्र में। समय बीता, प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हुई, लेकिन न श्मशान भैरव प्रकट हुए और न उनका कोई प्रतिनिधि ही। थोड़ा व्याकुल हो उठे सन्त पूर्णागिरि महाशय क्योंकि उन्होंने देखा कि महाभोग अपने स्थान पर नहीं था। उस महाभोग को एक धूर्त प्रेत ने गायब कर दिया था। परिणाम जो सामने आने वाला था, वह आया। साधना के बोझ को संभाल न सकी काकुली और शरीर त्याग दिया उसने। हाहाकार कर उठा महातंत्र -साधक लेकिन विवश था भला कर ही क्या सकता था वह !
कालान्तर में काकुली ने जन्म लिया कालिन्दी के रूप में। यह महामाया की लीला ही समझी जाएगी न। आश्चर्य की बात तो यह थी स्वयं इस रहस्य से परिचित थे सन्त पूर्णागिरि।
बाबा ! आपको अपनी साधना पूर्ण कर लेनी चाहिए। कालिन्दी का स्वर कोमल, गम्भीर और आदेश भरा था। सन्त पूर्णागिरि की जैसे तन्द्रा भँग हुई। धीमे स्वर में बोले वह–हां माँ ! पूर्ण तो करना ही होगा। भैरवी दीक्षा तो अब देनी नहीं थी, पिछले जन्म में ही दी जा चुकी थी काकुली के रूप में।
शेष अंतिम कार्य जो गोपनीय था, उसे ही संपादित करना था महासाधक को। उसके लिए आगामी महानिशा बेला का समय निश्चित किया गया।
श्यामलेन्दु शेखर घोषाल को इस रहस्य का बिलकुल ज्ञान न था। कालिन्दी को वह अपने पौत्र की पुत्री जानते थे और सन्त पूर्णागिर को समझते थे अपना परम गुरु। इसके अलावा और कुछ नहीं।
(9).
*दीपावली की रहस्यमयी कालरात्रि :*’
उसी दिन से गम्भीर रहने लगे सन्त पूर्णागिरि। गंभीरता का क्या कारण था ?–यह वही समझ सकते थे। शायद वह यह सोच रहे हों कि कैसे अपने पिछले जन्म का हो आया स्मरण कालिंदी को ? यह एक प्रबल आध्य्यात्मिक रहस्य था।
निश्चय ही कालिंदी के अंतःकरण में काकुली का साधना-संस्कार जागृत हो उठा था–इसमें संदेह नहीं। दीपावली को अभी दो महीने शेष थे लेकिन धीरे-धीरे कालिंदी में शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होने लगे थे अभी से। 16 वर्ष की आयु में ही पूर्ण नवयौवना दिखलाई पड़ती थी वह। हमेशा लाल आँखें रहती थी उसकी।
मस्तक पर पसीने की बूंदें मोती की तरह झिलमिलाती रहती और हमेशा लम्बे घने काले बाल पीठ पर बिखरे रहते सावन-भादौं की काली घटा की तरह। गंभीरता का भाव रहता सदैव चेहरे पर। आँखें भी अधमुँदी रहती। कहने की आवश्यकता नहीं, कुल मिलाकर परिवर्तित हो चुका था उसका सारा व्यक्तित्व, उसके महाभैरवी के रूप में–कहीं कोई कमी नहीं थी। कभी-कभी कालिंदी को गम्भीर दृष्टि से देख लेते सन्त पूर्णागिरि।
अन्त में दीपावली आ ही गयी। अमावस्या की महानिशा बेला लम्बे-चौड़े सुनसान महाश्मशान में कुछ चिताएं जल रही थीं और कुछ जल कर बुझ चुकी थीं। वातावरण में घोर निस्तब्धता बिखरी हुई थी। उस समय कुटिया में सन्त पूर्णागिरि थे और थी कालिंदी।
तान्त्रिक विधि से महाभैरवी के रूप में पूजन किया गया था कालिंदी के अंग-प्रत्यंग का। कालिंदी का मुख मण्डल दिव्य स्वर्णिम आभा से दप-दप करने लगा। झील जैसी जैसी गहरी आंखों में करुणा, कृपा, अनुकम्पा आदि के मिले-जुले भाव भर गए एकाएक। सामने एक छोटा-सा हवन-कुण्ड था जिससे सुगंधित धुंआ निकल कर कुटिया में फैल रहा था चारों ओर। हवन-कुण्ड के बगल में महाप्रेत के रूप में नर-मुण्ड स्थापित था जिसके ऊपर घी का दीप जल रहा था।
वैसा ही एक नर-मुण्ड दूसरी ओर भी रखा था जो श्मशान भैरव का प्रतीक था। उस पर लाल सिन्दूर का लम्बा टीका लगा था और लाल पुष्प की माला पड़ी थी। दोनों नर-मुंडों के सामने मदिरा और मांस का भोग रखा था जिसके बगल में जल रही थी अगरबत्ती और जल रहा था घी का दीपक भी एक ओर।
पूरा वातावरण आध्य्यात्मिक होते हुए भी भयप्रद था। लगता था कभी भी कोई अघटित घट सकता है रहस्यमय वातावरण में। हवन-कुण्ड के एक ओर बैठी थी कालिंदी पद्मासन की मुद्रा में अर्धसमाधिस्थ और दूसरी ओर बैठे थे महातंत्र-साधक सन्त पूर्णागिरि महाशय। उनके नेत्र बन्द थे। किसी अलौकिक तेज से रक्ताभ हो उठा था उनका मुखमण्डल उस समय।
उनकी उंगलियों में फंसी माला तेजी से घूम रही थी। कभी-कभी रोमांचित हो उठता था उनका शरीर फिर हल्के से कांप भी उठता था अपने आप में। कालिंदी की भी लगभग यही स्थिति थी। रह-रह कर् नीचे-से ऊपर तक उसका शरीर पहले रोमांचित होता फिर हिल उठता था एकाएक। गले में पड़ी जवा-पुष्प की माला, चौड़े मस्तक पर लाल सिंदूर का गोल टीका, पीठ पर बिखरे काले घने बाल, शरीर पर लाल रंग की रेशमी साड़ी किसी अज्ञात शक्ति की छाया से प्रभावित रक्ताभ मुखमण्डल–साक्षात माँ महामाया का प्रतिरूप लग रही थी उस समय कालिंदी।
(10).
श्मशान काली की सिद्धि एक प्रकार से तामसिक तन्त्र- साधना-भूमि की अंतिम सिद्धि थी। इस सिद्धि से ‘माया’ का तिरोधान हो जाता है और साधक ‘महामाया’ के राज्य में प्रवेश करता है। भाव राज्य ही महामाया का राज्य है।
वहां महामाया की करुणा, अनुकम्पा उपलब्ध होती है साधक को और होता है उपलब्ध उसे मातृ-स्नेह भी। माँ की करुणा के अगाध सागर में मग्न रहता है वह। तन्त्र में इसी अवस्था को #’मातृअंक’ कहते हैं–मातृअंक यानी माँ की गोद, परम शांति और परम करुणा का सागर भरा रहता है गोद में। कौन भला त्याग करेगा ऐसी स्नेहमयी गोद को ?
साधक का मंत्र-जप चल रहा था। कुछ क्षण बाद मौन और गंभीर भाव से अपना दाहिना हाथ बढ़ाकर मदिरा पात्र कालिन्दी के होठों से लगाया उन्होंने। ‘गट-गट’ कर पूरी मदिरा पी गयी कालिन्दी। गूलर की तरह लाल हो रही थी उसकी बड़ी-बड़ी आँखें। मदिरा पी लेने के बाद उसने स्थिर लेकिन तीक्ष्ण दृष्टि से देखा हवन-कुंड के सामने बैठे सन्त पूर्णागिरि को।
उस रहस्यमयी दृष्टि में क्या था ? क्या कोई जान सकेगा ? क्या कोई समझ सकेगा ? नहीं, कोई नहीं।
दूसरे ही क्षण उसी रहस्यमयी दृष्टि से बाल से भी पतली नीले रंग की एक प्रकाश-रेखा धीरे-धीरे साधक की ओर चल पड़ी और फिर अन्त में समा गई साधक के चौड़े ललाट पटल में।
श्मशान में घोर निस्तब्धता छायी हुई थी। कभी-कदा गंगा पार से सियारों के सामूहिक स्वर में रोने की आवाज़ उस श्मशान की नीरवता को भँग कर देती थी। एकाएक श्मशान की सुप्त प्रेतात्माएं जाग उठीं एकबारगी और नर-कंकाल के रूप में कुटिया के चारों ओर से घेर लिया।
वे सभी नर-कंकाल एक दूसरे से टकरा रहे थे, एक दूसरे पर गिर रहे थे, फिर उठ रहे थे बारी बारी से। फिर थोड़ी ही देर में वे ताली पी-पीट कर नृत्य करने लग गए। कभी-कभी जोर- जोर से रोने-चीखने लगते थे और करने लगते थे विलाप।
अब तक श्मशान का वातावरण अति भयंकर हो चुका था। कब कौन-सी चमत्कारिक और अप्रिय घटना घटने वाली थी कहा नहीं जा सकता था। पर कुछ ही पलों में नर-कंकालों का सामूहिक नृत्य समाप्त हुआ और सभी श्मशान में न जाने किधर समा गए। अब उनका स्थान ले लिया श्मशान पिशाचिनीयों ने। बड़ा ही वीभत्स और डरावना था उनका रूप-रंग और लम्बा कद, शरीर क्या थे हड्डियों के ढांचा मात्र थे।
उनके जटा-जूट से बाल हवा में लहरा रहे थे। सबका रंग काला था। आंखें हद से ज्यादा बड़ी और डरावनी थीं। नीचे का जबड़ा लटका हुआ था और पीले- पीले दांत बाहर निकल रहे थे। अब उनका भी नृत्य शुरू हो चुका था।
(11).
अब तक उनका भी नृत्य शुरू हो गया था। मन में भय का संचार कर देने वाली भाषा में प्रलाप भरे स्वर में न जाने क्या-क्या गाकर अपने स्थान पर झूम रही थीं। बड़ा ही भयावह और डरावना दृश्य था वह–इसमें संदेह नहीं।
लेकिन इन सबसे बेफिक्र और निश्चिंत अपने कमरे में चटाई पर सोए थे श्यामलेन्दु शेखर घोषाल। वे भला क्या जानते थे कि दीपावली की अंधेरी काली रात में कोई भयंकर तांत्रिक लीला हो रही है और लीला के पात्र हैं स्वयं उनकी पौत्री और स्वयं उनके परम् गुरु। एकाएक चिंहुँक कर उठ बैठे घोषाल महाशय।
आंखें मली, फिर सिर चारों ओर घुमा कर देखा–कमरे में अंधेरा था, साफ कुछ नहीं दिखलायी दिया उन्हें। अंधेरे में टटोलते कालिंदी की खाट के पास पहुंचे। खाट खाली थी। यह क्या ? आधी रात के समय कहाँ गयी कालिंदी ? क्या गुरुदेव की कुटिया के पास से लौटी नहीं अभी तक ? गंजी लुंगी पहने थे। उसी अवस्था में श्मशान की ओर चल पड़े किसी प्रकार अपने को संभालते हुए।
भोर होने ही वाली थी। कुटिया के सामने चार-पांच लोग खड़े थे। शायद वे डॉम थे श्मशान के। बारी-बारी से झांक लेते थे कुटिया के भीतर लेकिन भीतर जाने की हिम्मत कोई जुटा नहीं पा रहा था। लोगों को ढकेलते हुए तीर की तरह घुस गए कुटिया के भीतर घोषाल महाशय।
स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़-से हो गए वह। कालिंदी का कहीं कोई अस्तित्व नहीं था लेकिन सन्त पूर्णागिरि अवश्य बैठे हुए थे अपने स्थान पर पाषाणवत। माला अपने स्थान पर स्थिर थी और उसमें फंसी उंगली लकड़ी की तरह डेढ़ी हो चुकी थी। उनका मस्तक बीच से टूटकर अलग हो गया था और उसमें से थोड़ा-सा खून निकल कर कन्धे पर बिखर गया था। कपाल का भेदन कर उनकी आत्मा शरीर से बाहर निकल चुकी थी अंतहीन यात्रा पर।
भाव व्यहवल हो उठे घोषाल महाशय गुरुदेव की महाप्रयाण की अवस्था देखकर। रहा न गया उनसे। चरणों में गिर पड़े। लगे फफक-फफक कर रोने महाशय। उपस्थित लोगों की आंखें भी छलछला आयीं।
कालिंदी का कहीं कोई अता-पता नहीं था। खूब खोजा गया चारों तरह। गंगा में भी जाल डालकर देखा गया।लेकिन उस तरुणी को नहीं मिलना, नहीं मिली वह। लोग थक-हारकर बैठ गए अन्त में। बिल्कुल पागलों जैसी मानसिक स्थिति हो गयी घोषाल महाशय की। कभी-कभी हाँ… कालिंदी… हाँ…गुरुदेव… हाँ… कहकर जोर से चीख उठते थे और फिर हिलक-हिलक कर रोने लगते थे वह।
खाना-पीना तो छूट ही गया था और अंत में खटिया थाम ली महाशय ने।
लगभग एक मास बाद उनके छोटे भाई मेदिनीपुर से आये। नाम था रमानाथ घोषाल। बड़े भाई की कारुणिक स्थिति देखकर रहा न गया उनसे। काफी समझाया-बुझाया उन्होंने श्यामलेन्दु शेखर को। तब कहीं जाकर शान्ति मिली थोड़ी उनकी दुःखी आत्मा को। और फिर एक दिन मकान बेचकर अपने भाई को साथ लिया और वापस चले गए मेदिनीपुर। लेकिन जाने से पहले कालिंदी को मृत समझकर उसका श्राद्धादि द्वारा उद्धार कर दिया था।
उसके पूर्व श्यामलेन्दु शेखर महाशय ने गंगा-लाभ करा दिया अपने गुरुदेव को अर्थात गुरुदेव का पार्थिव शरीर गंगा में विसर्जन कर दिया।
(12).
धीरे-धीरे चार साल का समय बीत गया। मई-जून का माह था। दोपहर का समय था। श्मशान में सन्नाटा पसरा था। डोम चौधरी हीरामन अपनी कच्ची झोपड़ी में बैठा हुक्का गुड़गुडा रहा था। उसी समय एक भिखारिन न जाने कहाँ से आकर श्मशान में टहलने लग गयी। आयु यही रही होगी 25-30 के बीच। कभी वह एक आकर्षक युवती रही होगी लेकिन उस समय उसका चेहरा कुरूप लग रहा था। सिर के बाल जटाजूट से हो गए थे। पूरे शरीर पर मैल जमा था। शायद नहाना ही भूल गयी थी वह। मटमैले शरीर पर एक मैली-कुचैली साड़ी थी जो चीथड़े-चीथड़े हो रही थी।
युवती की भाव-भंगिमा असहज और अस्वाभाविक- सी थी। उसे देखकर दया भी उपजती थी और घृणा भी। लगभग 3-4 महीने लगातार चक्कर काटती रही वह अज्ञात रहस्यमयी भिखारिन। रात में कहां रहती थी और क्या करती थी–किसे मालूम था ?
उसे बच्चे चिढ़ाते, “पगली-पगली” कहकर छेड़ते, कुत्ते भी उसके पीछे भौंकते। लेकिन वह इन सबसे अनभिज्ञ अपने आप में खोई- खोई-सी रहती। कभी-कभी सिर उठाकर शून्य में ताक लेती या श्मशान की जलती चिताओं को निहारती रहती।
एक दिन भोर के समय लोगों ने देखा–श्मशान से थोड़ा हटकर औंधेमुंह एक औरत की लाश पड़ी थी जिसका आधा हिस्सा गंगा के पानी में था। वह लाश और किसी की नहीं उसी भिखारिन की थी। कौन थी वह भिखारिन ? कहाँ से आई थी वह ? क्यों श्मशान में इधर-उधर घूमती थी पागलों की तरह ? किसके पास उत्तर था इन प्रश्नों का ? डोम चौधरी ने एक बजनी पत्थर भिखारिन की लाश में बंधवाकर गंगा की बीच धारा में डलवा दिया। क्योंकि यह उसका कर्तव्य था।
हीरामन चौधरी भला क्या जानते थे वह भिखारिन और कोई नहीं, तीन-चार साल से लापता कालिन्दी ही थी और यह भी भला वह क्या जानते थे कि तान्त्रिक साधना-भूमि में प्रचंड मंत्रशक्ति के प्रभाव को सहन न कर सकने के कारण कालिन्दी अपनी मानसिक शक्ति का संतुलन खो बैठी थी और उसी अर्ध विक्षिप्त अवस्था में न जाने कैसे पहुंच गई थी वह तारापीठ और सन्त पूर्णागिरि महाशय उसी का आश्रय लेकर उपलब्ध हो गए थे भावराज्य को।
सन्त पूर्णागिरि अपनी शिष्या रूपा महाभैरवी को भूले नहीं थे। भूलते भी कैसे ? उसी के सहयोग से तन्त्र की विकट साधना में सिद्धिलाभ किया था उन्होंने। इसी कारण शरीर छूटते समय कालिन्दी के पास आये थे वह और अपने साथ ले गए भावराज्य में उसे।
*वह रहस्यमयी सन्यासिन :*
जब मेरी चेतना भावराज्य से वापस लौटी, उस समय सवेरा होने वाला था। अभी भी मेरे मानस-पटल पर सन्त पूर्णागिरि और कालिन्दी की कथा अंकित थी। मैं आश्चर्यचकित था और हतप्रभ भी। अब तक इस क्षेत्र में जो कुछ उपलब्ध हुआ था और जो कुछ हुआ था अनुभव–वह सब आध्यात्मिक जगत् का एक परम सत्य था जिसके भीतर योग-तन्त्र- साधना का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ था और जिसको जानने-समझने की दिशा में और अधिक व्यग्र हो उठा मैं।
क्या बतलाऊँ मैं आपको ? मेरी आंतरिक स्थिति अपने आप में दयनीय हो रही थी उस समय। मैं अपने शरीर में रहते हुए भी नहीं था। इस संसार मे रहते हुए इससे अलग था। संसार-समाज-परिवार में यदि रहना है तो उनके नियमों के अनुसार चलना पड़ेगा, उनके सिद्धांतों को मानना पड़ेगा, लेकिन मुझ से ठीक से उनका पालन नहीं हो पा रहा था।
सचमुच मेरे जीवन का संक्रांति काल था वह। मैं न इधर का था और न उधर का। उसी विकट अवस्था में आकृष्ट हुआ मैं पहली बार हिमालय की ओर। अब तक मेरी विद्युत चुम्बकीय मानसिक ऊर्जा तरंगों ने काफी उन्नति कर ली थी जिसके फलस्वरूप मुझे स्वयम् ही ज्ञात हो जाता था कि कौन महात्मा, कौन सन्त, कौन योगी और कौन सिद्ध साधक कहाँ है और किस स्थिति में है ? यह महान् उपलब्धि थी मेरे लिए।
एक दिन न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर चल पड़ा मैं ऋषिकेश के लिए। वहां के आध्यात्मिक वातावरण ने मोह लिया मेरी आत्मा को एकबारगी। हिमालय के उत्तुंग हिमाच्छादित शिखरों का स्पर्श करते हुए बादलों के झुंड, कल-कल निनाद करती हई गंगा की धवल धारा और वहां का शांत वातावरण–लीन हो गया मैं जैसे उनमें और तभी मेरी दृष्टि पड़ी स्नान करने के बाद सीढियाँ चढ़कर ऊपर आती हुई एक नवयुवती पर।
(13).
बहुत ही सुन्दर युवती थी–इसमें सन्देह नहीं। लालिमा लिए गोरा वर्ण, शरीर पर लिपटा हुआ गैरिक वस्त्र। बाल खुलकर बिखरे हुए थे पीठ पर, मस्तक पर सफेद चन्दन का गोल टीका लगा था। निश्चय ही कोई सन्यासिनी थी वह युवती। लेकिन इतनी कम आयु में सन्यास ?–समझ न सका मैं।
इतना अगाध सौन्दर्य क्यों और कैसे चढ़ गया सन्यास की बलि-वेदी पर ? अभिभूत हो उठा मैं एकबारगी। न जाने क्यों अपलक निहारने लगा मैं उसके साधना के तेज से दप-दप करते चेहरे की ओर। उसने भी मेरी ओर देखा एक बार स्थिर दृष्टि से और फिर मुस्करा दी धीरे से।
अब वह सन्यासिनी निकट आ चुकी थी मेरे। आखिर रहा न गया मुझसे। पूछ ही बैठा–कौन हैं आप ?
एक भटकती हुई सन्यासिनी। गुरु का दिया हुआ नाम् है कपिला आनन्द।
तुम कौन हो ?
मैं आपकी तरह सन्यासी नहीं हूं और न तो मेरा कोई गुरु ही है। बस, समझिए अध्यात्म के मार्ग पर भटकने वाला एक अति क्षुद्र प्राणी हूँ मैं।
मेरी बात सुनकर आकाश की ओर शून्य में देखने लगी सिर उठाकर कपिला आनन्द। फिर एक लम्बी सांस ली और धीमे स्वर में कहा उसने–सब संयोग है। दो भटकती हुई आत्माओं को नियति कब, कैसे और किस रूप में मिला देती है आश्चर्यजनक रूप से–कहा नहीं जा सकता।
उस सन्यासिनी का एक-एक शब्द रहस्य में डूबा हुआ लगा मुझे। समझ में नहीं आया कुछ। उस समय मुझे आश्चर्य हुआ जब उस रहस्यमयी सन्यासिनी ने कहा–तुम मुझे नहीं जानते लेकिन मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूं।
मैंने पूछा–कैसे ?
जब मेरी कथा सुनोगे तुम।
कैसी कथा ?
अत्यन्त मर्मस्पर्शी, पीड़ादायिनी और हृदयविदारक।–इतना कहकर एक लम्बी सांस ली सन्यासिनी ने।
*सन्यासिन की आत्मकथा :*
रात की स्याह कालिमा बिखर चुकी थी ऋषिकेश के शीतल और प्रकृति के सुगन्ध से भरपूर वातावरण में। थोड़ी ही देर बाद लक्ष्मण झूला के पीछे बादलों की ओट से शुक्लपक्ष का तृतीया का चांद झांकने लगा आकाश में। तीव्र गति से बहती हुई गंगा की धारा का कल-कल निनाद और पहाड़ी वृक्षों से टकराकर बहने वाली हवा का शोर बस यही सुनाई दे रहा था वहाँ।
सचमुच मेरी कथा सुनने की लालसा है ?–गंगा किनारे एक बड़े से पत्थर पर बैठती हुई बोली वह सन्यासिनी।
हाँ, सिर हिलाकर उत्तर दिया मैंने।
मेरी कथा लगभग 300 वर्ष पूर्व सत्रहवीं शताब्दी से संबंधित है।
चौंक पड़ा मैं एकबारगी–
सत्रहवीं शताब्दी !
हां, बन्धु ! सत्रहवीं शताब्दी।
(14).
उत्तर प्रदेश का एक छोटा-सा कस्बा बाँदा (अब जिला), वहां एक नदी है ‘केन’ और उसी नदी के तट पर स्थित था एक क़िला जिसका नाम था–‘भूरागढ़ का क़िला’।
आज वह क़िला खण्डहर में बदल चुका है लेकिन उस समय उसका कोई जवाब नहीं था। दिन में वह क़िला सोने की तरह दमकता है और रात को चमकता चांदी की तरह चांदनी में। स्याह रात में जब क़िले की परछाई केन नदी के पानी में पड़ती तो अजीब-सा लगता और देखने वालों को रोमांच हो जाता।
यह क़िला अजयगढ़ (बुंदेलखंड) के राजा गुमान सिंह का था लेकिन उन्होंने अपने मित्र रिपुदमन सिंह को दे दिया था। उस समय रिपुदमन सिंह भूरागढ़ किले के किलेदार थे। बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व था रिपुदमन सिंह का। संसार की जितनी अच्छाइयां हैं, सभी उनमें थीं। वे भगवान् शंकर के परम भक्त और ब्राह्मणों के सेवक थे।
उस दिन किले के तोपखाने में शहनाई बज रही थी। पूरे किले को दुल्हन की तरह सजाया गया था। राजा रिपुदमन सिंह ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे। उनको कन्यारत्न की प्राप्ति हुई थी।
महारानी की गोद विवाह के लगभग बीस वर्ष बाद भरी थी। सन्तान प्राप्ति के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं किया था ? व्रत, पूजा-उपासना-तीर्थ सभी तो किये थे उन्होंने। सुन्दर-सी कन्या पाकर भाव विभोर थे वे उस समय। बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ था।
उसी समय भूरागढ़ का प्रसिद्ध नट बहादुर ढोल पर बधाई गीत गाता हुआ किले के फाटक पर आया। वह नट अपनी नटविद्या में पारंगत था। इस कारण उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी।
मोटे रस्से को हवा में उछाल कर उसे बांस की तरह खड़ा कर और उस पर आराम से चढ़ जाना और फिर कूद जाना, कूदते ही मुंह से खून फैंककर मर जाना और मरने के कुछ पल बाद हंसते हुए उठ जाना। सैकड़ों लोगों की भीड़ में देखते- देखते गायब हो जाना और दूसरी जगह प्रकट हो जाना। इन सबके अलावा मनचाहे फलों और फूलों के मैदान और बाग़-बगीचा की सृष्टि कर देना उसके लिए साधारण-सी बात थी।
एक बार भूरागढ़ में सूखा पड़ गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची थी। सूर्य के प्रचंड ताप से पशु, पक्षी और आदमी मर रहे थे। ऐसी भीषण स्थिति में उस बहादुर नट ने जो अलौकिक कारनामा कर दिखाया, उससे लोग सन्न रह गये एकबारगी। महाराज रिपुदमन सिंह ने भावावेश में उसे गले लगा लिया और अपने गले से कीमती हार उतार कर उसे पहना दिया। क्या था वह चमत्कार ?
बहादुर नट किले के सामने हाथ जोड़कर स्थिर भाव से कुछ देर आकाश की ओर देखता रहा और मन-ही- मन कुछ बुदबुदाता रहा। थोड़ी ही देर में देखते-ही- देखते आसमान में काले-भूरे बादल घिरने लगे और कुछ ही पलों में हाहाकार करती हुई पछुआ हवा के लय के साथ होने लगी बारिश। लगातार चार दिन, चार रात हुई बारिश।
महाराज रिपुदमन सिंह बहुत सम्मान करते थे बहादुर नट का। किले में प्रवेश करने के लिए उसे किसी की अनुमति नहीं लेनी पड़ती थी। जब चाहे, जिस समय चाहे किले के भीतर आ-जा सकता था और महाराज से मिल भी सकता था वह। उस दिन भी महाराज की जय-जयकार करता हुआ उनके समक्ष आ खड़ा हुआ वह रहस्यमय नट।
उसे देखकर मन्द-मन्द मुस्कराए महाराज औऱ फिर बोले–बहादुर ! तुम्हें यहां नहीं, दरबार में इनाम दूंगा।
मुझे इनाम मिल गया महाराज–बहादुर ने हाथ जोड़कर कहा।
पर मैंने तो कोई इनाम नहीं दिया–महाराज ने हंसते हुए कहा।
सरकार मैं पिता बन गया। थोड़ी देर पहले मेरी पत्नी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। आपकी सेवा का इनाम भगवान् ने मुझे पुत्र रत्न के रूप में दिया। इतना कहकर बहादुर नट और ज़ोर से ढोल बजाने लगा।
(15).
प्रातःकाल का समय था। दरबार लग चुका था। सभासद अपने-अपने स्थान पर बैठ चुके थे। कुछ ही देर में महाराज रिपुदमन सिंह भी आ गए दरबार में और अपने स्वर्ण जड़ित सिंहासन पर विराजमान हो गए। जय-जयकार के बाद एक-एक कर दान प्राप्त करने वाले बुलाये जाने लगे।
ऐसे अवसर पर महाराज गुमान सिंह भी उपस्थित थे। उनके आदेश का पालन करते हुए महाराज रिपुदमन सिंह लोगों को दान देने लगे। इस बीच दान लेने वालों में बहादुर नट भी आ गया। जैसे ही महाराज ने आभूषणों की टोकरी बहादुर नट की झोली में डाली, वह बोल उठा–महाराज ! मुझे आपकी बेटी की उतरन चाहिए।
महाराज रिपुदमन सिंह मुस्कराते हुए बोले–बहादुर ! मुझे तुम्हारे प्रति प्रेम और अपनत्व है। तुम नटविद्या के सिद्धहस्त कलाकार हो। तुम्हारा और मेरा विवाह एक ही दिन और एक ही मुहूर्त में हुआ है और प्रारब्ध देखो कि आज 20 वर्ष बाद हम दोनों पिता भी साथ-साथ बने हैं।
इतना कहकर महाराज रिपुदमन सिंह अपने स्थान से उठे और अपनी पत्नी के शयनकक्ष में गए और माँ की गोद में सो रही बेटी की गर्दन में पड़ी रत्नजड़ित माला उतारने के लिए अपनी पत्नी से कहा। माला लेकर महाराज दरबार में आये और उसे बहादुर को दे दिया। बहादुर नट खुशी से झूम उठा एकबारगी।
उस दिन दशहरा का पर्व था। परम्परा के अनुसार सायंकाल शास्त्र-पूजन का कार्यक्रम था। हथियारों की सफाई का काम सुबह से ही चल रहा था। महाराज की उपस्थिति में उसी समय राज पण्डित आचार्य शिवदत्त आ गए। महाराज अपने स्थान से उठकर उन्हें सम्मान सहित बैठाया।
वार्तालाप के प्रसंग में आचार्य शिवदत्त बोले–आज शुभ पर्व है। कन्या का नामकरण संस्कार आज ही होना चाहिए।–यह सुनकर महाराज गदगद हो उठे। उन्होंने तत्काल अपने मंत्री दाऊदा को आदेश दिया कि नामकरण संस्कार की तैयारी कराई जाय। किले में खबर कर दी गयी कि शस्त्र-पूजन के बाद किलेदार की पुत्री का नामकरण संस्कार होगा।
बड़ी धूमधाम से नामकरण संस्कार सम्पन्न हुआ। नाम् रखा गया ‘सोनालिका’। उसी अवसर पर बहादुर नट अपने पुत्र को गोद में लेकर वहां आ गया और उसे महाराज के चरणों में रख दिया औऱ फिर बोला–महाराज ! अपने पुत्र का नाम मैं आपसे लेने आया हूँ।
(16).
महाराज ने सामने रखी अशर्फियों से भरी चांदी की थाली से एक अशर्फी निकाल कर शिशु की हथेली पर रख दी और जब शिशु पर नज़र डाली तो चौंक पड़े वह एकबारगी। इतना सुंदर बालक अपने जीवन में कभी नहीं देखा था उन्होंने। काफी देर तक निहारते रहे वह कामदेव जैसे बालक को।
फिर बोले–तेरा बेटा तो सचमुच ही विरला है अपने आप में। इसका नाम ‘विरला’ ही रखो।
विरला धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। पिता ने उसे नटविद्या से संबंधित सभी तान्त्रिक क्रियाएं सिखाना आरम्भ कर दीं। जो तान्त्रिक विद्याएँ बहादुर नहीं जानता था, उन्हें प्राप्त कराने के लिए भी उसने विरला को पन्ना, रीवा, झांसी और महोवा के सिद्धहस्त तांत्रिकों के पास भेज दिया।
18 वर्ष की आयु में नटविद्या के अलावा तन्त्र-मन्त्र से सम्बंधित अन्य रहस्यमयी विद्याओं में पूर्णरूप से पारंगत हो गया विरला। दूर-दूर तक उसकी प्रसिद्धि फैल गयी। ऊंची कद-काठी, गोरा रंग, रसीली आंखें, घुंघराले घने काले बाल, उन्नत ललाट। उस सुंदर और सुदर्शन युवक पर जिस किसी की दृष्टि पड़ती, वह बरबस आकर्षित हो जाता।
युवतियां उसे देखकर पागल हो जाती थीं। सचमुच राज कुमार-सा लगता था विरला।
अब तक सोनालिका भी 20 वर्ष की युवती हो चुकी थी। गोरा रंग, गुलाबी होंठ, लम्बी नुकीली नाक, सफेद दंत पंक्तियां, झील जैसी गहरी नीली स्वप्निल आंखें और यौवन से भरपूर सुगठित देहयष्टि।
लगता था कि देवकन्या भटक कर आ गयी हो धरती पर। उच्च शिक्षा के अतिरिक्त स्त्रियोचित आचार-विचार की शिक्षा का भी प्रबंध किया था सोनालिका के लिए महाराज ने। वे अच्छी तरह जानते थे कि उनकी बेटी के समान कोई विदुषी और सुंदर युवती नहीं थी उस समय। क़भी कभी वे उसके लिए सुयोग्य और सुंदर वर के लिए भी चिन्तित हो उठते थे।
एक बार ग्वालियर स्टेट के राज ज्योतिषी ने सोनालिका की हस्तरेखाएँ देखकर भविष्यवाणी की थी कि उसका विवाह होगा ही नहीं, वह तो उच्चकोटि की सन्यासिनी होगी। महाराज की चिन्ता का एक यह भी विषय था। वे जानते थे कि ग्वालियर स्टेट के राज ज्योतिषी की भविष्यवाणी कभी भी झूठी नहीं हो सकती।
किले को छूती हुई केन नदी की धवल धारा चांदनी रात में मोतीमहल की छत से बहुत सुंदर दिखती थी। छत पर खड़े होकर घंटों निहारती रहती नदी के सौंदर्य को सोनालिका। नदी की धारा में डोलती हुई नौकाएं उसके मन को मोह लेतीं।
शायद इसी कारण नौका चलाने की कला सीखने की इच्छा इसीलिये प्रकट की थी उसने महाराज के सामने। वे अपनी राजकुमारी की हर इच्छा पूरी करते थे। उसकी इस इच्छा को भी पूर्ण कर दिया उन्होंने। सोनालिका खुश हो गयी। 60 वर्षीय दिनवा निषाद बड़ा चतुर और निपुण था नाव चलाने में।
दूसरे दिन से नाव चलाना सीखने लगी सोनालिका। सर्दियों का मौसम था। धूप खिली हुई थी। अब तक काफी कुछ सीख चुकी थी सोनालिका। उस दिन वह स्वयम् नाव चला रही थी। दिनवा निषाद सामने बैठा था।
नाव बीच नदी में थी। एकाएक पतवार को पानी के अन्दर किसी ने पकड़ लिया और जैसे ही सोनालिका ने पतवार को ज़ोर से खींचा, पतवार हाथ से छूट गयी और झटके के साथ वह नदी में दूसरी ओर गिर गयी। दिनवा घबरा गया। वह समझ गया कि यह सब पानी में मगरमच्छ के कारण हुआ है। लेकिन वह कर ही क्या सकता था ? सोचने का समय नहीं था।
उसी समय नदी के किनारे खड़े एक युवक ने देख लिया। वह फुर्ती से छलांग लगाकर कूद पड़ा केन नदी की प्रचंड धारा में। करीब एक घण्टे तक लड़ता रहा वह युवक मगरमच्छ से और अन्त में उसका जबड़ा फाड़ दिया उसने और सोनालिका को गोद में उठाकर नाव में रखा। मगरमच्छ को घसीटता हुआ किनारे ले आया वह वीर युवक।
जब इस घटना की जानकारी किले में पहुंची तो हाहाकार मच गया चारों तरफ। तब तक द्वारपाल ने सूचना दी कि बहादुर नट का बेटा विरला मृत मगरमच्छ को कन्धे पर लादकर किले की तरफ ही आ रहा है।
महाराज रिपुदमन सिंह दौड़कर किले के फाटक पर पहुंचे और विरला को गले लगाते हुये बोले–तुमने मेरी बेटी की जान बचा कर यह सिद्ध कर दिया है कि तुम्हारा विरला नाम् बहुत उचित है। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ बेटा–और इतना कहकर महाराज ने अपने गले का मूल्यवान हार विरला के गले में डाल दिया।
(17).
सोनालिका का इलाज ग्वालियर के राजवैद्य ने किया। वह ठीक तो हो गयी लेकिन मगरमच्छ के नुकीले दांतों के तीन निशान बन गए उसके बाएं हाथ पर।
वह युवक कौन था ? कैसे उसने उसकी प्राणरक्षा की ? बेहोश होने के कारण उस समय वह जान न सकी और जब उसे यह पता चला कि उसका प्राणरक्षक और कोई नहीं, विरला था और उसीने अपनी जान खतरे में डाल कर काल के मुंह से निकला था उसे तो चौंक पड़ी सोनालिका एकबारगी।
आश्चर्य और कौतूहल की सीमा ही नहीं रही। न जाने क्यों रोमांचित हो उठा उसका सारा शरीर। यौवन से भरपूर विरला का सुगठित सुंदर शरीर थिरक उठा उसके सामने उस समय। न जाने क्यों विरला को देखने के लिए आकुल हो उठी उसकी आत्मा ? कौन-सा वह पल था जब विरला के प्रति उसके हृदय में अंकुरित हो गया प्रेम।
अब हर समय विरला की ही याद में खोई-खोई-सी रहने लगी वह। आश्चर्य की बात तो यह थी कि विरला का रूप और व्यक्तित्व सोनालिका की कल्पना में ही था, प्रत्यक्ष में उसने अभी तक विरला को देखा ही नही था।
एक दिन दोपहर के समय कल्पना में डूबी हुई सोनालिका चित्रकारी कर रही थी। उसी समय एक सिपाही किले की बुर्ज पर चढ़ गया और जोर-जोर से आवाज़ देकर विरला को बुलाने लगा। वह कह रहा था–दूतराज को नाँग ने डस लिया है, जल्दी आओ।
सिपाही की आवाज़ सोनालिका ने भी सुनी तो उसने अपनी एक सहेली से पूछा–यह विरला आखिर है कौन ? सांप के डसने पर क्यों बुलाया जा रहा है उसे ?
सोनालिका की सहेली केसर हँसकर बोली–इतनी जल्दी विरला को भूल गयी तुम और यह भी भूल गयी कि उसीने मगरमच्छ से तेरी जान बचाई थी।
यह सुनकर न जाने क्या सोचने लगी सोनालिका। फिर केसर से पूछा–यह विरला है कौन ?
दूसरी बार यह प्रश्न सुनकर केसर से रहा न गया। जरा तुनक कर बोली–क्या तुमको फिर से यह बतलाना होगा कि विरला ने ही मौत के मुंह से तुझे बाहर निकाला था और तेरा हाथ निकाला था मगरमच्छ का जबड़ा फाड़ कर। उसी को बुलाया जा रहा है राजदूत का सांप का जहर उतारने के लिए।
फिर तो बड़ा बलशाली होगा विरला ? खिड़की के बाहर झांकते हुए सोनालिका बोली।
इसमें क्या शक है ? तेरी ही उम्र का तो लड़का है, बहुत सुंदर है, नौजवान है। मेरा तो मन करता है कि जी भरकर बातें करूं उससे पर मेरे ऐसे भाग्य कहाँ ?
केसर की बात सुनकर विरला को देखने की लालसा पैदा हो गयी सोनालिका के मन में। वह पहले से ही विरला के लिए पागल थी और अब तो इस लालसा ने आग में घी का काम कर दिया था।
(18).
सवेरा हो चुका था। उस समय रोज की तरह अपने महल की छत पर टहल रही थी सोनालिका। केसर उसे ‘भोर का गीत’ सुना रही थी। तभी उसकी नज़र नदी के बीच स्थित पहाड़ी पर गयी। देखा–एक सुन्दर और बलिष्ठ नौजवान पहाड़ी से कूद कर नहा रहा था।
सोनालिका बोली–देख केसर, यह युवक कितना सुन्दर और आकर्षक है। लगता है जैसे कोई राजकुमार हो।
केसर खिलखिलाकर हंस पड़ी फिर बोली–यह कोई राजकुमार नहीं है सोनालिका, यही है वह विरला नट जिसके सपने देख रही हो तुम इस समय।
बहुत देर तक पहाड़ी की ओर देखती रही सोनालिका। विरला ने ही उसकी प्राणरक्षा की–यह जब भी सोचती, तब रोमांचित हो उठती वह।
शिवरात्रि का पर्व था केसर भगवान् शंकर जी के दर्शन करने जा रही थी। उस दिन उसका व्रत भी था। अचानक एक जहरीला नाँग उसके पैर के नीचे दब गया।
वह चीखने-चिल्लाने लगी। कई दर्शनार्थी लोग उसकी ओर दौड़ पड़े। सोनालिका भी मान-मर्यादा का ख्याल त्यागकर केसर के पास पहुंच गई। पैर पकड़कर ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी केसर। विरला ने जब सुना कि केसर को नाँग ने डस लिया है तो वह भी जा पहुंचा केसर के पास और जैसे ही उसने केसर के पैर से खून बहते देखा, वह चकरा गया। क्यों कि सांप के डसने का घाव ही नहीं था वह।
केसर को समझते देर न लगी कि कुछ शंका हो रही है विरला को। फिर भी वह बेहोश होने का नाटक कर् रही थी। मगर जैसे ही विरला ने फुर्ती से केसर को थामा, केसर ने धीरे से विरला के कान में कहा–राजकुमारी सोनालिका तुमसे प्रेम करती है।
कल इसी मन्दिर के बाग में नाँग पकड़ने के बहाने आ जाना तुम। विरला ने भी झाड़-फूँक का नाटक किया और नाटक किया केसर ने अच्छा हो जाने का।
कुछ ही देर में भीड़ छंट गयी। विरला भी चला गया। केसर को अपने साथ महल में ले आयी सोनालिका। एकान्त में हंस-हंस कर केसर ने बताया–तू समझी नहीं सोनालिका, वह तो मेरा नाटक था नाटक समझी ? मैंने जानबूझकर यह सब नाटक किया था चाकू से पैर में जख्म करके।
सोचा था जब खून निकलने लगेगा तो सांप के काटने का बहाना करूंगी और जब नाँग का विष उतारने विरला आएगा तो उसे साफ साफ बतला दूंगी कि राजकुमारी तुन्हें प्यार करती है। कल सांझ को मैंने विरला को नाँग पकड़ने के बहाने मन्दिर वाले बाग़ में बुलाया है। वह अवश्य आएगा, तुम उससे मिल लेना, मैं भी साथ में रहूंगी तुम्हारे। लजाती हुई सोनालिका बोली–कितनी चतुर है तू। तुझे तो बहुत सीधी और सरल समझती थी मैं।
दूसरे दिन शाम को दोनों मन्दिर वाले बाग़ में पहुंच गयीं। उस समय विरला मंत्रों द्वारा सांपों का आवाहन कर रहा था। अब तक उसके समक्ष दर्जनों छोटे-बड़े नाँग-नागिन एकत्र हो गए थे। सोनालिका एकटक उस अद्भुत दृश्य को देख रही थी। उसी समय सोनालिका की नज़र बचा कर एक झाड़ी में जा छुपी केसर।
जब सभी सर्प एक एक-कर चले गए तो सोनालिका की ओर ध्यान गया विरला का। वह उस रूपांगना को देखकर जितना मुग्ध हुआ था उससे कहीं ज्यादा तो वह घबड़ा गया उसे अचानक देखकर। सिर झुका कर, हाथ जोड़कर वह बोला–राजकुमारी को मेरा प्रणाम। मैं नट विरला हूँ, मैं किसी तरह से आपके योग्य नहीं हूं। आप ठहरी राजकुमारी। मेरा आपका कोई मेल नहीं, क्षमा करें राजकुमारी !
यह सुनकर सोनालिका की आंखों में आंसू छलछला आये। रुँधे गले से वह बोली–ऐसा न कहो विरला। यह जीवन तुमने दिया है, तुम मेरे प्राणरक्षक हो। तुमसे बढ़कर मेरे लिए योग्य और कौन हो सकता है ? यदि तुम मुझे स्वीकार नहीं करोगे तो मैं नदी में कूदकर अपनी जान दे दूंगी। विरला क्या कहता भला !
उसने भाव विह्वल होकर राजकुमारी का हाथ अपने हाथ में लेकर माथे से लगाया, होंठों से चूमा और फिर हाथ छोड़ मुड़कर चला गया। सोनालिका उसे जाते हुए देखती रही सजल नेत्रों से।
(19).
धीरे-धीरे सहेलियों के माध्यम से मिलन होने लगा विरला और सोनालिका का। कभी-कभी विरला भेष बदलकर भी जाने लगा सोनालिका के शयन-कक्ष में। शयन-कक्ष में दोनों प्रेमी पूरी रात आलिंगनबद्ध पड़े रहते। होश दोनों को न् रहता समय और स्थिति का।
ऐसी बातें छिपती नहीं। शीघ्र ही गुप्तचरों तक पहुंच गई विरला और सोनालिका की प्रणय-गाथा। गुप्तचरों ने विरला को रंगे हाथ पकड़ने का प्रयास किया लेकिन सफल न हो सके। अन्त में खीजकर इसकी सूचना महाराज रिपुदमन सिंह को दे दी कि आपकी बेटी का विरला से अवैध संबंध है। वह प्रायः शयन-कक्ष में राजकुमारी से मिलने के लिए आता है।
यह बात सुनकर महाराज स्तब्ध और अवाक् रह गए एकबारगी। कुछ देर बाद न जाने क्या सोचते हुए उन्होंने विरला नट और राजकुमारी सोनालिका को सभा-भवन में उपस्थित होने के लिए आदेश दिया। सभा-भवन में महाराज अपने मन्त्री दाऊदा के साथ विराजमान थे। प्रकरण दाऊदा ने ही प्रस्तुत किया।
उसने कहा–गुप्तचरों की सूचना के अनुसार राजकुमारी सोनालिका का विरला नट से अवैध संबंध है जो परम्परा के विपरीत है और जिसके कारण महाराज रिपुदमन सिंह का सिर नीचा हो रहा है। इसके लिए राजकुमारी सोनालिका और विरला नट को यथोचित दण्ड मिलना चाहिए। लेकिन मंत्री की बात को कोई महत्व नहीं दिया गया।
महाराज की पहल पर सभासदों ने फैसला किया कि दोनों का विवाह कर देना चाहिए क्योंकि दोनों के बीच सच्चा प्रेम है और राजकुमारी का जीवन विरला नट का ही बचाया हुआ है।
इस पर मंत्री दाऊदा ने दृढ़ता से कहा–मैं महाराज रिपुदमन सिंह और सभासदों के फैसले का सम्मान करता हूँ लेकिन एक शर्त है और वह यह कि इस वर्षाकाल में विरला नट धागे की सहायता से नदी के उस पार से इस पार आ जाता है सकुशल तो राजकुमारी का विवाह विरला के साथ राजोचित ढंग से कर दिया जाएगा। महाराज विचारमग्न हो गए।
बोले नहीं कुछ लेकिन सभासदों ने मंत्री की इस शर्त का समर्थन किया। विरला और सोनालिका से पूछा गया तो दोनों ने एक-दूसरे की ओर बड़े आत्मविश्वास के साथ देखा और शर्त स्वीकार कर ली।
पूरे भूरागढ़ की जनता में इस शर्त को लेकर घोर आश्चर्य हुआ। दूसरे ही दिन नदी पार करने की परीक्षा होनी थी। विरला ने अपने पिता के निर्देशन में अति रहस्यमयी तान्त्रिक क्रियाएं कीं और शाबरी मंत्रों का अनुष्ठान भी किया जिससे उसकी नटविद्या की शक्ति और भी अधिक बढ़ गयी और उसका आत्मविश्वास जाग उठा।
सवेरा हुआ। नदी की ओर के तोपखाने के गुम्बज से धागा बांधकर नदी की दूसरी ओर पहाड़ी पर उसका दूसरा सिरा बांध दिया गया। दर्शकों की अपार भीड़ जमा थी किले पर। बाढ़ के कारण केन नदी की धारा प्रचंड थी उस समय। नाव से विरला पहाड़ी की तरफ पहुंचा और किले की तरफ से झंडी के इशारे की प्रतीक्षा करने लगा। तान्त्रिक शक्ति और आत्मविश्वास के मिले-जुले भाव से दप दप कर रहा था विरला का चेहरा उस समय।
एक बार उस पार किले पर अपनी सहेलियों के साथ खड़ी सोनालिका की ओर स्थिर दृष्टि से देखा उसने और मंत्री दाऊदा ने हरी झंडी दिखाई। धागे के सहारे नदी पार करने लगा विरला। मोतीमहल की छत पर फूलों का हार लिए खड़ी सोनालिका अपने प्रति विरला के प्रेम की लगन देखकर आत्मविभोर थी।
विरला कुछ ही दूरी पर रह गया था पहुंचने के लिए। सोनालिका गोपखाने के गुम्बज के निकट पहुंच गई थी हार पहना कर विरला का स्वागत करने के लिए। सोनालिका ने देखा–विरला गुम्बज के पास पहुंच गया और फिर न जाने क्या हुआ एकाएक कि हवा में लहराता हुआ नदी की प्रचण्ड धारा में समा गया विरला। उसे बचाने की क्षमता किसी में नहीं थी।
क्या विरला का आत्मबल टूट चुका था ? क्या उसकी तान्त्रिक शक्ति क्षीण हो गयी थी ? नहीं, न उसके आत्मबल में कमी आयी और न तो उसकी तान्त्रिक शक्ति ही क्षीण हुई थी। सब कुछ एक धोखा था, एक ईर्ष्या का परिणाम था, मंत्री दाऊदा के षड़यंत्र का नतीजा था जिस कारण विरला के जीवन और उसके निर्मल प्रेम की बलि चढ़ गई। सोनालिका का तो संसार ही उजड़ गया था।
दरअसल मंत्री दाऊदा सोनालिका को मन ही मन चाहता था। उसने अपनी चाहत को एक बार सोनालिका के सम्मुख प्रकट भी कर दिया था और सोनालिका ने उसे फटकार भी दिया था उसे और तभी से धधक रही थी असफलता की आग उसके हृदय में। बदला लेना चाहता था वह अपने अपमान का और उसने बदला ले ही लिया विरला की जान लेकर और दोनों को सदैव के लिए अलग करके।
पहाड़ी के पीछे छिपे हुए दाऊदा के एक आदमी ने सफलता की सीमा पर पहुंचने से पहले ही रांपी से काट दिया था उस अटूट धागे को। किले में मंत्री द्वारा विरला और सोनालिका के प्रेम-संबंधों पर पहरा बैठाने वाला मंत्री दाऊदा ही था। उसी के षडयंत्र के रूप में गुप्तचर भी लगाए गए थे और राजकुमारी को बदनाम करने में भी दाऊदा का ही पूरा-पूरा हाथ था। महाराज रिपुदमन सिंह इस षडयंत्र से पूरी तरह से अनजान थे।
शोकाकुल हो उठी भूरागढ़ की पूरी जनता। चारों तरफ दुःख का सागर लहराने लगा। महाराज की आंखें भी विरला के लिए छलछला आयीं थीं उस समय। लेकिन करते भी क्या ? विवश थे। यदि दाऊदा के कुटिल षडयंत्र से परिचित होते वे तो उसी समय उनका भाला दाऊदा की छाती चीरता हुआ बाहर निकल गया होता।
लेकिन सोनालिका जान-समझ गयी थी कि दाऊदा ने छल किया है उसके साथ। वह चीख पड़ी सहसा–दाऊदा, तूने यह अच्छा नहीं किया। तुझे इसका दण्ड भुगतना पड़ेगा।
(20).
राजकुमारी ! –दाऊदा ने उत्तर दिया–मैं क्षत्रिय हूँ। मैं तुम्हारे पिता की तरह भावनाओं में नहीं बह सकता। विरला को तो मृत्युदण्ड मिलना ही था। मैंने तो केवल अपना कर्तव्य पूरा किया है।
उस समय झर-झर कर आंसू बह रहे थे सोनालिका की आंखों से। उसकी पीड़ा, वेदना, कष्ट, दुःख और उसके हृदय पर लगे आघात को भला कौन समझने वाला था वहाँ। कुछ क्षण रुककर उसने घृणा की दृष्टि से दाऊदा की ओर देखा और फिर तड़पकर कहा–दाऊदा ! तूने तो मेरा जीवन खंडहर कर ही दिया है, भगवान् तेरा कुत्सित अभिलाषाओं का यह महल एक दिन खण्डहर अवश्य कर देगा। तू तो मुझे कभी भी पा न सकेगा–इतना कहकर हाथ में फूलों का वह हार लिए हुए गुम्बज से वह नदी में कूद पड़ी और दूसरे ही क्षण समा गई नदी के प्रचण्ड प्रवाह में। केवल उसकी वह माला फूलों की बहती रही मीलों तक धारा के प्रवाह में।
भूरागढ़ के किले को तो खण्डहर होना ही था, हो भी गया, लेकिन उस खण्डहर के बगल में केन नदी के किनारे दो समाधियाँ आज भी बनी हुई हैं–एक समाधि विरला की और दूसरी है सोनालिका की जो अपनी अगाध वेदना की कहानी स्वयम् ही सुना रही हैं।
ऋषिकेश के आसमान पर घिरे हुए बादल अब छट गए थे। चांद काफी ऊपर आ गया था। रात की कालिमा अब और भी गहरी हो गयी थी और उससे अधिक गहरी हो गयी थी निस्तब्धता। सिर ऊपर उठाये अपलक निहार रही थी कपिला आनन्द। मैं कुछ देर मौन साधे रहा। फिर रहा न गया मुझसे।
आखिर बोल ही पड़ा–क्या आपकी कथा समाप्त हो गयी ?
वह धीमे से चांद की ओर देखती हुई बोली– नहीं, अभी समाप्त नहीं हुई मेरी कथा, शर्मा जी ! अभी तो बहुत कुछ शेष है। विरला तो डूबते ही मर गया था, लेकिन सोनालिका नहीं। वह पानी में गिरते ही बेहोश हो गयी थी। नदी की प्रखर धारा में डूबती-उतराती बहती रही…बहती रही और जब चेतना लौटी तो अपने आपको घने जंगलों से घिरे एक गुफा में पाया उसने। उसका सिर एक युवा सन्यासी की गोद में था और वह सन्यासी अपनी कोमल उंगलियों से उसके बालों को सहला रहा था।
शायद उसी की सुखद अनुभूति से धीरे-धीरे उसकी आँखें खुल गईं और खुलते ही सन्यासी पर नज़र पड़ी। सन्यासी मन्द-मन्द मुस्करा रहा था। देखा उसकी ओर तो बस देखती ही रह गयी उस सुदर्शन गौरांग युवा सन्यासी को। कुछ पल के लिए लगा कि मानो अनजाने लोक में आ गयी है वह और वह सन्यासी कोई देव पुरुष हो। फिर एक झटके से उठी सोनालिका और थोड़ा हकलाते हुए बोली–मैं कहाँ हूँ ? कौन लाया मुझे यहां ? कौन हैं आप… बतलाइये मुझे कौन हैं आप सन्यासी के भेष में ?
सन्यासी मौन रहा। उसके चेहरे की मुद्रा गम्भीर थी। कोई उत्तर नहीं दिया उसने। बस, अपने तेज प्रखर नेत्रों से अपलक निहारता रहा वह सोनालिका को।
सन्यासी का मौन सोनालिका को विचित्र लगा। कुछ भयभीत भी हो उठी वह। चीख उठी सोनालिका दूसरे क्षण–बोलिये तो, कुछ जवाब तो दीजिये।
फिर उस युवा सन्यासी ने जो कुछ बतलाया, उसे सुनकर स्तब्ध रह गयी सोनालिका। आश्चर्य और कौतूहल से भर गया उसका हृदय और अन्त में रहा न गया उससे। विगलित हो उठी उसकी आत्मा। झुक कर अपना सिर रख दिया उसने उस युवा सन्यासी के चरणों में और न जाने कब तक भीगते रहे सन्यासी के चरण सोनालिका के आंसुओं से।
सन्यासी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तटस्थ और निर्विकार बैठा रहा वह अपने आसन पर। थोडी देर बाद दोनों हाथों से सोनालिका का सिर उठाते हुए गम्भीर स्वर में बोला वह –क्या तुम अपने माता-पिता के पास जाना चाहती हो ? सन्यासी के स्वर में गंभीरता थी और थी सहजता। सम्भवतया अपनत्व का मिश्रण भी रहा हो उसके स्वर में।
नहीं–सिर झुकाकर विनम्र स्वर में उत्तर दिया सोनालिका ने–अब मैं अपने प्राणरक्षक, आश्रयदाता के सान्निध्य में ही रहना चाहती हूँ। यही मेरे लिए शुभ होगा। थोड़ा रुककर वह आगे बोली–वैसे तो मैं मर चुकी हूँ माता-पिता के लिए। यदि लौटकर जाती हूँ तो वहां क्या रखा है मेरे लिए अब ? जो था मेरा, अब रहा है नहीं।–इतना कहकर फफक-फफक कर रोने लगी सोनालिका।
सब कुछ समझते देर न लगी सन्यासी को। गुफा के बाहर निकल आया और एकटक देखने लगा वह आकाश की ओर शून्य में।
(21).
गुफा के बाहर निकल आया वह युवा सन्यासी और एकटक देखने लगा आकाश की ओर शून्य में। निश्चय ही आत्मसंघर्ष कर रहा था वह उस समय। क्यों इस युवती को नदी से निकाल कर ले आया अपनी गुफा में ? क्यों सेवा की बेहोशी की स्थिति में उसकी ? क्यों उसके मन में मोह और आकर्षण है ? क्या है कारण इसका आखिर ?
क्या इस युवती से अनजाने में प्रेम करने लगा है वह ? नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, असम्भव है। अपने आपको अंतर्द्वंद्व से मुक्त करने के लिए एक लम्बी सांस लेकर सन्यासी बोला–सोनालिका ! संसार, समाज और धर्म के विरुद्ध है एक साथ मेरा तुम्हारा यहां रहना।
यह सुनकर रोने लगी सोनालिका। उसी स्थिति में अवरुद्ध कण्ठ से बोली वह–कहाँ जाऊँ मैं ? कौन है मेरा इस संसार में आपको छोड़कर, आप ही बतलाइये ? माता-पिता के पास जाती हूँ तो लोगों का यह पूछना स्वाभाविक है कि कहां थी पूरे दो महीने ?
यदि लोग यह जान लेंगे कि एक युवा सन्यासी के संरक्षण में रही और उसी सन्यासी ने बेहोशी की अवस्था में मुझे नदी से निकाला था तो लोगों का सशंकित होना स्वाभाविक है। मेरी पवित्रता को किसको सन्देह न होगा ?
सोनालिका की बात सुनकर फिर सोच में पड़ गया युवा सन्यासी। कुछ देर बाद बोला–क्या तुम सन्यास लोगी ? मैं सन्यासी हूँ तंत्रमार्ग का। सन्यासिनी के रूप में मेरी भैरवी होकर रहना होगा मेरे साथ…स्वीकार है ?
सन्यासी के एक-एक शब्द में ओज था और थी गम्भीरता भी।
हां ! स्वीकार है मुझे–सोनालिका ने उत्तर दिया गम्भीर स्वर में। दृढ़ता की झलक थी उसकी वाणी में।
*भैरवी दीक्षा :*
उस युवा और सुदर्शन सन्यासी का नाम था–ताराचरण शाक्त। साधना के प्रभाव से वह देखने में युवा था लेकिन उसकी आयु थी पूरी अस्सी वर्ष की। तराचारण ने विधिवत् सन्यास की दीक्षा देकर अपनी भैरवी बना लिया सोनालिका को। बिना भैरवी के सहयोग से तान्त्रिक साधना अपूर्ण समझी जाती है। माँ महामाया की कृपा से ताराचरण को सोनालिका के रूप में भैरवी उपलब्ध हो गयी थी। उसकी साधना की पूर्णता के लिए माँ ने ही भेजा होगा सोनालिका को–ताराचरण ने यही समझा।
दोनों ने एक दूसरे के सहयोग से पूरे तीस वर्ष तक कठोर तन्त्र साधना की उस गुफा में। किसी वस्तु का अभाव नहीं था उस जंगली गुफा में। पहले तो गांव-गांव जाकर भिक्षा मांग लाता था सन्यासी। लेकिन सोनालिका के आ जाने से भिक्षा-कर्म छोड़ दिया था उसने। जिस वस्तु का अभाव होता और जिस पदार्थ की इच्छा होती, उस वस्तु और पदार्थ की सृष्टि स्वयम् हो जाती सन्यासी की मानसिक शक्ति द्वारा।
तीस वर्ष की कठोर योगतांत्रिक साधना के फलस्वरूप दोनों अपने-अपने सूक्ष्मशरीर से अधिक कार्य लेने लगे थे। दोनों एक साथ अपने सूक्ष्मशरीर द्वारा आकाश मार्ग से लम्बी लम्बी यात्रा करते। हिमालय स्थित गुप्त साधना स्थलों में जाते। गोपनीय ढंग से साधनारत साधकों से मिलते और जिन तीर्थो में जाने की इच्छा होती , वहां तत्काल पहुंच जाते। कभी-कभी गुफा में सूक्ष्मशरीर से उच्चकोटि के योगी-साधक भी आते और उनके साथ तरह-तरह की साधनाओं की चर्चा होती।
सोनालिका की आत्मा को असीम शांति मिलती और मिलता असीम सुख। आनंदविभोर हो उठती उस समय वह। जब कभी अपने अतीत में झांकती सोनालिका तो उसको सब कुछ तुच्छ और व्यर्थ-सा लगता–राजसुख, एक नट से प्रेम, उस प्रेम में पागल हो जाना–कितना निरर्थक और सारहीन था सब कुछ अब उसके लिए।
हंस पड़ती वह मनुष्य की मूर्खता और अज्ञानता पर। आध्यात्मिक साधना- भूमि में प्रवेश करने पर ऐसा ही प्रतीत होता है–संसार, समाज, परिवार, रिश्ते-नाते–सब सारहीन हो जाते हैं साधक के लिए।
वह जीवन को नहीं, जीवन में जीने की कला को देता है महत्व और इस कला का सच्चा मर्मज्ञ होता है तो साधक ही। सोनालिका के पास जीवन तो था, लेकिन जीने की कला नहीं थी और अब उस कला को भी वह जान गयी थी।
(22).
*महात्मा रत्नकीर्ति :*
धीरे-धीरे उस गुफा में सिद्धलोक, दिव्यलोक और आत्मलोक में निवास करने वाले सूक्ष्म शरीरधारी सिद्ध-साधकगण भी आने लगे थे कभी-कभी। इसके मूल में थी सोनालिका की मानसिक शक्ति की विद्युत ऊर्जा-तरंगें। जब कोई साधक साधना- भूमि में जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है तो उसकी मानसिक शक्ति में असीम विस्तार होता जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि अनेक दिव्य, सिद्ध और सूक्ष्मजगत के सूक्ष्म शरीरधारी प्राणी उसकी ओर आकर्षित होने लगते हैं।
इसी कारण उस गुफा में भी दिव्य महापुरुषों का आगमन शुरू हो गया। उन्हीं दिव्य पुरुषों में से एक थे–महात्मा रत्नकीर्ति। रत्नकीर्ति योग के अतिरिक्त औषधि-तन्त्र के भी प्रकाण्ड विद्वान् थे। रस सिद्ध था उन्हें। रसों के माध्यम से कायाकल्प करने की विद्या के रहस्य से परिचित थे महाशय।
ताराचारण की साधना से अत्यधिक प्रभावित थे रत्नकीर्ति। एक वार्तालाप के प्रसंग में ताराचारण शाक्त से उन्होंने कहा–आप जिस मार्ग के साधक हैं, वह एक-दो जन्म में पूर्णता को नहीं प्राप्त होने वाली है। इसके लिए आपको अभी पांच जन्म और लेने पड़ेंगे। क्यों नहीं आप इसी जन्म में और इसी शरीर से अपनी साधना पूर्ण कर लेते ?
यह सुनकर ताराचारण शाक्त विस्मित हुए, कौतूहल और विस्मय के मिले-जुले भाव से बोले–यह कैसे सम्भव है ? मृत्यु और पुनर्जन्म का तो साक्षात्कार प्रकृति के नियम के अनुसार सबको करना पड़ता है। मैं भला उस नियम से कैसे वंचित रहूंगा ?
कायाकल्प द्वारा–मुस्कराकर लेकिन गम्भीर स्वर में उत्तर दिया रत्नकीर्ति ने–आप कायाकल्प द्वारा इसी अवस्था में बने रहेंगे यानि युवा और आपकी आयु बराबर बढ़ती रहेगी।
काल का प्रभाव नहीं पड़ेगा आपके शरीर, मन और प्राण पर। लेकिन यह विचार कर लीजिये–साधना की पूर्णता और आपका शरीर त्याग एक साथ ही होगा। पूर्णता के पल के बाद जीवन जीने के लिए आपको एक पल भी प्राप्त नहीं होगा।
मृत्यु के बाद अगले जन्म में साधना का संस्कार ही विद्यमान रहता है आत्मा में, स्मृति नहीं। यदि गुरुकृपा और इष्टकृपा हुई तो साधक के लिए वही संस्कार आधार बन जाता है और आगे की साधना-यात्रा के लिए लेकिन गुरुकृपा और इष्टकृपा प्राप्त होगी–यह निश्चित नहीं है अगले जन्म में।
यह सब सोच-समझ कर गम्भीर स्वर में ताराचारण शाक्त बोले–स्वीकार है मुझे। जन्म और मृत्यु के कष्ट से तो बचा रहूंगा साधना की पूर्णता की अवधि तक। गुरुकृपा और इष्टकृपा की प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ेगी।
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*योगी का कायाकल्प :*
रत्नकीर्ति के औषधितन्त्र की रासायिनिक क्रियाओं द्वारा एक ही मास में चिरयौवन की उपलब्धि हो गयी ताराचरण शाक्त को। सोने की तरह चमकने लगा चेहरा उनका।
लेकिन सोनालिका का क्या हुआ ?
न उसका कायाकल्प हुआ और न तो हुआ उसे चिरयौवन ही उपलब्ध। काल का प्रभाव तो पड़ना ही था और वह बराबर पड़ रहा था सोनालिका पर। धीरे-धीरे 80 वर्ष की हो गयी सोनालिका। किन्तु उसके गुरु बराबर बने रहे चिरयौवन सम्पन्न। आयु का किञ्चित् भी प्रभाव नहीं पड़ा उनके ऊपर।
*सोनालिका की मृत्यु और पुनर्जन्म :*
इस नश्वर संसार में जैसे लोग मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार सोनालिका का भी हो गया शरीरान्त। मरने के बाद उसका जन्म हुआ एक महादरिद्र बंगाली परिवार में। संयोग ही कहा जायेगा या कहा जायेगा इसे प्रारब्ध। इस जन्म में भी एक उच्चकोटि के महासाधक की भैरवी ही बनी सोनालिका। लेकिन साधना काल में ही न जाने कैसे और क्यों उसकी मृत्यु हो गयी।
कुछ अन्तराल के बाद सोनालिका का जन्म पुनः बंगाली परिवार में ही हुआ। वह परिवार समृद्ध और धर्मपरायण था। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस तीसरे जन्म में भी भैरवी बनी सोनालिका और वह भी उसी महासाधक की जिसकी पिछले जन्म में रह चुकी थी। यह नियति की लीला ही समझी जाएगी या समझा जाएगा सोनालिका का दुर्भाग्य।
उस महासाधक की साधना तो पूर्ण हो गयी, लेकिन न जाने किस त्रुटि के कारण साधना भूमि में ही दम तोड़ दिया सोनालिका ने पिछली बार की तरह। परिणाम यह हुआ कि उस महासाधक को अपनी साधना की पूर्णता के फलस्वरूप भावराज्य उपलब्ध हुआ लेकिन सोनालिका को प्राप्त हुआ केवल मात्र भावशरीर जो प्रेतशरीर का ही एक विशिष्ट रूप है।
अब उसके लिए भौतिक संसार की सीमा में रहकर श्मशान में भटकने के अलावा और कुछ नहीं रह गया था। कभी-कभी अपने गुरु से मिलने अवश्य जाती थी भावराज्य में लेकिन उसको कोई लाभ नहीं था गुरुदर्शन से। यह नियति या परमात्मा की अनुकम्पा ही समझी जाएगी कि दीर्घकाल के उपरान्त लगभग 50 वर्ष पूर्व सोनालिका की भटकती हुई आत्मा को पुनः प्राप्त हुआ मानव शरीर। इस बार भी उसने एक ब्राह्मण कुल में जन्म लिया और उसका नाम रखा गया सरस्वती।
बहुत सुन्दर थी सरस्वती। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी झील जैसी आंखें, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे रक्ताभ होंठ। जब सरस्वती 15 साल की हुई तो उसका रूप और यौवन पूरी तरह खिल चुका था। उसकी आँखों में कामना और वासना की स्पष्ट झलक दिखलाई देने लगी थी।
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*मातृ~ अंक :*
साधक ताराचरण शाक्त की साधना अपनी पूर्णता के समीप थी लेकिन उसकी सिद्धि, बिना महाभैरवी के मातृअंक में सपर्पित हुए सम्भव नहीं थी और उसके अभाव में सिद्धलोक में प्रवेश भी नहीं हो सकता था। साधना की पूर्णता सिद्धि में है।
साधकगण उसी परमसिद्धि की सहायता से सिद्धलोक में प्रवेश करते हैं, लेकिन यह तभी सम्भव है जब उन्हें ‘मातृअंक’ यानि ‘माँ की गोद’ प्राप्त हो। योग-तंत्र में मातृअंक का सबसे अधिक मूल्य है। माता की गोद में सिर रखकर महाप्रयाण करने वाला साधक अपने निज लोक यानि सिद्धलोक को उपलब्ध होता है।
यदि वह उपलब्ध न हो सका तो साधना तो पूर्ण अवश्य हो जायेगी, लेकिन सिद्धलोक प्राप्त न होगा देहान्तरण के बाद।
साधना-भूमि में महाभैरवी ही माँ होती है। उसकी गोद मातृअंक होती है। देखा जाय तो महाभैरवी साक्षात जगदम्बा का स्वरूप होती है। मातृअंक का इसी से महत्व समझा जा सकता है कि भगवान् शिव को भी महाकाली रूपी महामाया पराशक्ति की गोद में बैठना पड़ा सिद्धलोक को उपलब्ध होने के लिए।
ताराचारण शाक्त की साधना पूर्ण हो चुकी थी, उसके परिणामस्वरूप सिद्धि- लाभ भी हो चुका था उनको, लेकिन अब था उनके सामने देहान्तरण के बाद सिद्धलोक गमन। परन्तु मातृअंक के अभाव में यह सम्भव नहीं था।
व्याकुल हो उठा वह परम साधक और तभी याद आयी उन्हें सोनालिका। यथावसर उसके आकाशचारी गुरु स्वामी परमानंद परमहंस देव ने महाभैरवी की दीक्षा दी थी सोनालिका को और उसका गुरुप्रदत्त नाम् रखा ‘अमृतकीर्ति’ और यह स्मरण होते ही और अधिक व्याकुल हो उठे ताराचारण शाक्त।
लेकिन अब होगा क्या ?
सोनालिका को शरीर त्याग किये 200 से भी ऊपर का समय हो चुका था। कहाँ होगी वह ? कहां जन्म लिया होगा उसने ? किस स्थान पर, किस स्थिति में होगी वह ? यदि मिल भी गयी तो क्या पहचान पाएगी वह ? नहीं.. नहीं.. अब तक तो वह कई जन्म ले चुकी होगी। पिछले जन्म की स्मृति होगी उसे ? नहीं, यह सम्भव नहीं। सब कुछ भूल चुकी होगी वह।
पूरी रात सो न सके ताराचरण शाक्त। यही सब सोचते-विचारते रहे। भोर के समय हल्की-सी झपकी लगी उन्हें और उसी समय सोनालिका के मृत्योपरान्त की सारी कहानी बतला दी उनको उनके आकाशचारी गुरु स्वामी परमानन्द परमहंसदेव ने।
अन्त में उन्होंने कहा–सोनालिका की आत्मा में महाभैरवी का जो संस्कार था, उसके फलस्वरूप मृत्योपरान्त एक महासाधक की दो बार महाभैरवी बनी। संयोग ही समझा जाएगा यह कि दोनों बार साधना-भूमि में ही मृत्यु हो गयी थी बेचारी की।
यह सुनकर स्तब्ध और अवाक् रह गए ताराचरण शाक्त। फिर उनसे रहा न गया और चल पड़े इस खोज में कि तीसरी बार कहाँ जन्म लिया है सोनालिका ने ? खोज सफल हुई। 16 वर्षीया रूप यौवन से सम्पन्न सरस्वती के रूप में अपनी महाभैरवी सोनालिका को देखकर दंग रह गए एकबारगी साधक महाशय। इतनी कमनीयता, इतनी लावण्यता और इतनी सुन्दरता एक किशोरी में ? स्तब्ध रह जाना स्वाभाविक था ताराचरण शाक्त के लिए।
सामने जाकर खड़े हो गए सोनालिका के वह। ऊंची कद-काठी, सोने जैसी देह, दप-दप करता हुआ मुखमण्डल, कंधे तक झूलती हुई घनी केश राशि। आत्मतेज से चमकती हुई आंखें, मस्तक पर लाल सिन्दूर का गोल टीका और त्रिपुंड, गले में स्फटिक की माला, बाएं हाथ में चमकता हुआ पीतल का कमण्डल और शरीर पर रेशमी काषाय वस्त्र।
300 वर्ष से अधिक आयु व्यतीत हो जाने पर भी युवा बने रहे उस सन्यासी को अपने सामने देखकर आश्चर्य और कौतूहल से भर उठी सरस्वती। अपलक देखने लगी सिर उठाकर उस सुन्दर और युवा साधक को। उससे न कुछ बोला ही गया और न तो कुछ कहा ही गया।
लगभग ऐसी ही स्थिति थी उस कालंजयी महातंत्र साधक की भी। मुग्धभाव से निर्निमेष देख रहा था उस नवयौवना को और फिर सहसा एक अघटित घट गया वहां। थोड़ा-सा आगे बढ़कर साधक ने अपना दाहिना हाथ सरस्वती के मस्तक पर रख दिया।
एक महान् योगतंत्र साधक के हाथ का स्पर्श होते ही समाधिस्थ हो गयी सरस्वती दूसरे ही क्षण और उस परम अवस्था में पिछले 300 वर्षों की सारी स्मृति जागृत हो उठी। पिछले जन्मों में वह कौन थी, क्या थी, किस जन्म में कौन-सी घटना घटी और किस जन्म में कौन महत्वपूर्ण था उसके लिए ?–ये सब कुछ एक-एक कर उभरने लगे उसके मानसपटल पर।
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समाधि कुछ देर बाद भँग हुई सरस्वती की। सिर उठा कर स्थिर दृष्टि से उसने देखा अपने गुरुदेव के तेजोमय मुखमण्डल की ओर फिर झुक गयी उनके चरणों में। न जाने कब तक रोती रही हिलक-हिलक कर वह। महासाधक के चरण भीग उठे एकबारगी महाभैरवी के आंसुओं से।
चांद पश्चिम की ओर झुक गया था। वर्फीली हवा अब और भी तेज हो गयी थी। बादल तो हट गए थे लेकिन उनकी धुन्ध अभी भी वातावरण में विद्यमान थी। उसी धुन्ध में खो-सा गया था पूरा ऋषिकेश।
उलझनों से भरी अत्यन्त रहस्यमयी कथा सुनकर अनेक विचार, अनेक प्रश्न और अनेक जिज्ञासाएं उठने लगी थीं मेरे मन में। गर्म शॉल को शरीर पर लपेटते हुए पूछा मैंने–फिर क्या हुआ ?
धीमे स्वर में बोली वह–होगा क्या ? जो होना था, वही हुआ। शरीर तो सरस्वती का था लेकिन आत्मा सोनालिका की और इस जन्म में भी सन्यासिनी बन गयी वह और उसका नाम रखा गया–कपिला आनन्द। एकबारगी चौंक पड़ा मैं यह सुनकर। स्तब्ध रह गयी मेरी आत्मा।
पाषाणवत देखता रहा मैं कुछ क्षण तक उस रहस्यमयी सन्यासिनी की ओर।
क्या आप ही सोनालिका हैं ?
हां, मैं ही सोनालिका हूँ। यह कहकर अपना दाहिना हाथ मेरे सामने फैला दिया सन्यासिनी ने। देखा–उजले, गोरे और सुन्दर हाथ पर तीन गहरे निशान थे मगरमच्छ के नुकीले दांतों के जिसे देखकर सन्न रह गया मैं एकबारगी।
मेरी सारी शंकाओं का, जिज्ञासाओं का समाधान हो चुका था और उत्तर भी मिल गया था मेरे तमाम प्रश्नों का। वास्तविक स्थिति के प्रति जो उत्कंठा थी और जो था कौतूहल, उसका हो गया था समाधान। योगी और साधकों का आध्यात्मिक जगत कितना गूढ़, गोपनीय और कितना रहस्यमय होता है–इसका पहली बार ज्ञान हुआ था मुझे।
मैंने सिर घुमाकर कपिला आनन्द की ओर देखा–वह निर्विकार भाव से सिर झुकाये और आंखें बन्द किये बैठी रही मौन निश्चल।
कहने की आवश्यकता नहीं, सरस्वती के रूप में जन्म लेने वाली कपिला आनन्द के अस्तित्व में मैं देख रहा था सोनालिका, काकुली और कालिन्दी की मिली-जुली छवि। हे भगवान् ! कितनी अविश्वसनीय और कितने आश्चर्य की बात है यह !
(चेतना विकास मिशन)